सामाजिक समस्या की उत्पत्ति - Origin of social problem
सामाजिक समस्या की उत्पत्ति - Origin of social problem
हालांकि सामाजिक समस्या की उत्पत्ति अनेक कारणों से होती है, तथापि जब सामाजिक संगठन में सामंजस्य का ह्रास हो जाता है और समाज द्वारा प्रचलित मान्यताएँ मूल्य प्रतिमान, आदर्श व नियमों में अव्यवस्था पनपने लगती है, तब सामाजिक समस्या जन्म लेती है। सामाजिक समस्या के प्रमुख चरण निम्न हैं
1. चेतना की स्थिति गतिविधियाँ सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक जीवन के मार्ग को अवरुद्ध करने लगती हैं और तब इन गतिविधियों के बारे में समाज में सचेतन विमर्श किया जाने लगता है। समाज का अधिकांशतः भाग इन समस्याओं पर सोचविचार करने लगता है।
2. कठिनाइयों का स्पष्टीकरण- शनैशने यह विचार स्पष्ट रूप से किसी समस्या की ओर इंगित होने लगता है और लोगों को इस समस्या के प्रति असुविधा होने लगती है।
3. लक्ष्यों का निर्धारण समस्या की पहचान हो जाने पश्चात इस चरण में उसके निवारण की ओर अग्रसित होकर कुछ कार्यक्रमों एवं लक्ष्यों को निर्धारित किया जाता है।
4. संगठन का विकास लक्ष्य के निर्धारण के बाद आवश्यक संगठनों का निर्माण किया जाता है, जिनकी सहायता से लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके साथ ही आवश्यक साधनों की भी व्यवस्था की जाती है, जिससे कि सुधार कार्यक्रमों को नियोजित किया जा सके।
5. सुधार का प्रबंध अंतिम चरण में सुधार कार्यक्रमों को नियोजित किया जाता है और यदि आवश्यक है, तो इसके लिए अनिवार्य संस्थाओं का भी विकास किया जा सकता है। रॉबर्ट निस्बेट ने सामाजिक समस्या की उत्पत्ति में कुछ सहायक कारकों पर विचार किया है, जो निम्न
1. संस्थाओं में इद अनेक बार ऐसा भी होता है कि संस्थाओं के उद्देश्यों साधनों व लक्ष्यों में इंद की स्थिति पैदा हो जाती है। इस प्रकार का इंद प्राय: पुरानी व नवीन संस्थाओं में दृष्टिगोचर होता है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि पुरानी संस्थाएँ सामाजिक व्यवस्था को यथारूप बनाए रखने की कवायद करती हैं, जबकि नवीन संस्थाएँ सामाजिक गतिशीलता के आधार पर परिवर्तन को अधिक महत्व देती हैं।
2. सामाजिक गतिशीलता सामाजिक गतिशीलता का स्पष्ट आशय बदलाव से है और बदलाव निश्चित तौर पर कुछ संरचनाओं अथवा व्यवस्थाओं की मान्यताओं को नष्ट कर नवीन मान्यताओं अथवा मूल्यों को स्थापित करने से संबंधित है। गतिशालता के कारण व्यक्ति को प्रस्थिति मूल्यों मानकों आदि से संघर्ष करना पड़ता है और कई बार ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न होने लगती हैं कि व्यक्ति अवैधानिक, अस्वीकृत ढंग से अपनी प्रस्थिति को ऊर्ध्वाधर परिवर्तित करने में लग जाता है।
3. व्यक्तिबाद सामूहिकता के स्थान पर व्यक्तिवादिता को महत्व देना भी वर्तमान समय के लिए समस्यामूलक हो चुका है। व्यक्तिवाद के कारण प्राथमिक नियंत्रण धारधार समाप्त होता जा रहा है और व्यक्ति के विचलित होने की संभावनाएँ भी निरंतर तेज होती जा रही हैं। सामाजिक एकता में कमी आ रही है और व्यक्ति सामाजिक मूल्यों, मान्यताओं, व्यवहारों आदि की परवाह न करते हुए मनचाहा व्यवहार करने लगता है।
4. व्याधिकीय स्थिति मूल रूप से यह सामान्य स्थिति से अप्रतिमानित स्थिति की ओर गमन का द्योतक है। इस स्थिति में लोग सामाजिक मूल्यों की चिंता किए बिना स्वयं की इच्छा के अनुरूप व्यवहार करने लगते हैं, जिससे समाज में अदर्शविहीनता की स्थिति उत्पन्न होने लगती है। लोग मनमाना व्यवहार करने लगते हैं और इससे अनेक नई सामाजिक समस्याएँ उभरकर सामने आने लगती है।
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