स्वतंत्रता पूर्व भारत में प्रमुख सामाजिक आंदोलन - Major Social Movements in Pre-Independence India
स्वतंत्रता पूर्व भारत में प्रमुख सामाजिक आंदोलन - Major Social Movements in Pre-Independence India
सामाजिक आंदोलन एक सामाजिक प्रक्रिया है, जो किसी विशिष्ट सामाजिक मुद्दे से संबंधित होता है। दूसरे शब्दों में सामाजिक आंदोलन व्यक्तियों और अथवा संगठनों का विस्तृत अनौपचाकि समूह होता है, जो सामाजिक परिवर्तन से संबंधित होता है अथवा परिवर्तन के विरोध से जुड़ा होता है।
औपनिवेशिक भारत में अनेक प्रकार के ऐसे परिवर्तन हुए जो परंपरागत भारत की मान्यताओं से इतर थे। इन परिवर्तनों ने बुद्धिजीवियों के मस्तिष्क में असंतोष की दीप्ति प्रज्वलित की और इस असतोष ने कुछ आंदोलनों को आधार शिला प्रदान किया।
समाज सुधार आंदोलन
परंपरागत भारतीय समाज धर्म से नियंत्रित निर्देशित और संचालित रहा है और उसके प्रत्येक पक्ष में धार की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। औपनिवेशिक शासन में भारतीय सामाजिक जीवन में अनेक कुरीतियों और कुप्रथाओं के रूप में बुराइयाँ व्याप्त हो चुकी थी। इन कुरीतियों के विरुद्ध ब्रिटेश कालिन नीतियों और
पश्चिमी मूल्यों ने भारतीय समाज सुधारकों को सामाजिक धार्मिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों में विरोध करने हेतु प्रेरित किया और इसके परिणामस्वरूप आदोलन हुए। कुछ प्रमुख समाज सुधार आंदोलन निम्न उल्लेखित हैं
1. ब्रह्म समाज
2. सत्यशोधक समाज
3. आर्य समाज
4. रामकृष्ण मिशन
ब्रह्म समाज
आधुनिक भारतीय पुनर्जागरण का जनक राजा राम मोहन राम को माना जाता है। ब्रह्म समाज की स्थापना 20 अगस्त 1828 में हुई थी और इसका शाब्दिक अर्थ है एक ईश्वर समाज हालांकि इस संस्था के मापदंड रूढ़िवादी हिंदुओं को रास नहीं आइएलेकिन फिर भी जन साधारण में इस समाज को अपनाया गया। राजा राम मोहन राय निरपेक्षवादी थे और उनकी प्रेरणास्रोत के रूप में ईसाई, इस्लाम धर्म और उपनिषद् थे। इस्लाम का अद्वैतबाद उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता में उनकी अगाध निष्ठा थी। उन्होंने सती प्रथा और बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं और संस्थाओं का विरोध किया। वे महिलाओं के उत्थान हेतु सदैव तत्पर रहते थे। ब्रह्म समाज द्वारा उन्होंने विधवा पुनर्विवाह तलाक, सिविल विवाह और म्रियों के शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए काम किया। ब्रह्म समाज के विशेष कार्यक्रमों में स्त्रियों के लिए संपत्ति हस्तांतरण और अंतरजातीय विवाह थे। उनका मानना था भारतीय समाज की कई कुप्रथाओं और समस्याओं का मूल जाति प्रथा में अंतर्निहित है और वे इस प्रथा का पुमोर विरोध करते थे। ब्रह्म समाज बिना किसी भेदभाव के सभी लोगों के लिए मूर्ति पूजा के स्थान पर एक महान ईख की सत्ता में विश्वास और उसी की पूजा करने की संस्था थी। राजा राम मोहन राय की मृत्यु के पश्चात देवेन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रह्म समाज को एक स्थायी संगठनात्मक स्वरूप प्रदान किया और इसका प्रमुख कार्यक्रम ब्रह्म धर्म को बनाया। टैगोर ने राजा राम मोहन राय के काल की श्रेष्ठतम परंपराओं को बनाए रखा और उनका पालन किया।
सत्य शोधक समाज
सत्यशोधक समाज की स्थापना 1873 में ज्योतिराव गोविंदराव फूले द्वारा महाराष्ट्र में की गई थी। इसका शाब्दिक अर्थ है सत्य की खोज अथवा अन्वेषण करने वाला समाज इसके द्वारा समाज में विद्यमान कुरीतियों एवं शोषणकारी सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था के विरुद्ध जनसाधारण को जागृत करने का प्रयास किया गया। फूले द्वारा चलाया गया यह आदोलन खुले तौर पर ब्राह्मणों के विरोध में था। तत्कालीन महाराष्ट्र में सामाजिक स्तरीकरण वर्णाश्रम धर्म से नियंत्रित और संचालित था, जिसके अंतर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र के रूप में असमान प्रस्थिति के वितरण से परिभाषित विभाजन में किया गया था। इस स्तरीकरण ने विभिन्न जातियों को अंधविश्वासों और कुरीतियों ने समाज को शोषणकारी बना दिया था। इस समय महाराष्ट्र में 'कुनबी' और 'मराठा' दो समुदाय थे। इसमें से कुनबी लोग आर्थिक रूप से संपन्न थे परंतु जाति व्यवस्था के संस्तरण में वे ब्राह्मणों के अधीन थे। ब्रिटीशकाल के दौरान ब्राह्मणों ने अंग्रेजी शिक्षा को अपना कर औपनिवेशिक शासन में भी अपनी स्थिति को सुदृढ कर लिया। इस स्थिति ने गैर-ब्राह्मणों में चिंता और डर को उत्पन्न किया और साथ ही साथ पश्चिमी विचारधारा की आलोचना भी बुद्धिजीवियों द्वारा लगातार की जा रही थी। इन परिस्थितियों ने सत्यशोधक समाज की स्थापना को तूल देने का काम किया।
फूले ने लड़कियों के लिए एक स्कूल हरिजनों के लिए एक स्कूल और विधवाओं के लिए एक अनाथालय की व्यवस्था की फूले ब्राह्मणों और उनके कर्मकादों के प्रति विरोधाभासी रवैया अपनाते हैं। तर्क बुद्धिवादिता, समानता व मनवातावादी विचारों के आधार पर सामाजिक सांस्कृतिक संरचना का पुनर्निर्माण करना ही सत्यशोधक समाज का मूल प्रयोजन था। इनउद्देश्यों की प्राप्ति के लिए समाज ने निम्न उद्देश्यों की नींव रखी
• जनसाधारण को असमानता के जागरूक करना और ब्राह्मणों के आधिपत्य का विरोध करना
• श्री मुक्ति का प्रयास करना
● शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना
आर्य समाज
आर्य समाज की स्थापना सन् 1875 में दयानंद सरस्वती द्वारा मुंबई में किया गया। दयानंद सरस्वती का मानना है कि हिंदू धर्म और ईसाई धर्म से विभिन्न अर्थों में उच्च है। सन् 1920 में उन्होंने आर्य समाज में ही एक आंदोलन चलाया, जिसे शुद्धि आंदोलन के नाम से जाना जाता है। इस आंदोलन का सरोकार उन धर्मावलवियों से था, जिन्होंने इस्लाम अथवा ईसाई धर्म अंगीकार कर लिया था। इस आंदोलन का सीधा उद्देश्य इस्लाम अथवा ईसाई धर्म ग्रहण किए हुए धर्मावलवियों को पुनः हिंदू धर्म में वापस लाना था। बी. डी. सावरकर ने शुद्धि आंदोलन को राजनैतिक अस्य बनाते हुए कहा कि लोकतंत्र में शक्ति सदैव बहुसंख्यकों के पास होती है। अतः हिंदुओं को अपनी शक्ति में वृद्धि करने हेतु अपनी संख्या बढ़ानी होगी। 1922-23 के अपने सम्मेलन ने हिंदू महासभा ने यह ऐलान किया कि4,50,000 राजपूत मुसलमानों ने हिंदू धर्म को अपना लिया।
लेकिन दयानंद सरस्वती के आर्य समाज को सतही तौर पर व्याख्यायित करना सही नहीं है। उनके अनुसार भारतीय संस्कृति मूल रूप से वैदिक संस्कृति है। उन्होंने नारा दिया है वेदों की ओर लौटो। वे मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी थे और साथ ही साथ वे ब्राह्मणवाद को ही हिंदू समाज में व्यास कुरीतियोंक लिए उत्तरदायी मानते हैं। आर्य समाज का मूल उद्देश्य भारतीय समाज में विद्यमान कुरीतियों और बुराइयों का सामना करते हुए भारतीय परंपरागत आदर्श हिंदू व्यवस्था को स्थापित करना था। इसके इतर भी कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर आर्य समाज का कार्यक्षेत्र फैला हुआ है
1. बहु-ईश्वरवाद और मूर्ति पूजा का विरोध।
2. वंशानुगत जाति व्यवस्था का उन्मूलन और वर्ण व्यवस्था को पुनः स्थापित करना।
3. लिंग समानता और उच्च शिक्षा की और प्रेरित करना।
4. प्राचीन हिंदू और आधुनिक शिक्षण प्रणाली को समन्वयपूर्ण रूप से पुनः स्थापित करना।
आर्य समाज द्वारा अपने उद्देश्यों की प्राप्ति की दिशा में निम्न प्रमुख कार्य किए गए है-
1. आर्य समान ने 'वेदों की ओर लौटों का नारा देते हुए वैदिक संस्कृति को पुनः स्थापित करने का सराहनीय प्रयास किया।
2. ब्राह्मणवाद के बिरुद्ध जाति व्यवस्था में निहित विकृतियों और समस्याओं को दूर करने का प्रयास किया और समतामूलक समाज की कल्पना की।
3. स्त्रियों को वेद-अध्ययन और गायत्री मंत्रोच्चारण की अनुमति प्रदान की गई और बाल विवाह पर प्रतिबंध लगाने हेतु लड़कों की वैवाहिक आयु 25 और लड़कियों की वैवाहिक आयु को 16 सुनिश्चित किया गया।
4. ब्रिटिश शासनकाल में हिंदू धांतरण पर अंकुश लगाया।
5. पंजाब में विधवा पुनर्विवाह संपन्न कराया गया और स्त्रियों को शिक्षा प्रदान की गई।
6. हरिद्वार में गुरुकुल को स्थापित करके परंपरागत शिक्षा को प्रेरित किया गया और साथ ही साथ डी.ए.वी. की स्थापना करके अंग्रेजी शिक्षा को भी महत्व दिया गया।
7. अनाथालय, विधवा आश्रम की व्यवस्था की गई और तथा बढ़ व सूखे से ग्रस्त लोगों की सहायता के रूप में कल्याणकारी कार्य किए गए।
राकृष्ण मिशन
ब्रिटिशकाल में भारतीय धर्म और संस्कृति गर्त पतनोन्मुखी होती चली जा रही थी। ईसाई धर्म के अनुयायी अंग्रेज अपने धर्म और संस्कृति को श्रेष्ठ के रूप में स्थापित करने पर तुले हुए थे और भारतीय अपनी संस्कृति और धर्म की अस्मिता को बनाए रखने में लगे हुए थे परिणाम यह हुआ कि लोगों ने खुलकर पश्चिमी संस्कृति और सभ्यता का विरोध करना प्रारंभ कर दिया परंतु ठीक इसी समय एक दूसरा मत यह था कि किसी संस्कृति अथवा धर्म को अच्छा या बुरा नहीं कहा जा सकता अपितु उनमें समन्वय को महत्व दिया जाना चाहिए। यह मुद्दा रामकृष्ण मिशन द्वारा उठाया गया था। रामकृष्ण मिशन की स्थापना सन् 1897 में स्वामी विवेकानंद द्वारा की गई। इसका मुख्यालय कोलकाता के वेल्लुर के पासअवस्थित है। रामकृष्ण मिशन प्राचीन भारतीय संस्कृति और आधुनिक संस्कृति के समन्वय का मूर्त स्वरूप है। जिसके प्रवर्तक रामकृष्ण परमहंस थे।
उनका कहना था कि एक ही लक्ष्य की प्राप्ति दिशा की ओर उन्मुख होने के लिए कई मार्ग और मत हैं। एकेश्वर और बहु-ईश्वर दोनों मत को ये बराबर तवज्जो देते हैं। वह साकार भी है और निराकार भी यही रामकृष्ण कोलकाता के दक्षिणेश्वर में एक मंदिर के निर्धन पुजारी थे। वे सभी धर्मों में विश्वास रखते थे और रामकृष्ण मिशन का सार भी है। इसका मौलिक उद्देश्य आत्मा की मुक्ति मानवता की सेवा और सभी धर्मों के बीच सौहार्द स्थापित करके बेहतर समाज की कल्पना करना था। चूंकि यह मिशन वेदांत दर्शन के आधार पर सनातन धर्म को नई दिशा देना चाहता था, इसलिए उसने आंतरिक आध्यात्मिक जीवन के आधार पर मानवीय सेवा के लिए समूहिक प्रयत्नों और सभी बालको वियों को ईश्वर की संतान मानते हुए बिना की जाति, रग-भेद के उनके लिए शिक्षा और स्वस्थ्य मानवीय जीवन की व्यवस्था करने का संकल्प लिया।
रामकृष्ण मिशन को बेहतर तरीके से समझने के लिए उसके उद्देश्यों को दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
आत्म त्याग और व्यवहारिक अध्यात्मिकता के साथ जीवन व्यतीत करने के लिए साधुओं की एक टोली की व्यवस्था करना, जिसमें से उपदेशकों और कार्यकर्ताओं को रामकृष्ण के जीवन में परिलक्षित वेदांत दर्शन के प्रचार-प्रसार के लिए अन्य स्थानों की ओर भेजना।
• आत्म अनुयायियों के समर्थन के साथ सभी सियों और चालकों को समान रूप से महत्व देते हुए बिना किसी भेदभाव के उनके लिए शिक्षा, दयायुक्त और मानवीय कार्यों को संपन्न करना है। यह एक बहुदेशीय संस्था थी, जिसनेनिम्न कार्यों को अंजाम दिया।
1. स्कूल, कॉलेज, पुस्तकालय व वाचनालयों की व्यवस्था की गई तथा सस्ते दामों पर स्वप्रकाशन से साहित्य मुहैया कराए गए।
2. चिकित्सा अस्पताल, मुफ्त क्षय रोग क्लीनिक, निदान केंद्र, मुफ्त होम्यो डिस्पेन्सरी तथा विकलांग केंद्र खोले गए।
3. सूखे व बाढ़ आदि आपदाओं में राहत कार्य किए गए।
4. ग्रामीण उत्थान एवं सभी वर्गों के श्रमजीवी लोगों के लिए कल्याणकारी कदम उठाए गए।
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