पर्यावरणीय आंदोलन - Environmental Movement
पर्यावरणीय आंदोलन - Environmental Movement
स्वतंत्रता से पूर्व के पर्यावरणीय आंदोलन की नींव बिश्नोई समाज द्वारा किए गए आंदोलन को महत्वपूर्ण माना जाता है और इसमें लोग पेड़ों से चिपक गए थे।
विनोई आंदोलन
इस आंदोलन को चिपको आंदोलन की आधारशिला कहा जा सकता है। यह जोधपुर (राजस्थान) के खेजडली गाँव में 1730 में पेड़ों की रक्षा के प्रयोजन से किया गया था। इसी समय जोधपुर के महाराजा अजय सिंह द्वारा एक विशाल महल बनाने की योजना बनाई गई और इसके लिए काफी लकड़ी की आवश्यकता महसूस की गई। राजस्थान में अकाल होने के कारण खिजड़ी गाँव को चुना गया क्योंकि यहाँ पर बड़े व मोटे पेड़ों की संख्या पर्याप्त थी। इस सूचना के बाद लोग गाँव में पेड़ों को काटने के लिए निकल पड़े। उसी गांव की निवासी अमृता देवी ने उन सैनिकों को पेड़ों को काटने से रोका और बताया कि यह उनके पंथ के खिलाफ है। जब इसके बाद भी लोग नहीं रुके, तो अमृता देवी और गाँव की अन्य महिलाएं एक-एक करके पेड़ों से चिपक गई। उनका नारा था सिरसाटै रुख रहे तो भी सस्ती जाण इसके बाद एक भीषण नरसंहार हुआ और इसमें 363 लोगों की जाने चली गई।
किसान आंदोलन
ब्रिटिश काल के दौरान अत्यधिक राजस्य की प्राप्ति के उद्देश्य से भूमि पर राज्य का आधिपत्य स्थापित किया जाने लगा तथा जमादार, बिचौलियों व नंबरवारों के माध्यम से राज्य द्वारा कृषकों का भूमि पर से आधिपत्य छीन लिया। इसके अलावा उच्च भूमि कर, बिचौलियों द्वारा बेगार बेदखली, शोषण आदि की पटनाएँ तेज होने लगी और इन पटनाओं ने किसानों में विरोध की भावना को जन्म दिया। परिणामस्वरूप किसानों ने समय-समय पर अनेक विद्रोह व विद्रोहात्मक संघर्ष शुरू कर दिए। यहाँ कुछ प्रमुख किसान आंदोलन संक्षेप में उल्लेखित किए जा रहे हैं।
संघाल विद्रोह
नील आंदोलन
चंपारण सत्याग्रह
खेड़ा सत्याग्रह
बारदोली सत्याग्रह
मोपला विद्रोह
तभागा आंदोलन
संथाल विद्रोह (1855-56)
प्रथम स्वाधीनता आंदोलन का आरंभ 30 जून 1855 को संथाल विद्रोह से होती है। भगनाडीह गाँव जो बिहार राज्य में संचाल परगना के राजमहल जनपद का एक गाँव है में संथाल नेता सिदों और कान्हू के नेतृत्व में यह विद्रोह किया गया और इसमें करीब 10 हजार की संख्या में जनता ने यह नारा लगाया कि अग्रेज हमारी भूमि छोड़ दें। विद्रोह मूल रूप से जमींदारों, माहूकारों व भूमिकर अधिकारी द्वारा किए जा रहे अत्याचारों के विरोध में किया गया था। इसके अलावा लाई कार्नवालिस द्वारा किए गए स्थायी बंदोबस्त के कारण भी जनता के शोषण और अत्याचार में वृद्धि हुई जिसके कारण भी इस विद्रोह को तुल मिला। हालांकि इस आंदोलन को समाप्त करने के उद्देश्य से सरकार ने एक बड़ी सैन्य कार्यवाही की और इसमें उन्हें सफलता भी हासिल हुई, परंतु साथ ही उन्होंने एक अलग संथाल परगना की मांग को मानकर क्षेत्र में शांति बहाल की।
नील आंदोलन (1859-60)
यह आंदोलन बंगाल के नादिया जिले के गोविंदपुर गाँव में सितंबर 1859 में शुरू हुआ जो मूल रूप से भारतीय किसानों द्वारा ब्रिटिश नील उत्पादकों के विरोध में किया गया था। अंग्रेज अधिकारी बंगाल व •बिहार के जमींदारों से भूमि लेकर बिना पैसा दिए ही किसानों को खेतों में काम करने के लिए बाध्य करते थे तथा नील उत्पादक किसानों को अपनी सी रकम अदा कर बाजार भाव से अत्यंत कम दाम पर करारनामा लिखा लेते थे। किसानों के संगठन और अनुशासन के कारण यह आंदोलन पूर्णरूप से सफल रहा।
चंपारण सत्याग्रह (1917-18)
1917 में चंपारण के किसानों द्वारा पुनः नील की जबरदस्ती खेती के खिलाफ में आंदोलन चलाया गया यह आंदोलन गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित था और इसमें सत्याग्रह के तत्वों को महत्व दिया गया। तिनकठिया पद्धति (किसानों को भूमि के 3/20वें हिस्से पर नील की खेतरी करना अनिवार्य था) प्रचलित होने के कारण किसानों का शोषण चरम पर था भूस्वामियों का खेत के लिए बढ़ता हुआ कर और किसानों की आवश्यकताओं का नील की खेती से पूरा न हो पाना इस आंदोलन के क्रियान्वयन का प्रमुख कारण था। वह आंदोलन भी पूर्णरूपेण सफल रहा और अंग्रेज सरकार को किसानों के आगे झुकना पड़ा।
खेड़ा सत्याग्रह (1918)
चंपारण की सफलता के पश्चात गांधी जी ने 1918 में गुजरात के खेड़ा किसानों को लेकर आंदोलन चलाया। अकाल और आर्थिक तंगी के बावजूद अंग्रेज सरकार ने लगान की वसूली में कोई कमी नहीं की और इसके कारण गरीब किसानों और खेतिहर मजदूरों की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई थी। शुरू में किसानों ने छूट की मांग की, परंतु इस मांग को ठुकरा दिया गया। आगे चलकर यह आंदोलन के रूप में परिणित हो गया। किसानों की जायज माग को लेकर समर्थन में समाचार पत्रों में कई लेख व संपादकीय निकाले गए और अहिंसक विरोध प्रदर्शन किए गए अंततः किसानों की मांग को उचित मानते हुए अकाल की विशिष्ट दशा को ध्यान में रहते हुए अंग्रेज सरकार ने समझौता कर लिया।
बारदोली सत्याग्रह (1920-39)
यह आंदोलन सूरत (गुजरात) के बरदोली तालुका में 1920 में चलाया गया। इस आंदोलन में न केवल कुनबी पाटीदार जातियों के भूस्वामियों ने हिस्सा लिया, अपितु जनजातियों ने भी इसमें अपनी उपस्थिति दर्ज की। आगे चलकर इसका नेतृत्व सरदार वल्लभ भाई पटेल द्वारा किया गया। वह आंदोलन मूल रूप से भूमि लगान दर में वृद्धि किए जाने के कारण शुरू हुआ था। यह राष्ट्रीय आंदोलन का सबसे संगठित व्यापक व सफल आंदोलन रहा। अंततः भूमि का लगान कर में मात्र 5 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गई और 12 अगस्त, 1939 को यह आंदोलन पूर्ण सफलता के साथ समाप्त हो गया।
मोपला विद्रोह (1921)
मोपला विद्रोह केरल के मलाबार क्षेत्र में मोपलाओं द्वारा 1921 में किया गया था, जो अंग्रेज सरकार के विरोध में हुआ था। महात्मा गांधी, शौकत आली, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं का सहयोग इस विद्रोह को प्राप्त था। इस आंदोलन के प्रमुख नेता रूप में अली मूलियार का नाम उल्लेखनीय है। इस आंदोलन का सूत्रपात एग्मद व बल्लूबाट तालुका में खिलाफत आंदोलन के विरुद्ध की गई अंग्रेज दमनात्मक कारवाई के विरोध में हुआ। आगे चलकर यह आंदोलन मुस्लिम मोपलाओं द्वारा चलाया गया और यह हिंदू तथा ब्रिटीशों के खिलाफ हो गया। इसने हिंद मुस्लिम सांप्रदायिक आंदोलन का रूप ले लिया परंतु जल्द ही इस आंदोलन को समाप्त कर दिया गया।
तेभागा आंदोलन (1946)
यह आंदोलन बंगाल में 1946 में कंपाराम सिंह और भवन सिंह के नेतृत्व में किया गया था। यह आंदोलन जोतदार व बटाईदारों के विरोध में किया गया था और इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य लगान की दर एक तिहाई करना था। किसान सभा के आह्वान पर इस आंदोलन में लगभग 50 लाख किसानों ने भागीदारी की और बड़ी मात्रा में इसे खेतिहर किसानों का समर्थन प्राप्त था। इस संघर्ष ने तमाम प्रतिकूल प्रचार व सांप्रदायिक उकसावे का मुकाबला करते हुए एकता का अद्भुत परिचय दिया। किसानों ने तीव्र पुलिस दमन और अत्याचारों का सामना करते हुए नवंबर 1946 से लेकर फरवरी, 1947 के दौरान फसल के दो तिहाई हिस्से पर अपने कब्जे को बनाए रखा।
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