स्वतंत्रयोत्तर भारत में हुए प्रमुख सामाजिक आंदोलन - Major Social Movements in Post-Independence India

स्वतंत्रयोत्तर भारत में हुए प्रमुख सामाजिक आंदोलन - Major Social Movements in Post-Independence India

स्वतंत्र भारत में अनेक प्रकार के परिवर्तन नियोजित हुए और इन परिवर्तनों ने कई समस्याओं को भी जन्म दिया तथा साथ ही साथ कई समस्याओं का उन्मूलन भी कार्यक्रमों व परियोजनाओं के माध्यम से करने का प्रयास किया गया। जिन समस्याओं के प्रति जनसमूह व संगठनों का असंतोष उत्पन्न हुआ उनके लिए कुछ आंदोलन क्रियान्वित हुए। उन्हीं आंदोलनों में से कुछ प्रमुख आंदोलनों का विवरण इस इकाई में प्रस्तुत किया जा रहा है।


स्वतंत्रयोत्तर भारत में हुए प्रमुख सामाजिक आंदोलन

• परिवर्तन संसार का शाश्वत नियम है और समाज भी इससे अछूता नहीं है। परिवर्तन होने से कई व्यवस्थाएँ चरमरा जाती हैं और उनमें परिवर्तन हो जाता है, परंतु मनुष्य द्वारा भौतिक वस्तुओं की तुलना में अपनी परंपराओं और मूल्यों को परिवर्तित कर पाने में समय लगता है। इस कुसमायोजन की स्थिति के कारण असतोष व्याप्त हो जाते हैं। इस असंतोष की परिणति के रूप में आंदोलन क्रियान्वित होते हैं। स्वतंत्रोत्तर भारत में हुए प्रमुख सामाजिक आंदोलन निम्न हैं.


भूदान और ग्रामदान आंदोलन


तेलंगाना आंदोलन


नक्सलवादी आंदोलन चिपको आंदोलन


नर्मदा बचाओ आंदोलन


सेवा


शाहबानो प्रकरण


अन्ना आंदोलन


भूदान और ग्रामदान आंदोलन


आचार्य विनोबा भावे द्वारा 1951 में इस आंदोलन को चलाया गया था। उनकी कोशिश यह थी कि भूमि का पुनर्वितरण सिर्फ कानूनी माध्यम से न हो अपितु एक सामाजिक आंदोलन के माध्यम से इसके लिए सफल कोशिश की जाए। आचार्य का मानना था कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में व्यापक रूप से भूमि सुधार लाने के लिए भूदान ही एक मात्र उपाय है। यह आंदोलन लोगों का हृदय परिवर्तित कर सामाजिक न्याय की प्रेरणा देता है। भूदान आंदोलन को सफल बनाने के लिए विनोबा ने गांधीवादी विचारों का अनुकरण करते हुए रचनात्मक कार्यक्रम और ट्रस्टीशिप जैसे विचारों का प्रयोग किया। उनके द्वारा सर्वोदय समाज की स्थापना की गई और यह रचनात्मक कार्यकर्ताओं का अखिल भारतीय संघ था। इसका मूल उद्देश्य अहिंसात्मक ढंग से देश में सामाजिक परिवर्तन के बीज का रोपण करना था। 18 अप्रैल 1951 को तेलगाना क्षेत्र में पोचमपल्ली गाँव में विनोवा को जमीन का पहला दान मिला। यह भूदान आंदोलन का आरंभ था।

इसके बाद वह गाँव-गाँव घूमकर भूमिहीन लोगों के लिए भूमि का दान करने की मांग करने लगे और उन्होंने इस दान को महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धत से संबंधित कार्य बताया। विनोबा पदयात्राएँ करते थे और घर-घर जाकर बड़े भूस्वामियों से अपनी भूमि का कम से कम छठा भाग भूदान के रूप में भूमिहीन किसानों को देने हेतु अनुरोध करते थे। आदालन के आरंभ में ही पाँच करोड़ एकड़ जमीन दान में हासिल करने का लक्ष्य रखा गया था। उस वक्त जयप्रकाश नारायण ( जो कि तत्कालीन प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (PSP) के नेता थे) भी 1953 में भूदान आंदोलन में सम्मिलित हो गए थे। आंदोलन के शुरुआती दिनों में विनोबा ने तेलंगाना क्षेत्र के लगभग 200 गाँवों की यात्रा की और उन्हें दान में 12.200 एकड़ भूमि प्राप्त हुई। इसके पश्चात यह आंदोलन उत्तर भारत में फैला और बिहार व उत्तर प्रदेश में इसका व्यापक प्रभाव परिलक्षित हुआ। अप्रैल 1954 के अंत तक 32 लाख एकड़ भूमि भूदान में दान की जा चुकी थी और इसमें से 20 लाख एकड़ भूमि व्यावहारिक रूप से अच्छी थी। भूदान करने बालों की संख्या 2,30,000 थी, जिनसे एक-तिहाई के बारे में कहा जाता है कि उनका हृदय परिवर्तित हो चुका था। 60,000 एकड़ भूमि 20,000 परिवारों में आवंटित की गई।


वर्ष 1957 को भूमि क्रांति वर्ष के रूप में माना जाता है। इस वर्ष तक आते-आते कुल 42 लाख एकड भूमि आंदोलन में दान की जा चुकी थी। वास्तव में यह भूदान एक बड़ी मात्रा में हुआ परंतु यह अभी भी निर्धारित लक्ष्य से बहुत कम था। 1955 में आंदोलन ने एक नया स्वरूप अख्तियार कर लिया और इसे 'ग्रामदाना के नाम से जाना जाने लगा। इसका आशय था सारी भूमि गोपाल की ग्रामदान वाले गांवों की सारी भूमि पर सामूहिक स्वामित्व माना गया। इसका आरंभ उड़ीसा से हुआ और इसे भी काफी सफलता प्राप्त हुई। 1960 तक देश में 4,500 से अधिक गांवों को ग्रामदान आंदोलन के माध्यम से दान किया जा चुका था। इनमें से 1946 गाँव उड़ीसा और 603 गाँव महाराष्ट्र के थे। विशिष्ट स्थानों पर इस आंदोलन की सफलता के बारे में कुछ विद्वान मानते हैं कि ग्रामदान वाले विचार उन्हीं स्थानों पर सफल हुए जहाँ वर्ग भेद नहीं उभरा था और वह क्षेत्र आदिवासियों का ही था।


समय बीतने के साथ-साथ 60 के दशक तक भूदान और ग्रामदान आंदोलन कमजोर पड़ गया। 70 के दशक के अंत में भूदान में प्राप्त भूमि का व्वल 30 प्रतिशत भाग ही वास्तव में भूमिहीनों को आवंदित हुआ और जिन भूमिहीनों को भूमि बांटी गई थी उनमें से अधिकांश इसका लाभ नहीं ले पाए। इसके कई कारण थे और कहा जाता है कि यह आंदोलन अपने मूल उद्देश्य से भटक गया था जिसके कारण यह असफल सिद्ध होता है, परंतु यदि इस आंदोलन के दूसरे पक्ष पर विचार करें तो इसने बड़े पैमाने पर लोगों का हृदय परिवर्तित किया था। उस आंदोलन ने भूस्वामियों पर एक नैतिक दबाव अवश्य बना लिया था और उन्हें भूमिहीनों के प्रति सहयोग की भावना से निर्मित वातावरण में मिला लिया था।


कृषक आंदोलन


कृषक आंदोलन, भारतीय कृषक सामाजिक संरचना को परिवर्तित करने अथवा बदलाव का विरोध करने के उद्देश्य से कृषक जनसमूह का एक सामूहिक व संगठित प्रयत्न है जो किसी वैचारिक मत के तहत मूर्त रूप ग्रहण करता रहा है। यद्यपि भारत में कृषक आंदोलन विशिष्ट कालों में और विशिष्ट उद्देश्यों से आयोजित रहा है, तथापि इसके आयोजन का मूल प्रयोजन निम्न बिंदुओं को माना जा सकता है।


1. कृषक सामाजिक संरचना को शोषण मुक्त व समतामूलक समाज के रूप में व्यवस्थित करना।


2. कृषक संबंधों में विद्यमान तत्कालीन शोषण को नष्ट करना और लगान के बढ़ते बोझ के प्रति विरोधी रवैया अख्तियार करना।


3. व्यापारी, ठेकेदार अथवा किसी अन्य द्वारा कृषकों के शोषण का विरोध प्रदर्शन करना। 


4. भूमि के स्वामित्व को बनाए रखने की माँग आधारित आदोलन करना।


5. राज्य से कृषि से संबंधित सुविधा व कृषि उत्पाद के लिएउचित मूल्य की प्राप्ति हेतु संघर्ष करना। सामान्य तौर पर उक्त उद्देश्यों को लेकर भारत में कृषक आंदोलनों का स्वरूप संघर्षरत रहा है। यहाँ कुछ प्रमुख रूप से दो कृषक आंदोलनों पर चर्चा प्रस्तुत की जा रही है


• तेलंगाना आंदोलन


● नक्सलवाड़ी आंदोलन


तेलगाना आंदोलन


तेलगाना आंदोलन 1946 के मध्य कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में शुरू हुआ और अक्टूबर 1951 तक चलता रहा। यह मुख्य रूप से हैदराबाद में सामतों के बिचौलियों पुलिस और निजाम के राजकारों के द्वारा हो रहे अप्रत्याशित शोषण व सामतो मनोवृत्तियों के विरोध में किया गया एक संगठित कृषक प्रयास था। इस आंदोलन का मुख्य प्रयोजन रेवतवारी] जागीरदारी व्यवस्था में मौजूद शोषणकारी प्रवृत्ति का उन्मूलन करके समता आधारित कृषक संबंधों को स्थापित करना था। ब्रिटिशकाल में साजेंटशिप के तहत हैदराबाद निजमों द्वारा शासित था, जिसमें तेलंगाना क्षेत्र आधे से अधिक राज्य क्षेत्र में विस्तारित था। लगान की दर ऊंची कर दिए जाने के कारण छोटे रयत ऋणग्रस्त होते चले गए और इसका परिणाम यह हुआ कि बड़े रैयता के पास भूमि का केंद्राकरण होता चला गया। इसके कारण छोटे रैयतों को विवश होकर बड़े रेवतों की भूमि पर ऊंचे लगान दर पर खेती करना पड़ा। इसके अलावा निम्न कारक भी महत्वपूर्ण है जो उस दौरान पटित होने वाली प्रमुख गतिविधियाँ धी।


● 1929-34 की आर्थिक मंदी के दौरान बढ़ी मुद्रास्फीति छोटे किसानों के लिए प्रतिकूल थी जबकि बड़े किसानों के लिए अनुकूला 


● व्यापारिक फसलों के उपजाने के कारण बड़े किसानों के पास धन का संचयन


• बेट्टी व्यवस्था और बेट्टी-चाकरी व्यवस्था के तहत बड़े भू-स्वामियों व जागीरदारों द्वारा भूमिहीन


कृषकों का शोषण करना। उपर्युक्त परिस्थितियों के कारण किसानों में असंतोष व्याप्त होने लगा और फलतः 1946 में कम्युनिष्ट पार्टी के अंतर्गत इस आंदोलन की नींव पड़ी। इस आंदोलन ने शांत संघर्ष से लेकर गुरिल्ला युद्ध तक के सफर को तब किया। इस आंदोलन की प्रमुख उपलब्धियां निम्न है।


1. कृषक वर्ग में स्वयं के प्रति हो रहे शोषण के विरोध में वर्ग चेतना जागृत हुई और वे समतामूलक समाज की स्थापना व स्वयं के हितों को लेकर संगठित हुए। अन्य क्षेत्रों में भी कृषक समाज की संस्थागत संरचना में सुधार हेतु हिंसात्मक संघर्ष प्रारम्भ हो गए।


2. कृषकों की स्थिति में सुधार हेतु सरकार द्वारा भूमि सुधार व अन्य कार्यक्रमों को नियोजित करना।


3. अन्य संगठनों का ध्यान भी इस शोषण के प्रति आकृष्ट हुआ और भूदान आंदोलन को इसकी परिणति के रूप में संदर्भित किया जा सकता है।


4. कृषक संबंधों में तनाव व संघर्ष के भाव का सृजन हुआ जिसकी अभिव्यक्ति नक्सलबाड़ी आंदोलन के रूप में उभरी।


5. कृषक संबंधों का राजनीतिकरण हुआ।


नक्सलबाड़ी आंदोलन


पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग के नक्सलवाड़ी गाँव के स्थानियों की भूमि संबंधित शोषणकारी व्यवस्था से व्याप्त असंतोष के परिणामस्वरूप यह आंदोलन 1967 में आरंभ हुआ। कान्हू सान्याल और पंचानन सरकार के नेतृत्व में इस आंदोलन ने कई अन्य क्षेत्रों में भी प्रसिद्धि प्राप्त की। यह आंदोलन प्रमुख रूप से मार्क्सवादी लेनिनवादी और मा विचारधारा से प्रभावित रहा है और यह व्यवस्था में अमूलचूल परिवर्तन को महत्व देता है। 1747-67 के बीच पश्चिमी बंगाल की भूमि पर जोतदारी अधियारी पद्धति का प्रचलन था। यहाँ की अधिकांश भूमि पर बड़े जमींदारों का आधिपत्य स्थापित था और वे भूमिहीनों को कृषि हेतु भूमि देते थे। भूमिहीनमजदूर अथवा अधिवारजोतदार उस भूमि पर कृषि कार्य करते थे और बदले में जमीदारों को भूमि पर उपजे अनाज का आधा भाग देते थे। साथ ही साथ अधिवारों को अपने ही आधे हिस्से में बीज प्रयोग और पशुधन आदि में खर्च वहन करने हेतु जमींदारों को चुकाने पड़ते थे।

अर्थात् कुल मिलकर जोतदारों को भूमि पर उपजे अनाज का 1/4 या 15 हिस्सा ही प्राप्त हो पाता था। भूमि और कृषि संबंधों में शोषण अपने चरमोत्कर्ष पर था। अधियार उपज के इतने कम भाग से अपना और अपने परिवार का भरण पोषण कर पाना उनके लिए घरि-घरि दुष्कर होता चला गया। जीवन निर्वाह के लिए उन्हें ऊंचे ब्याज पर ऋण लेना पड़ता था और उस ऋण के भुगतान हेतु उन्हें अत्यधिक श्रम और बेगार भी करना पड़ता था। इन विकृत परिस्थितियों के परिणामस्वरूप अधियारों की आर्थिक सामाजिक स्थिति लगातार बिगड़ती चली गई और भूमि के समुचित संरक्षण न हो पाने के कारण उन्हें या तो जमीदारों द्वारा भूमि पर कृषि से बेदखल कर दिया गया अथवा उन्हें कम मजदूरीपर श्रम को बेचना पड़ा और उनके ऋण का बोध दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही गया।


आजाद भारत में जमीदारी उन्मूलन को वैधानिक अस्तित्व प्राप्त हुआ और उसे समाप्त कर दिया गया, परंतु उन्मूलन के पश्चात भी वह शोषण की कुव्यवस्था समाप्त नहीं होती वरन इसकी ऊपरी संरचना में केवल हेर-फेर होता है। अब भूमि पर जमीदारों के स्थान पर बड़े जोतदारों का शासन लागू हो गया। भूस्वामियों ने भूमि पर अपना आधिपत्य बनाए रखा। कुछ भूमियों को अपने नाम पर तो कुछ को अपने परिवार के अन्य सदस्यों के नाम पर, तो कुछ को अपने संबंधियों के नाम पर हस्तांतरित करके अपना आधिपत्य जमाए रखा। अर्थात् जमीदारी उन्मूलन के पश्चात भी पूर्व की शोषण प्रणाली विद्यमान रही। तत्कालीन समय में औद्योगिक विकास की दर धीमी होने के कारण स्थानियों को वैकल्पिक रोजगार के स्रोत भी उपलब्ध नहीं हो पाए। इन बीभत्स परिस्थितियों और दोषपूर्ण प्रणाली के कारण स्थानीय लोगों के मध्य रोष और असंतोष की भावना उत्पन्न हो गई। इन परिस्थितियों से उपजे क्षोभ ने आंदोलन की पृष्ठभूमि को तैयार किया।


नक्सल वादी आंदोलन का मुख्य उद्देश्य एक शोषणविहीन समतामूलक समाज को स्थापित करना था. जिसमें सभी के पास भूमि पर आधिपत्य हो और वे अपने जीवन निर्वाह की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा कर सके मार्क्सवादी लेनिनवादी और माओवादी विचारधारा से प्रेरित होने के कारण गुरिल्ला युद्ध द्वारा सत्ता पर आधिपत्य और व्यवस्था में पूर्ण रूप से परिवर्तन लाने का प्रयास इसके मूल में निहित था। यह आंदोलन आरंभ में कान्हू सान्याल के नेतृत्व में निश्चित रणनीति के तहत कार्य कर रहा था जिसमें में काटकर लाए गए अनाज को इकट्ठा कर उस पर लाल झंडा गाड़ देना, फसलों की रक्षा हेतु शस्त्र का उपयोग करना, पुलिस से अपने अनाजों की सुरक्षा करना आदि सम्मिलित था। आगे चलकर यह आदोलन चारु मजूमदार के निर्देशन में संचालित हुआ जिसमें उक्त प्रशिक्षण प्राप्त कैडरों को गुरिल्ला युद्ध पद्धति से नई रणनीति को अपनाकर व्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन की ओर रुख किया गया। अधियारी व्यवस्था के विरोध में नक्सलबाड़ी क्षेत्र में किसान सभा (साम्यवादियों द्वारा समर्थित समाज) द्वारा विस्तृत प्रयत्न किए गए, परंतु इसका कोई व्यावहारिक लाभ नहीं मिल पाया। इस प्रयास से यह तो स्पष्ट हो चुका था कि कानून की चहारदीवारी में रहकर इस शोषणयुक्त व्यवस्था से निजात पाना संभव नहीं है। इसके बाद आंदोलन ने क्रांतिकारी रूप धारण किया और अवैधानिक तरीके से शोषण के विरुद्ध संघर्ष प्रारंभ किया। नक्सलवाड़ी किसान सभा की बैठक में कान्ह सान्याल ने जोतदारों की सभी उपज को हथियाने की घोषणा की। यह आंदोलन तब शुरू हुआ जब नृपेन्द्र घोष, विरेन घोष, जतीन घोष आदि जैसे नेताओं के साथ कई अधियारों ने नक्सलवाड़ी गाँव के भगवान दयाल सिंह की भूमि पर उपजे अनाज को अपनी माँग के रूप में अभिव्यक्त किया और अधिवारों को अनाज को अपने घर ले जाने का निर्देश दिया। 


तत्कालीन आंदोलन की प्रमुख मागेधी


व्यावहारिक तौर पर जमीनदारी व्यवस्था का उन्मूलन


भूमि को जीतने वाले अधिवारों का जोत पर आधिपत्य


ऋण पर 25 प्रतिशत ब्याज को निश्चित करना आगे चलकर आंदोलन ने क्रांतिकारी रूप ग्रहण कर लिया और पुलिस की दमनात्मक कार्यवाही के परिणामस्वरूप कान्हू सान्याल और तात्कालिक कई बड़े नेताओं को कैद कर लिया गया। इससे आंदोलन को एक गहरा आघात लगा. परंतु शीघ्र ही बार मजूमदार जैसे नेता की उपस्थिती से आंदोलन पुनः क्रियाशील हो गया। चारु मजूमदार का मानना था कि शोषण के तत्व इस सामंतवादी प्रणाली में ही निहित हैं। अतः शोषण को समाप्त करने के लिए इस सामंती व्यवस्था की संरचना को परिवर्तित करना होगा। इसके लिए उन्होंने गुरिल्ला युद्ध पद्धति को अपनाकर अधियारों को इस आंदोलन में सम्मिलित किया। इसका परिणाम यह हुआ कि गुप्त रूप से हत्याएं होनी प्रारंभ हो गई बंदूके छीनी जाने लगी और इस आंदोलन ने बीभत्स रूप धारण कर लिया। अब यह आंदोलन पूरी तरह से भूमिगत हो गया। इस आंदोलन की उपलब्धियाँ निम्न है।


कृषक वर्ग अपने विरुद्ध क्रियाशी शोषणयुक्त प्रणाली के प्रति सचेत हुए और अपने हित के लिए संगठित हुए। 


भूमिहीन कृषकों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति सुद्द हुई।


सरकार और अन्य लोकतांत्रिक संगठनों द्वारा भूमिहीन कृषकों की व्यवस्था में सुधार हेतु अनेक प्रयास किए गए।


इस आंदोलन ने संसदीय वामपंथियों की राजनैतिक असफलता को प्रकट किया, जिसने साम्यवादियों को पुनर्विचार हेतु प्रेरित किया। इस आंदोलन के प्रभाव स्वरूप अनेक कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों द्वारा सत्ता पर राजनीतिक आधिपत्य प्राप्त करने के लिए संगठित संघर्ष हुए जिसनेसत्तारूढ़ वामपंथियों को चुनौती दी। 3.5 पर्यावरणीय आंदोलन विकास के आधुनिक मॉडल के परिणामस्वरूप कई पर्यावरणविदा व सामान्य जन का ध्यान इसके दुष्परिणामों की ओर आकृष्ट हुआ और इस ध्यान से उत्पन्न असंतोष ने ही पर्यावरण आंदोलनों की पृष्ठभूमि को तैयार किया। यहाँ मूल रूप से दो आंदोलनों के बारे मेवर्णन किया जा रहा है


● चिपको आंदोलन


• नर्मदा बचाओ आंदोलन


चिपको आंदोलन


चिपको आंदोलन की शुरुआत सन् 1973 में उत्तराखंड के चमोली ग्राम (तच उत्तर प्रदेश था) में हुआ था। इस आंदोलन में किसानों ने सूखे वृक्षों की कटाई का शांत और अहिंसक विरोध किया था। यह आंदोलन तब शुरू होता है जब वन विभाग ने कृषि उपकरण बनाने वाले एक स्थानीय संगठन दसोलो ग्राम स्वराज्य संघ को एक वृक्ष देने से मना कर दिया और वन विभाग ने एक निजी कंपनी को वृक्ष दे दिया। इस घटना से आक्रोशित होकर उक्त संघ के नेतृत्व में सभी ग्रामीण लकड़ी से भरे ट्रकों के आगे एलईटी गए और लकड़ी के गोदाम में आग लगा दी। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य व्यवसाय के लिए हो रही बनों की कटाई पर से लगाना था और इसे रोकने के लिए बाद में महिलाएँ पेड़ों से चिपक कर खड़ी हो गई।


पेड़ों की नीलामी के प्रति स्थानीय महिला गौरा देवी व अन्य महिलाओं द्वारा विरोध किया गया, परंतु ठेकेदार और सरकार पर इस विरोध का कोई असर नजर नहीं आया। बाद में एक नेता चंडी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में इस प्रयास ने एक प्रभावकारी आंदोलन का रूप ले लिया। फलतः महिलाएँ पेड़ों से चिपक कर खड़ी हो गई और वे कहने लगी कि पहले हमें काटो फिर इन पेड़ों को भी काट लेना। चिपको आंदोलन का घोषवाक्या क्या है जंगल के उपकार मिट्टी, पानी और बचार मिट्टी, पानी और बयार जिंदा रहने के आधार ॥ प्रारंभ में इस आंदोलन की मांगे आर्थिक थी, यथा-बनों और वनवासियों का शोषण करने वाली ठेकेदारी व्यवस्था का उन्मूलन कर बन श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरीका निर्धारण, नया बन बंदोबस्त और स्थानीय छोटे उद्योगों के लिए रियायती कीमत पर कच्चे माल की आपूर्ति शनैः शनैः चिपको आंदोलन परंपरागत अल्पजीवी विनाशकारी अर्थव्यवस्था के विरुद्ध स्थायी अर्थव्यवस्था परिस्थितिकी का एक सशक्त जनआंदोलन के रूप में परिणित हो गया। अब आंदोलन कीमागे बदल गई, यथा हिमालय के वनों की प्रमुख उपज राष्ट्र के लिए जल है और कार्य मिट्टी बनाना सुधारना और उसे स्थिरता प्रदान करना है। इसलिए अभी हरे पेड़ों की कटाई तब तक (10 से 25 वर्ष) स्थगित रखी जानी चाहिए, जब तक राष्ट्रीय वन नीति के घोषित उद्देश्यों के अनुसार हिमालय में कम से कम 60 प्रतिशत क्षेत्रपेड़ों से आच्छादित न हो जाए। मुदा और जल संरक्षण करने वाले इस प्रकार के पेड़ों का रोपण किया जाना चाहिए, जिनसे लोग भोजन आदि की मूलभूत आवश्यकता को पूरा कर सका मोटे तौर पर आदोलन निम्न मांगों पर आधारित था।


1. व्यवसाय हेतु पेड़ों की कटाई पर रोक लगाई जाए।


2. परपरागत अधिकारों को लोगों की न्यूनतम आवश्यकताओं के आधार पर वरीयता दी जाए।


3. वृक्षों के प्रबंधन हेतु ग्रामीण समितियों की व्यवस्था की जाए। 


4. वन से संबंधित कुटीर उद्योगों का संवर्धन हो और इसके लिए कच्चे माल धन व तकनीकों को मुहैया कराया जाय।


5. वृक्ष लगाने में लोगों की भागीदारों को सुनिश्चित किया जाए और सूखे व ऊसर बनों को हरा-भरा बनाया जाए


6. स्थानीय परिस्थितियों, आवश्यकताओं और किस्मों पर आधारित पौधकरण को वरीयता प्रदान की जाए


इस प्रकार से इस आंदोलन ने पौधकरण और मृदा अपरदन जैसी आधारभूत मुद्दों पर अपना ध्यान आकृष्ट किया। इस आदोलन ने 1980 में एक बड़ी जीत हासिल की और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने प्रदेश के हिमालयी बनों में वृक्षों की कटाई पर अगले 15 वर्षों के लिए रोक लगा दी। सन् 1987 में इस आंदोलन को सम्यक जीविका पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 


नर्मदा बचाओ आंदोलन


नर्मदा बचाओ आंदोलन भारत में क्रियाशील पर्यावरण आंदोलनों की परिपक्वता का उदाहरण है। यह आंदोलन नर्मदा नदी परियोजना से उभरा है। नर्मदा नदी परियोजना भारत के तीन प्रमुख राज्यों गुजरात मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र से संबंधित परियोजना है। सन् 1987 से नर्मदा नदी पर तैयार की जा रही नर्मदा घाटी परियोजना ( जिसमें दो महापरियोजनाएं सम्मिलित हैं. प्रथम, गुजरात में सरदार सरोवर परियोजना और द्वितीय, मध्य प्रदेश में नर्मदा सागर परियोजना) सबसे बड़ी एवं बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजना है जो सिंचाई उत्पादन, बिजली, पेयजल आपूर्ति बाढ़ व सूखे की संभावनाओं पर प्रतिबंध लगाने के प्रयोजन से नियोजित है। यह परियोजना तो बहुत ही लाभप्रद प्रतीत होती है, परंतु इसके परिणाम भी बहुत ही भयप्रद । अनुमानतः इस जलाशय में 37,000 हेक्टेयर भूमि जलमग्न हो जाएगी और इस जलमग्न भूमि में 11,000 हेक्टेयर वन सम्मिलित है। साथ ही इससे 248 गाँव में निवासरत लगभग एक लाख लोग विस्थापित हो जाएंगे।


उपरोक्त भयप्रद परिणामों की प्रतिध्वनि के रूप में सर्वप्रथम स्थानीय लोगों द्वारा इसका विरोध प्रदर्शन किया गया और यह विरोध प्रमुख रूप से पुनर्वास से संबंधित था। उसके बाद स्थानीय स्वयंसेवी संगठनों द्वारा इसे एक जन आंदोलन के रूप में संगठित किया गया और विस्थापन पुनर्वास आजीविका, संस्कृति आदि प्रकार की समस्याओं को उठाया गया। इस परियोजना के विरोध ने अब एक जन आंदोलन के रूप में विकराल रूप धारण कर लिया था। 1980- 87 के दौरान जनजातियों के अधिकारों की समर्थक गैर सरकारी संस्था अंक चाहनी के नेता अनिल पटेल ने जनजातीय लोगों के पुर्नवास के अधिकारों को लेकर हाईकोर्ट व सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के परिणामस्वरूप गुजरात सरकार ने दिसंबर 1987 में एक पुर्नवास नीति की घोषणा की दूसरी ओर 1988 में इस आंदोलन ने औपचारिक रूप से नर्मदा पाटी परियोजना से संबंधित सभी कार्यों पर रोक की माँग की। इससे लड़ने के लिए लाखों लोग अपने घरों से बाहर निकले और यह प्रतिज्ञा की कि वे वापस घरों में जाने की अपेक्षा डूब जाना पसंद करेंगे। 1989 में मेघा पाटेकर द्वारा लाए गए नर्मदा बचाओ आंदोलन ने सरदार सरोवर परियोजना तथा इससे विस्थापित लोगों के पुर्नवास की नीतियों के क्रियान्यन की कमियों पर प्रकाश डाला। इस आंदोलन के कारण विश्व बैंक ने सरदार सरोवर परियोजना से अपने हाथ खींच लिए और एक हद तक यह आंदोलन सफल रहा। यथा


1. 1993 में मन सरोवर से विश्व बैंक का प्रस्थान 


2. 1994-99 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरोवर बांध की निर्मिति पर प्रतिबंध


3. 1999-2000 में महेश्वर बांध से विदेशी निवेशकों ने अपने हाथ वापस लिए 


4. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रभावित लोगों के पुनर्वास का आदेश


5. 2003 में राष्ट्रीय पुनर्वास नीति की स्वीकारोक्ति


6. 2005 में सूचना के अधिकार की प्राप्ति


नारीवादी आंदोलन


मानवातावादी परिप्रेक्ष्य में महिलाओं की स्थिति में उत्तरोत्तर परिवर्तन लाने के लिए और समानता के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु महिलाओं के नेतृत्व में संगठित प्रयास के रूप में विरोध व संघर्ष हुए हैं। नीचे दो नारीवादी आंदोलनों का उल्लेख किया जा रहा है


● सेवा


● शहबानो प्रकरण


हालांकि चिपको आंदोलन अपिको आंदोलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन को भी कुछ विद्वानों द्वारा नारीवादी आंदोलन के तहत माना गया है। 


सेवा


महिलाओं द्वारा कार्यरत एक ट्रेड यूनियन के रूप में 1972 में सेवा (सेल्फ एम्प्लायड वुमेन्स एसोसिएशन) का अभ्युदय हुआ। इसका इतिहास टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन से संबंधित था। इस आंदोलन से परिवार में कार्यरत महिलाओं की सहायता की गई। वे उन्हें विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण, यथा- सिलाई, कढ़ाई, कटाई, टंकण, प्रेस आदि देते थे। इसे महिलाओं के लिए स्वोजगार उपलब्ध कराने वाले एक संगठन के रूप में समझा जा सकता है। सेवा के प्रमुख उद्देश्य निम्न है


• मजदूरों के लिए रोजगार की व्यवस्था ज्ञान


• आय की सुरक्षा


• खाद्य की सुरक्षा


सामाजिक सुरक्षा


• महिलाओं के लिए आत्मनिर्भरता


शहबानो प्रकरण


यद्यपि औपनिवेशिक भारत में अनेक आंदोलन हुए और अनेक सुधारक भी हुए, जिन्होंने समाज में अप्रत्याशित तौर पर परिवर्तन किए हैं, तथापि नारीवादी आंदोलनों के हित का कुछ-न-कुछ अछूता ही रह गया। शाहबानो का मामला उसी प्रकार का एक आंदोलन है जो काफ़ी विवादास्पद है। 1985 में परित इस पर्सनल लॉ के मामले को शाहबानो केस' के रूप में जाना जाता है। 23 अप्रैल को उच्चतम न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड के नेतृत्व में पाँच सदस्यीय पीठ ने यह पाया कि शाहबानो (75 वर्ष) धारा 125 के तहत अपने पति से गुजारा भत्ता प्राप्त करने की हकदार हैं। शाहबानों के पति मोहम्मद अहमद खान ने उन्हें विवाह की लगभग आधी शताब्दी आ जाने के बाद तलाक दे दिया। दस वर्ष पूर्व अपने पति द्वारा दबाव दिए जाने के कारण उन्हें अपने बच्चों के साथ एक दालान में निवास करने हेतु विवश होना पड़ा। इस घटना के दो वर्ष बाद तक शाहबानों के पति ने उसे 200 रुपये का मासिक भुगतान दिया, परंतु एक दिन अनायास ही भत्ता देने से इनकार कर दिया। 1978 में शाहबानो ने इंदौर के मजिस्ट्रेट के वहाँ धारा 125 के अंतर्गत प्रार्थना पत्र दिया और गुजारा भत्ता प्राप्त करने हेतु अधिकतम राशि, जो कि 500 है की अपील की। शाहबानो की याचिका अभी लंबित ही थी कि उनके पति ने कुरान के मुताबिक तीन बार तलाक कहकर तलाक लेने का फैसला कर लिया और न्यायालय में मेहर की राशि 3000 रुपये भी जमा करा दिए। मजिस्ट्रेट ने माना कि वो भत्ते कि हकदार है और उसने 25 रुपये प्रति माह की रकम को भने के रूप में निश्चित किया। इसके बाद शाहबानो ने मध्यप्रदेश के उच्च न्यायालय में अपील की, जिसनेयह राशि बढ़ाकर 179.20 रुपये कर दिया।


इसके बाद अहमद खान उच्चतम न्यायालय गए और अपील की कि यह अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण है और यह मुस्लिम पर्सनल लॉ का उल्लंघन है। उनका तर्क था कि वह मुसलमान हैं और इसके नाते क मुस्लिम पर्सनल लॉ का मसला है। अतः इसका निपटारा उसी के तहत होना चाहिए। साथ ही कई दस्तावेजों के आधार पर उन्होंने कहा कि शरीयत के तहत एक शौहर को अपनी पत्नी से तलाक के बाद मात्र तीन महीने तक गुजारा भत्ता देना चाहिए। हालांकि इस तर्क के एवज में न्यायमूर्ति चंगूड ने स्पष्ट रूप से कोई निर्णय नहीं दिया, लेकिन उन्होंने सरकार को समान नागरिक संहिता को बनाने का सुझाव अवश्य दिया। एक ऐसी संहिता, जो व्यक्तिगत कानूनों (पर्सनल लॉ) से ऊपर हो और वह सभी के लिए समान हो। धारा 125 के तहत इससे पहले भी दो मुस्लिम महिलाओं के गुजा भत्ता का मामला आया था और उनका निर्णय भी इसी प्रकार था, जिसमें उनका भत्ता बहाल रखा गया पहला, 1979 में बाई ताहिरा और अली हुसैन फिसाली का मामला और दूसरा 1980 में फुजलूबी और खादर अली का मामला इन मामलों के निष्कषों ने पूरे मसले को ही परिवर्तित कर दिया। नारीवादियों, उदारवादियों और धर्मनिरपेक्षतावादियों द्वारा उच्चतम न्यायालय के फैसले की इस आधार पर आलोचना की जाने लगी कि इसने धर्म और व्यक्तिगत कानून के मुद्दे को एकदूसरे के समक्ष लाकर रख दिया। धीरे धीरे वह मामला एक धार्मिक संघर्ष में परनित हो गया। मुस्लिम धार्मिक नेताओं का मानना था कि उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय उनके पूरे समुदाय पर हमला है। उलेमाओं ने इस्लाम खतरे में है का फतवा जारी किया और अल्पावधि में ही यह दावा सांप्रदायिक संघर्ष में परिवर्तित हो गया। मुस्लिम संप्रदावादियों कि अपील भी कि निर्णय को बदला जाए और धारा 125 से मुस्लिम महिलाओं को अलग किया जाए तथा हिंदू संप्रदायवादियों ने न्यायालय के निर्णय का पुरजोर समर्थन किया।


अगस्त 1985 में मुस्लिम महिलाओं को धारा 125 की परिधि से बाहर निकालने की नियत से एक विधेयक बनाया गया। मुस्लिम उदारवादियों नारीवादियों और समाज सुधारकों द्वारा पूरे भारत में खासकर महाराष्ट्र में धारा 125 के समर्थन में बहुपत्नी विरोध और मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता व संरक्षण की अपील के साथ अभियान शुरू हुआ। मुंबई (तत्कालीन बबई), हैदराबाद, लखनऊ, भोपा स्थानों पर संघर्ष उभरने लगे। अक्टूबर 1984 में एक हिंदू संगठन विश्व हिंदू परिषद ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद के परिसर को राम जन्मभूमि की घोषणा और राम मंदिर को बनाने को लेकर आंदोलन शुरू किया। इससे भीषण संघर्ष पनपा और प्रत्युत्तर के रूप में मुस्लिम धार्मिक नेताओं द्वारा बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी की स्थापना की गई। अब शाहबानो और बाबरी मस्जिद के मामलों को एक साथ देखा जाने लगा। फरवरी 1986 में बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद के दौरान ही मंदिर में पूजाअर्चना हेतु ताला खोल दिया गया। फलस्वरूप विश्व हिंदू परिषद ने विजय जुलूस निकाला और मुस्लिम समुदायों ने प्रतिशोध के रूप में मातम जुलूस निकाला। इसके परिणामस्वरूप कई दंगे और संघर्ष हुए। अंततः धारा 125 के तहत मुस्लिम महिलाओं के संरक्षण को खारिज कर दिया गया और तर्क यह दिया गया कि तलाक के तीन महीनों के पश्चात भरण-पोषण की जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है। विधेयक के लागू होने पर जबर्दस्त हंगामा हुआ और संसद के समक्ष ही130-200 महिलाओं ने गिरफ्तारी दी। स्वायत्त महिला संगठनों द्वारा 7 मार्च को संगठित होकर प्रदर्शन किए और उनकी अपील थी कि महिलाओं के मुद्दों का संप्रदायीकरण बंद और समान नागकि संहिता का निर्माण किया जाए। इस बारे में एक दिलचस्प वाक्या यह है कि 1986 में मुस्लिम महिला विधेयक को पारित किया गया, जिसमें मुस्लिम महिलाओं को अपने पति से भरणपोषण नहीं मिलेगा और उन्हें गुजारा भत्ता बक्फ बोर्ड (यह एक संस्था है जो सामुदायिक आधार पर प्राप्त भूमि की देखरेख करती है) से मिलेगा। कुल मिलाकर यह आंदोलन निर्णायक रूप से महिलाओं की एकता को सुदृढ़ करने में कारगर साबित हुआ और सांप्रदायिक तौर पर एकीकरण और संघर्ष उत्पन्न करने में भी इसकी भूमिका प्रमुख रही।


अन्ना आंदोलन (अष्टाचार विरोधी आंदोलन) 


जन लोकपाल विधेयक की निर्मिति हेतु वह आंदोलन अपने अखिल भारतीय स्वरूप में 5 अप्रैल 2011 मैत्री को अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों द्वारा जंतर-मंतर पर अनशन के साथ शुरू हुआ था। इसे जन लोकपाल विधेयक आंदोलन और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के नाम से भी जाना जाता है। यह भारत का राष्ट्रव्यापी जनान्दोलन है, जिसके द्वारा देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध कठोर कानून बनाने की अपील की गई। इस आंदोलन में अन्ना के सहयोगियों में अरविंद केजरीवाल भारत की पहली महिला प्रशासनिक अधिकारी किरण बेदी प्रसिद्ध लोकधर्मी वकील प्रशांत भूषण पतंजलि योगपीठ के संस्थापक और योग गुरु बाबा रामदेव प्रमुख थे। अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार आंदोलन देश में भ्रष्टाचार पर बात करने वाला पहला आंदोलन नहीं है इसके पहले जय प्रकाश नारायण के आंदोलन में भी भ्रष्टाचार के मसले पर व्यापक तौर पर विमर्शं छेड़ा जा चुका था, परंतु फिर भी वह आंदोलन देश में हुए अन्य आंदोलनों से अलग है। जय प्रकाश नारायण ने भी अपने आंदोलन में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बात की. परंतु इनका आंदोलन मूलतः मुसहरी आंदोलन था और इनके आंदोलन में भ्रष्टाचार का मुद्दा दा आंशिक रूप में था।


परंतु अन्ना के आंदोलन में भ्रष्टाचार के मुद्दे को उस स्वरूप में पेश किया गया जिस रूप में भ्रष्टाचार पर अभी तक किसी भी आंदोलन में बात नहीं की गई। एक लोकतांत्रिक राज्य के रूप में भ्रष्टाचार को भारत की शासकीय संस्थाओं और शासक वर्ग को सीधे तौर पर एकदूसरे से अंतसंबंधित करके देखा गया भ्रष्टाचार का इतने बृहत पैमाने पर प्रसिद्ध होना इसलिए संभव हो सका क्योंकि सूचना के अधिकार का प्रयोग और मीडिया द्वारा इस संदर्भ में सकारात्मक भूमिका का निर्वहन किया गया। सामाजिक खर्च और योजनाओं में पोटालों के उजागर होने के पीछे मनीष सीसोदिया और अरविंद केजरीवाल की संस्था परिवर्तन के कार्य है, जिसनेइन घोटालों का पर्दाफाश करने में योगदान दिया।


संचार साधनों के विकास होने के कारण यह अनशन आसानी से पूरे भारत में फैल गया और धीरे-धीर एक बड़ा जनसमूह इसके समर्थन में सड़कों पर उतर गया। इन्होंने भारत सरकार से एक मजबूत भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल विधेयक बनाने की अपील की और अपनी अपील के अनुसार सरकार को लोकपाल का एक मसौदा भी दिया था, परंतु मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने इसके प्रति उदासीन रवैया अपना और इसकी उपेक्षा की। इसके फलस्वरूप हुए अनशन के प्रति भी तत्कालीन सरकार का रवैया उदासीन ही रहा। हालांकि इस अंशना के आंदोलन के रूप में परिणत होने पर सरकार ने शीघ्र ही एक समिति निर्मित की और 16 अगस्त तक लोक विधेयक को पास कराने की बात को संसद में स्वीकारोक्ति भी दे दी गई। अगस्त से आरंभ हुये मानसून सत्र में एकविधेयक को पारित किया गया, परंतु वह अपेक्षाकृत कमज़ोर था और लोकपाल के विपरीत था। अन्ना हजारे ने इसके विरोध में पुनः अनशन पर बैठने की बात की और जब ये अनशन के लिए तैयार होकर जा रहे थे की तभी दिल्ली पुलिश ने अन्ना हजारे को गिरफ्तार कर लिया। साथ ही साथ उनके कई सहयोगियों को भी गिरफ्तार कर लिया गया।

सरकार की इस प्रवृत्ति से उदलित जनता ने प्रदर्शन करने आरंभ कर दिए। अन्ना द्वारा मजिस्ट्रेट की बात न मानने पर उन्हें तिहाड़ जेल में सात दिनों के लिए भेज दिया गया। इस बात ने पूरे देश में आक्रोश पैदा कर दिया और फलतः अगले 12 दिनों तक देश में व्यापक स्तर पर धरना प्रदर्शन और अनशन हुए। इन बातों से सरकार ने सशर्त अन्ना को रिहा करने का आदेश दिया, परंतु अन्ना ने उनकी शर्तों को मानने से साफ तौर पर मना कर दिया। इसके फलस्वरूप अन्ना ने जेल में ही अनशन जारी रखा और बेल के सामने हजारों लोग उनके समर्थन में डेरा डाले रहे। इसके बाद अन्ना को 15 दिनों के लिए रामलीला मैदान में अनशन हेतु अनुमति मिली। अन्ना ने रामलीला मैदान में अनशन के दसवें दिन अपने


अनशन को समाप्त करने के लिए सार्वजनिक रूप से तीन शर्तों को प्रस्तुत किया। ये तीन शर्तें था


 ● सभी सरकारी कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाया जाए।


● सभी सरकारी कार्यालयों में एक नागरिक चार्टर लगाया जाए।


● सभी राज्यों में लोकायुक्त हो।


अंततः संसद द्वारा इन तीनों शर्तों पर सहमतिका प्रस्ताव पास देने के बाद 28 अगस्त को अन्ना ने अपना अनशन स्थगित करने की घोषणा की।

इस इकाई के माध्यम से स्वतंत्र भारत में हुए सामाजिक आंदोलनों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। इन आंदोलनों में भूदान व ग्रामदान आदोलन तेलंगाना आंदोलन नक्सलवादी आंदोलन, चिपको आंदोलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन, सेवा, शाहबानो प्रकरण और अन्ना आंदोलन का उल्लेख किया गया है।