प्रकार्य एवं दुष्प्रकार्य - function and side effect

प्रकार्य एवं दुष्प्रकार्य - function and side effect


प्रकार्य संरचना के ठीक विपरीत है। यह संस्कृति का गतिशील एवं परिवर्तनशील पहलू है। यह प्रक्रिया है जो सामाजिक संरचना को गतिशीलता प्रदान करती है तथा स्वयं संरचना से अलग न होते हुए उसका पोषण करती है। दोनों का संबंध अन्योन्याश्रित है। प्रकार्यावादियों ने स्पष्ट तौर पर स्वीकार किया है कि किसी सामाजिक संरचना की इकाई को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि किसी इकाई का समग्र समाज के हित में क्या प्रकार्य है? सामान्यतः प्रकार्य का आशय समाज या समूह द्वारा किए जाने वाले कार्यों या उनके योगदान से है। समाजशास्त्रीय दृष्टि से प्रकार्य का अर्थ संपूर्ण सामाजिक संरचना को व्यवस्थित बनाए रखने एवं अनुकूलन करने में उसकी इकाइयों द्वारा जो सकारात्मक योगदान किया जाता है,

के रूप में समझा जाता है। समाज की विभिन्न निर्मायक इकाइयाँ संपूर्ण सामाजिक संरचना की क्रियाशील को बनाए रखने के लिए कुछ निश्चित भूमिकाएँ अदा करती है। इन भूमिकाओं को पूर्ण करने से समाज का अस्तित्व बना रहता है, व्यवस्था बनी रहती है। इन कार्यों की पूर्ति समाज की क्रियाशीलता एवं निरत्रता के लिए आवश्यक है।


इस प्रक्रिया का उदय 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में तत्वज्ञान संबंधी तर्क-वितर्क के मध्य हुआ और क्रमशः इसमें स्पष्टता आती गई। इसका स्पष्ट रूप डार्विनवाद के बाद सामने आया। एल. एच. मार्गन (L.H. Morgan ) की पुस्तक "Systems of consanguinity and affinity" सामाजिक संरचना का प्रथम मानवशास्त्रीय अध्ययन माना जाता है। सामाजशास्त्रीय साहित्य में संरचना तथा प्रकार्य जैसे शब्दों के प्रयोग का प्रथम श्रेय स्पेंसर को दिया जाता है। इस अवधारणा का प्रमुख उद्देश्य सामाजिक जीवन में होने वाले निरंतर परिवर्तन तथा समाज व्यवस्था को प्राणिशास्त्रीय सत्यताओं पर परिभाषित करना था। इस अवधारणा के अनुसार सावयव की भाँति समाज भी एक अखंड व्यवस्था नहीं है। जिस प्रकार सावयव का निर्माण अनेक कोष्ठों के योग से होता है

और उसकी स्थिरता, निरंतरत विभिन्न कोष्टों के मध्य पाए जाने वाले संगठनपर निर्भर करती है उसी प्रकार समाज का निर्माण भी अनेक इकाइयों के योग से होता है और समाज व्यवस्था इन इकाइयों के संगठन पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए जिस प्रकार शरीर का प्रत्येक अंग शरीर के अस्तिव के लिए कोई निश्चत भूमिका अदा करता है, कोइ निश्चित कार्यों द्वारा समाजशास्त्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति में सहयता करते हैं। इस संदर्भ में रेडक्लिफ ब्राउन का यह उल्लेखनीय है कि मानव समाजों पर प्रयोग किए जाने वाले प्रकार्यों की सामाजिक जीवन तथा सावयवी जीवन में पाई जाने वाली समानता पर आधारित है। यह समरूपता और उसके कुछ परिणामों को •दी जोन वाली मान्यता नई नहीं है। 19वीं शताब्दी में इस प्रकार की समरूपता, प्रकार्य की अवधारणा और स्वयं यह शब्द सामाजिक दर्शनशास्त्र तथा समाजशास्त्र में प्रायः देखने को मिलते थे। जहां तक मैं जानता हँ समाज के वैज्ञानिक अध्ययन के लिए 1895 में दुर्खीम ने सर्वप्रथम इस अवधारणा को प्रतिपादित किया था।"