लोक कलाओं की विशेषताएँ - characteristics of folk arts

लोक कलाओं की विशेषताएँ - characteristics of folk arts


लोक-कलाओं का विकास जनसाधारण के घर-आँगन में छोटी-छोटी मान्यताओं और विश्वास के साये में होता है। ये मांगलिक अवसरों पर पुष्पित-पल्लवित होती हैं। लोक-कलाओं में जहाँ एक ओर जनमानस की विस्तृत व्यापक अभिव्यक्ति होती है, वहीं इनकी अपनी मौलिक विशेषताएँ भी हैं जो इन्हें अलग पहचान प्रदान करती हैं। भारत की लोक-कलाओं की प्रमुख विशेषताओं को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर समझा जा सकता है-


1. प्राचीनता


आदिमानव विभिन्न चित्राकृतियों के माध्यम से अपने मनोभावों को दर्शाता था जो इस बात का साक्ष्य है कि कला की उत्पत्ति भाषा से भी पूर्व हो गई थी। भारतीय कलाओं का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। मध्यप्रदेश में भीमबेटका नामक गुफाओं में की गई चित्रकारी 5500 ई.पू. से भी अधिक प्राचीन मानी जाती है। ये चित्र गेरू मिट्टी, चूना और तेल (बीजों से निकला हुआ अथवा जानवरों की चर्बी) को मिला कर टहनियों और उँगलियों की सहायता से बनाये गए हैं। इन चित्रों को हम मांडणा, अल्पना का प्रारम्भिक रूप मान सकते हैं।


2. धार्मिकता:


भारतीय लोक मानस धर्मानुरागी है। इसका प्रत्येक क्रियाकलाप धर्म से प्रेरित और लोक-कल्याण की भावना से परिपूर्ण होता है। यहाँ प्रचलित लोक-कलाएँ भी इस पहलू से अछूती नहीं है। विविध कलाओं में धार्मिक कथाओं तथा उनके पात्रों का चित्रण किया गया है। कला का यह पहलू मानव हृदय को आस्था से पूरित कर मंगल की कामना से युक्त करता है। इस प्रकार धर्म को भारतीय लोक कला का प्राण कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी।


3. पारम्परिकता


भारतीय जनसमाज परम्पराओं के प्रति विशेष आस्थावान् है। यहाँ की लोक-कलाओं में भी सर्वत्र परम्पराओं का सम्मान हुआ है।

इस भाव के प्रति एक विशेष धारणा अन्तर्निहित है कि हमें परम्पराएँ पूर्वजों से प्राप्त होती हैं। अतः अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान को व्यक्त करने के लिए कला के परम्परागत स्वरूप को पर्याप्त महत्त्व प्रदान किया जाता है। लेकिन यहाँ एक बात ध्यातव्य है कि परम्परा का निर्वाह इन कलाकृतियों का सशक्त पक्ष है क्योंकि इनमें अन्धानुकरण को प्रश्रय नहीं मिलता है वरन् परम्परा और यर्थाथ के बीच संतुलन बनाकर इन कृतियों का निर्माण किया जाता है।


4. प्रतीकात्मकता


भारतीय लोक कलाओं में प्रतीकात्मकता का महत्त्वपूर्ण स्थान है। विभिन्न प्रतीकों

के माध्यम से सूक्ष्म धार्मिक और दार्शनिक भावों अथवा अनुभूतियों को स्थूल रूप प्रदान करके जनसाधारण के लिए सरस, सरल और ग्राह्य बनाया गया है। इन प्रतीकों का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण 'स्वास्तिक' है जिसकी चार आडी खड़ी रेखाएँ चार दिशाओं, चार लोकों तथा सृष्टि-निर्माता 'चतुर्भुज ब्रह्म' की प्रतीक हैं। इसके अतिरिक्त पशु-पक्षी, पेड़ आदि के प्रतीक भी शुभ-मंगल के सूचक होते हैं। साथ ही प्रकृति के महत्त्व को भी प्रकट करते हैं।


5. अनामता :


अनामता लोक कला की प्रमुख विशेषताओं में से एक है। इसका प्रमुख कारण यह है कि लोक कलाकृति व्यक्ति विशेष की नहीं वरन् जातीय रचना के रूप में स्वीकार की जाती है।

जातीय रचना में अनेक व्यक्तियों का योगदान रहता है अतः उसे व्यक्ति-विशेष की रचना बताना व्यवहारिक रूप से उचित नहीं है। इन कलाओं के रचनाकारों के हृदय में कला के प्रति पूर्ण समर्पण भाव सहज ही द्रष्टव्य है । वहाँ आत्म-प्रसिद्धि भाव का सर्वथा लोप ही है। विविध कलाओं में व्यक्ति-विशेष की छाप के बिना लोकमंगल का भाव सर्वत्र दिखाई पड़ता है।


6. समन्वयवादिता:


भारतीय संस्कृति अपनी समन्वयवादी प्रवृत्ति के कारण सम्पूर्ण विश्व में अलग पहचान बनाए हुए है। यही प्रवृत्ति यहाँ की लोक कलाओं की विशेषता हो तो यह अस्वाभाविक नहीं है।

भारतीय लोक-कलाओं में कल्पना के साथ यथार्थ, आध्यात्मिकता के साथ भौतिकता, सुकुमारता के साथ गम्भीरता और प्राचीनता के साथ नूतनता का सुन्दर, संतुलित समन्वय देखने को मिलता है।


7. संस्कृति की संवाहिकाः


भारतीय लोक कला भारतीय संस्कृति की संवाहिका है। विविध लोककलाओं में भारतीय आचार- विचार, परम्पराओं, विश्वास मान्यताओं और जीवन-शैली का चित्रण मिलता है जो यहाँ की संस्कृति को प्रतिबिम्बित करता है।

इन लोक-कलाओं में भारतीय समाज में प्रचलित लोक व्यवहार, धार्मिक और सामाजिक परम्पराओं को पर्याप्त महत्त्व मिला है जो इनके सांस्कृतिक महत्त्व को बढ़ाने में विशेष रूप से कारगर है।


कहा जा सकता है कि भारतीय लोक कलाएँ विविध विशेषताओं से परिपूर्ण जनमानस की अभिव्यक्ति हैं। जो सर्वमंगल की कामना से युक्त हैं। ये कलाएँ प्राचीनकाल से मानक्समाज को परम आनन्द की अनुभूति करवा रही हैं और उसकी चेतना के गुणात्मक विकास में अपनी भागीदारी निभा रही हैं।