सामाजिक उद्विकास के नियम - Theory of Evolution

 सामाजिक उद्विकास के नियम - Theory of Evolution


विकास एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। एक सीधी-साधी और सरल वस्तु का धीरेधीरे एक जटिल अवस्था में बदल जाना उद्विकास कहलाता है। प्राणीशास्त्र में उद्विकास के नियम के प्रतिपादक डार्विन (Darwin) माने जाते हैं, जिन्होंने अपनी पुस्तक 'ओरिजिन ऑफ स्पीसीज' (origin of Specie) में प्राणीशास्त्रीय विकास के सिद्धांत का प्रतिपादन किया और कहा कि जीवो का उद्विकास सरलता से जटिलता तथा समानता से विभिन्नता की ओर हुआ है। बाद में स्पेंसर एवं मार्गन जैसे समाजशास्त्रियों ने उद्विकास के विचारों को समाज और संस्कृति पर लागू किया और स्पष्ट किया कि जीवो के उद्विकास की ही भांति समाज का उद्विकास हुआ। हरबर्ट स्पेंसर के सामाजिक उद्विकास के नियम समाजशास्त्र को सबसे बड़ी देन है।

स्पेंसर ने सामाजिक उद्विकास के सिद्धांत को एक विशिष्ट रूप में प्रस्तुत किया।

सामाजिक उद्विकास के नियम को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने भौतिक (Physical Evolution) एवं जैव विकास (Biological evolution) के सिद्धांत को आधार बनाया। स्पेंसर ने अपने उद्विकास के नियम की व्याख्या अपनी प्रथम पुस्तक फर्स्ट प्रिंसिपल) First Principles ( में की थी। यह सिद्धांत मूल रूप से इस बात पर आधारित है कि समाज की उत्पत्ति और उनका निरंतर विकास होता रहा है। सारा संसार अत्यंत ही जटिल है और जिन पदार्थों से संसार का निर्माण हुआ है, वे एक दूसरे से घुले हुए हैं और उन्हें अलग नहीं किया जा सकता।


हॉबहाउस ने स्पेंसर के उद्विकास के सिद्धांत को सामाजिक सावयव के सिद्धांत से अधिक महत्वपूर्ण मानते हुए लिखा है कि “स्पेंसर ने ऐसा दावा किया था कि समाजशास्त्र में उनका सामाजिक उद्विकास का सिद्धांत सामाजिक सावयव के सिद्धांत की तुलना में अधिक मौलिक है।" उद्विकास के सिद्धांत के प्रतिपादक डार्विन हैं। जिन्होंने शरीर में होने वाली जैविक परिवर्तनों के लिए इस प्रक्रिया को लागू किया जबकि मानवशास्त्र एवं समाजशास्त्र में हरबर्ट स्पेंसर, मार्गन तथा टॉयलर ने समाज के संदर्भ में इस सिद्धांत को लागू किया। स्पेंसर के सिद्धांत को समझने के लिए आवश्यक है कि हम उद्विकास के अर्थ को समझें।