सविनय अवज्ञा आंदलनों और महिलाएँ - Civil Disobedience Movements and Women
सविनय अवज्ञा आंदलनों और महिलाएँ - Civil Disobedience Movements and Women
सविनय अवज्ञा आंदलनों में महिलाओं की भागीदारी असहयोग आंदलनों से भी अधिक थी. यह भी अखिल भारतीय स्तर का आंदलनों था और अखिल भारतीय स्तर पर ही महिलाओं ने इसमें भागीदारी की थी. राष्ट्रीय आंदलनों सार्वजनिक जीवन में आने का एक माध्यम या प्लेटफार्म था. इस समय तक यह स्पष्ट हो गया था कि स्त्रियों के बिना कोई आदलनों न तो पूर्ण हो सकता है और न उसे अपेक्षित सफलता ही मिल सकती है. गाँधी के अहिंसात्मक आंदलनों के लिए स्त्रियाँ सबसे उपयुक्त उपादान थीं. स्त्रियों की कष्ट सहन करने की अकूत क्षमता उन्हें इस योग्य बनाती थी. सम्भवतः यही कारण था कि गांधीजी के आंदोलनों में स्त्रियों की संख्या निरंतर बढ़ रही थी.
यह केवल संख्या का बढ़ना नहीं था, आंदलनों की गुणात्मकता और गुणवत्ता भी उनके कारण बढ़ रही थी वे अब अपरिहार्य और आवश्यक हो गई थीं. स्त्रियों के इस महत्व के पीछे कस्तूरबा का बड़ा भारी योगदान था. गाँधी की तरह भी राष्ट्रीय आंदलनों का अपरिहार्य हिस्सा बन गई थीं. अब प्रचार और संचार के माध्यमों ने भी इस ओर ध्यान देना शुरू कर दिया था. कहीं-कहीं तो पुरुषों से ज्यादा संख्या स्त्रियों की होती थी स्त्रियाँ अब इतनी बड़ी संख्या में सकिय थीं कि वे अलग से एक इकाई बन चुकी थीं. ऐसा प्रायः पूरे देश में था.
स्त्रियों के नेतृत्व वाले कार्यक्रम धरने, जुलूस, प्रदर्शन, हड़ताल इत्यादि अपेक्षाकृत ज्यादा व्यवस्थित, अनुशासित और प्रभावशाली होते थे. स्त्रियाँ प्रबंधन में पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा कुशल होत हैं. उनके इस स्वाभाविक गुण का राष्ट्रीय आंदलनों को पूरा लाभ मिल रहा था. इस समय तक स्त्रियों का एक नया संघ देश सेविका संघ बन गया था, जिसकी सदस्याएँ जैसे देश सेवा के लिए ही पूरी तरह समर्पित थीं.
इस समय तक राष्ट्रीय आंदलनों में सक्रिय महिलाओं के प्रशिक्षण के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रमों की शुरुआत हो गई थी.
इस हेतु शिविर लगाए जाते थे जैसे कि हिंदुस्तानी सेवा दल के तहत संचालित महिला संगठन की प्रभारी कमलादेवी 1930 में ऐसे शिविरों का आयोजन करती थीं. इन शिविरों में महिलाओं को प्रचार गीत गाने, गाँवों में सभाएँ आयोजित करने, सभाओं में शांति कायम रखने, कानून व्यवस्था सँभालने, साफ-सफाई करके स्वच्छता रखने, घायलों को प्राथमिक चिकित्सा, सेवा सुश्रुषा करने और सूत कातने का प्रशिक्षण दिया जाता था. (द्रष्टव्य (शुक्ला, प्रो. आशा, कुसुम त्रिपाठी; उपनिवेशवाद, राष्ट्रवाद और जेंडर, महिला अध्ययन विभाग, बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल, 2014; ISBN 978-81-905131-7-19; - 76-77).
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