जीवन-सौन्दर्य - beauty of life
जीवन-सौन्दर्य - beauty of life
प्रसाद की जीवन-व्यापिनी अनुभूति की तरह उनकी सौन्दर्य चेतना सर्वव्यापिनी है। "वह त्रिशूल स्थित काशिका के विश्वनाथ के श्री चरणों के पास शैवों की सौन्दर्य साधना में सफल हो नेत्रत्रय की दिव्य दृष्टि पा लेता है, जिसके सन्निकर्ष से उसे वस्तुगत एवं भावात्मक दोनों प्रकार के सौन्दर्य का साक्षात्कार होता है। साथ ही उसकी अनुभूति, बुद्धि, कल्पना, भाषाशक्ति, शैली, कला आदि का ऐसा विकास होता है कि रचना में आरम्भ से अन्त तक सर्वत्र सौन्दर्य का स्वर्ण-जाल स्वतः बिछ जाता है। "" वे पहले की भाँति केवल प्रकृति ब्रह्म एवं नारी के माध्यम से ही सौन्दर्य की अनुभूति नहीं करते, वरन् उन्हें जीवन और जगत् के प्रत्येक उपादान में सौन्दर्य ही सौन्दर्य दिखाई पड़ता है। कवि के लिए सम्पूर्ण जड़ या चेतन जगत् तथा जीवन सौन्दर्य है।
सौन्दर्य-बुद्धि वास्तव में श्रद्धा-बुद्धि बन जाती है। वह चेतना का उज्ज्वल वरदान है, 'सौन्दर्य जिसे सब कहते हैं।' इसीलिए स्थूल एवं निर्जीव सौन्दर्य में कवि के लिए कोई आकर्षण नहीं रह जाता, उस सूक्ष्म और सजीव सौन्दर्य की अपेक्षा "प्रसादजी सौन्दर्य को रूपात्मक मानते चले जाते हैं। उनकी धारणा है कि रूप सौन्दर्य- बोध का एकमात्र साधन है। वे कहते हैं कि सीधी बात तो यह है कि सौन्दर्य बोध बिना रूप के हो ही नहीं सकता। सौन्दर्य की अनुभूति के साथ ही साथ हम अपने संवेदन को आकार देने के लिए उनका प्रतीक बनाने को बाध्य हैं।"
कवि के लिए सौन्दर्य सदैव कौतूहल और विस्मय बना रहा है। माधवी रजनी में नव इन्द्रनील लघु शृंग को फोड़कर धधकती लघु ज्वालामुखी की कान्ति के सदृश श्रद्धा की रूप ज्वाला को मनु का लुटे-सा देखना वास्तव में सौन्दर्य के प्रति कवि का कौतूहल ही है।
प्रसाद की सौन्दर्यानुभूति एकान्त सांस्कृतिक है । कवि के सौन्दर्य सम्बन्धी भाव वैदिक, बौद्ध, पौराणिक, शैव एवं सूफी संस्कृतियों के मेल में है। वह अपनी रुचि भेद के अनुसार सौन्दर्य की अभिव्यक्ति के लिए उन्हीं उपकरणों को चुनता है जो उपर्युक्त संस्कृतियों में सौन्दर्य के प्रतीक हैं। इसके बावजूद भी उनकी सौन्दर्य चेतना रूढ़ नहीं है। उसमें एक विचित्र प्रकार की नूतनता है, जो उनकी भावनाओं को पूर्ववर्ती कवियों की भावना से अलग करती है।
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