कामयानी में निहित आधुनिक सन्दर्भ - Modern references contained in Kamayani

प्रसाद की अधिकांश रचनाओं की भाँति 'कामायनी' की कथावस्तु भी ऐतिहासिक है, बल्कि इसका इतिहास तो इतना प्राचीन है कि इसमें कितना इतिहास है और कितना 'मिथ' है, कहना सरल नहीं है। 'विशाख' की भूमिका में प्रसाद ने लिखा है "इतिहास का अनुशीलन किसी भी जाति को अपना आदर्श संगठित करने के लिए लाभप्रद होता है। . क्योंकि हमारी गिरी दशा को उठाने के लिए हमारे जलवायु के अनुकूल जो हमारी अतीत सभ्यता है, उससे बढ़कर उपयुक्त और कोई भी आदर्श हमारे अनुकूल होगा कि नहीं इसमें मुझे सन्देह है। ... मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश में से उन प्रकाण्ड घटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है, जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है।"


प्रसादजी में निश्चित रूप से इतिहास-बोध है। वे बौद्धिक संस्कृति के आवश्यक अंग तथा सामाजिक जीवन को बदलने एवं समझने के आवश्यक उपकरण की तरह इतिहास का प्रयोग करते हैं। इसलिए इतिहास पर आधारित कथानकों और चरित्रों में बार-बार वर्तमान की झलक मिलती है और वर्तमान तथा भविष्य के लिए चिन्तित एक सकारात्मक सोच दिखलाई पड़ती है। 'कामायनी' के सन्दर्भ में भी यही सच है। कामायनी एक तरफ आदिपुरुष और आदिरमणी के द्वारा सृष्टि के पुनर्निर्माण की कथा है तो दूसरी तरफ इसके भीतर छिपे मिथकीय रूपकात्मक स्वरूप को भी कवि ने पहचाना है और "ऐतिहासिक पौराणिक कथा पर मनोवैज्ञानिक दार्शनिक कथा प्रक्षेपित की है।

इस तरह से 'कामायनी' हमें वर्तमान सन्दर्भ में 'प्रसाद' की चिन्ता से भी परिचित कराती है और मंगलमयी वृद्धि की ओर यह संसार अग्रसर है, या हो, इस शुभाशंसा से भी । "" इसलिए कामायनी में आधुनिक सन्दर्भ सर्वत्र दिखाई पड़ता है।


कामायनी का रचनाकाल सन् 1927-1935 है। 1936 में इसका प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ । सन् 1939 में इसका दूसरा किंचित् संशोधित संस्करण प्रकाश में आया वही संस्करण आज भी चल रहा है। कामायनी के प्रकाशन से मात्र दस वर्ष बाद हमें आजादी मिली। इस आजादी को देखने और उसका सुख लेने के लिए प्रसादजी तो नहीं रहे परन्तु कामायनी का सृजन करते हुए वे देख रहे थे कि देश को मिलने वाली आजादी कैसी होगी।

आजादी के पश्चात् हमारा प्रजातन्त्र किस दिशा में जाएगा जैसी हमारी उस समय गति मति थी। तीस के दशक में भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम अपने चरम पर था। पूर्ण स्वराज्य की संकल्पना हो चुकी थी। एक तरफ सशस्त्र क्रान्ति के जरिए आजादी प्राप्त करने वाले निष्ठावान् नेताओं की टोली थी दूसरी तरफ गाँधी का अहिंसक आन्दोलन उच्चादर्श । जिस पर उनके अनुयायी कभी-कभी संशय दृष्टि से देखते थे परन्तु गाँधी अपनी मंजिल की ओर चल रहे थे। क्या आजादी गाँधीवादी आदर्शों पर मिली या आजादी के पश्चात् हमने गाँधी के साथ कैसा व्यवहार किया इन सन्दर्भों की गूंज हमें कामायनी में यत्र-तत्र दिखाई पड़ती है। "गाँधी दर्शन का बीज है। - सत्याचरण ।

गाँधीजी ने अपनी आत्मकथा को 'सत्य के प्रयोग' नाम दिया। गाँधीजी की सत्यवादिता से बहुतों को हैरानी होती थी, बहुतों को खीझ, बहुत उनके सत्य को समझ नहीं पाते थे, कि आखिर यह है क्या ? "2 प्रसंग दूसरा है, किन्तु 'कामायनी' के कर्म सर्ग में इसी सत्य के ऊहापोह की ध्वनि मिलती है-


और सत्य ! यह एक शब्द तू कितना गहन हुआ है ? मेधा के क्रीड़ापंजर का पाला हुआ सुआ है।


गाँधी दर्शन का दूसरा बीज है 'अहिंसा' कामायनी में मनु के हिंसाचरण पर जो टिप्पणी की गई है वह कथा के एक विशेष प्रसंग में है परन्तु निश्चय ही निम्नांकित पंक्तियों को लिखते समय कवि के मनः मस्तिक को वह अहिंसा मथ रही होगी-


अपनी रक्षा करने में जो चल जाय तुम्हारा कहीं अख वह तो कुछ समझ सकी हूँ मैं हिंसक से रक्षा करे शस्त्र । पर जो निरीह जीकर भी कुछ उपकारी होने में समर्थ; वे क्यों न जिएँ, उपयोगी बन इसका मैं समझ सकी न अर्थ !'


संघर्ष सर्ग में सारस्वतवासी, मनु से जो संवाद करते हैं उसमें गाँधीवादी विचारों की प्रत्यक्ष ध्वनि सुनाई पड़ती है। गाँधीजी का कहना था "मैं जिसका विरोध करता हूँ वह मशीनीकरण की 'धुन' (क्रेज) है। मशीन का मैं विरोधी नहीं हूँ।" और 'मशीनीकरण' एवं 'उद्योगीकरण' ने भारत को कहाँ ला दिया है यह दिखाई पड़ रहा है। "अत्यधिक मशीनीकरण में व्यक्ति ही मशीन हो जाता है, आत्मकेन्द्रित । भौतिक उपलब्धियों और सुख- सुविधाओं के संचय की इच्छा ऐसे में बढ़ती जाती है। एक कृत्रिम अभाव हमें सालने लगता है,

एक खास तरह की संवेदनशीलता हममें आ जाती है, यह संवेदनशीलता दूसरों के प्रति नहीं, अपने आप के प्रति अत्यधिक अनुभूतिशील हो जाने जैसी होती है । "" संचय की इस प्रवृत्ति की अति को हम आज देख रहे हैं, कामायनीकार ने उसी समय देख लिया था। यथा-


तुमने योगक्षेम से अधिक संचय वाला, लोभ सिखा कर इस विचार संकट में डाला। हम संवेदनशील हो चले यही मिला सुख, कष्ट समझने लगे बना कर निज कृत्रिम दुःख ! प्रकृति शक्ति तुमने यन्त्रों से सब की छीनी ! शोषण कर जीवनी बना दी जर्जर झीनी !


'यान्त्रिकता' का जो संकेत यहाँ मिलता है उसे कतिपय विद्वान् विसंगति कहते हैं,

पर प्रसादजी के अन्दर की हलचल को सही मानते हैं। यान्त्रिकता एक मनोवृत्ति है। बहुत पहले श्रद्धा जो तकली घुमा रही थी वह भी यन्त्र ही है । यन्त्र कहने से तात्पर्य एकदम आज के यन्त्रों से नहीं है, संचयी मनोवृत्ति वाली आत्मकेन्द्रित व्यवस्था से है ।


प्रसादजी ने सदैव नारी के औदात्य का चित्रण किया है और पुरुष के दानवी चरित्र को उसके सामने बार- बार लाया है। आज की नारियाँ जिस स्वतन्त्रता की माँग कर रही हैं उससे इतर बहुत ऊँची बात लज्जा सर्ग में प्रसादजी कहते हैं-


देवों की विजय, दानवों की हारों का होता युद्ध रहा संघर्ष सदा उस् अन्तर में जीवित रह नित्य विरुद्ध रहा।


नारी की करुण स्थिति पर जो प्रसादजी ने टिप्पणी की है इसके आगे और क्या कहा जा सकता है। वस्तुतः प्रसादजी स्त्री और पुरुष की असमानता को दूर करने में विश्वास करते थे। इस बात को स्पष्ट करने के लिए श्रद्धा सर्ग में लिखते हैं-


लगा कहने आगंतुक व्यक्ति मिटाता उत्कण्ठा सविशेष; दे रहा हो कोकिल सानन्द सुमन को ज्यों मधुमयसन्देश ।'


यहाँ नारी श्रद्धा के लिए क्रिया और संज्ञा पदों को पुल्लिंग बनाकर कवि ने विशिष्ट व्यंजक शैली में अपना संकेत दिया है कि हमारी भाषा ही औरत और मर्द में अन्तर करती है इसलिए पहले इसे ठीक करना आवश्यक है।


कतिपय विद्वान् इसे प्रसाद की भाषागत अवधानता के रूप में लेते हैं। वस्तुतः स्त्री के लिए पुल्लिंगवाची संज्ञा या क्रियापद का प्रयोग उर्दू-फारसी के प्रभावस्वरूप है। कामायनी के पहले आँसू में तो ऐसे अनेक प्रयोग हैं-


शशि- मुख पर घूँघट डाले अंचल में दीप छिपाये जीवन की गोधूली में कौतूहल से तुम आये।


उर्दू-फारसी से प्रभावित शायरी में ऐसे प्रयोग प्रायः मिलते हैं। 'मेरी महबूबा' की जगह 'मेरे महबूब' जैसे सम्बोधन का प्रयोग उर्दू शायरी में आम बात है।


औद्योगिक युग में चरित्रों में स्खलन आ जाता है, उसके जो दृष्टान्त प्रसादजी ने कामायनी में दिये हैं वे इतने अधिक सजीव हैं कि मानों प्रसाद ने आज की स्थिति को देखकर लिखा है। जैसे-


इड़े ! मुझे वह वस्तु चाहिए जो मैं चाहूँ, तुम पर हो अधिकार, प्रजापति न तो वृथा हूँ । किन्तु आज तुम बंदी हो मेरी बाहों में मेरी छाती में फिर सब डूबा आहों में । "


इन पंक्तियों को पढ़ते समय आज के राजनेताओं का चरित्र आँखों के सामने आ जाता है और नगरों महानगरों में नारियों के यौन शोषण की बातें आये दिन यत्र-तत्र घटित होती सुनाई देती हैं उसकी झलक इन पंक्तियों में मिलती है।


सम्प्रति लोकतान्त्रिक व्यवस्था में हम जिन प्रतिनिधियों को चुनकर संसद अथवा विधानसभाओं में भेजते हैं, वे क्या यह नहीं सोचते दिखते कि 'तुच्छ नहीं' है अपना सुख भी...। दो दिन के इस जीवन का तो वहीं चरम सब कुछ है?


प्रसाद के समय भारत में पाश्चात्य सभ्यता संस्कृति चरम पर थी। तब प्रसाद को भारतीय ऐतिहासिक परम्परा के पुनरुत्थान की आवश्यकता महसूस हुई। उन्होंने कामायनी के द्वारा प्राग् ऐतिहासिक काल की कथा को अपने समय की परिस्थितियों के समाधान हेतु प्रस्तुत किया जिसकी उपयोगिता आज भी है। इसलिए उस समय उन्होंने कामायनी में मानव संस्कृति की रूपरेखा प्रस्तुत की है-


सब भेदभाव भुलाकर दुःख-सुख को दृश्य बनाता, मानव कह रे ! यह मैं हूँ यह विश्व नीड़ बन जाता ।


अस्तु, विश्वमैत्री की भावना से पूर्ण है, 'कामायनी' ।


दर्शन


प्रसादजी एक महान् दार्शनिक हैं। भारतीय दर्शनों का उनका गम्भीर अध्ययन है। उन्होंने कामायनी महाकाव्य की रचना आध्यात्मिक दृष्टि से की है। ऋषि-मुनियों के आध्यात्मिक चिन्तन को दर्शन का नाम दिया गया है। प्रसादजी के जीवन का मूल दर्शन शैव था। शिव के वरदानस्वरूप उनका आविर्भाव हुआ था। बचपन में ही उन्हें देश के प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंगों की यात्रा करायी गई थी। उनकी पहली स्मृति में घर के पास के शिवालय के घण्टे की ध्वनियाँ थीं। इसलिए शैव दर्शन उनके जीवन का मूल दर्शन रहा । विकासक्रम में उन पर और भी दार्शनिक प्रभाव थे जिनमें प्रमुख बौद्ध दर्शन का प्रभाव था। धारा प्रवाह में सूफियों का दर्शन तथा अन्य भी आए परन्तु जिन दो दार्शनिक प्रभावों को हम विशेष मान्यता देते हैं,

वह बौद्ध और शैव दर्शन ही हैं। "अपनी ऊँची से ऊँची दार्शनिक उड़ानों में उन्होंने धरती पर से अपना चरण हटने नहीं दिया उनके हृदय में मानव कल्याण की भावना विराट् थी और स्वोन्नति के लिए अन्तर में सिमट आने को कोरे रहस्यवाद या अव्यावहारिक दर्शन को वे हेय मानते थे। प्रसाद ने जीवन से कभी पलायन नहीं किया उन्हें जीवन से उसके समस्त रसों के साथ अत्यधिक " प्यार था और मानव को वह सृष्टि का श्रेष्ठतम जीव मानते थे क्योंकि मानव प्रकृति की समस्त संवेदनशील विभूतियों का सम्मिश्रण था । "" प्रसाद के दर्शन का अपना विशिष्ट स्थान है। उसकी अपनी मौलिकता है।


शैव दर्शन


प्रसाद ने 'कामायनी' में मन की उस स्थिति को प्रतिपाद्य बनाया है जिसमें समस्त प्रकार के दुःख-सुख का, हृदय बुद्धि का,

नर-नारी का और राजा प्रजा का व्यष्टि-समष्टि का भेदभाव समाप्त हो जाता है और चारों ओर अखण्ड आनन्द का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। जैसे-


समरस में जड़ या चेतन सुन्दर साकार बना था, चेतनता एक विलसती आनन्द अखण्ड घना था । "


इस स्थिति को शैवागम में समरसता का नाम दिया गया है। यह अपने में साध्य भी है और साधन भी। कामायनी का घटनाक्रम इसी समरसता पर आधारित है। पात्र चयन पात्रों का नामकरण और उनका चरित्र-चित्रण भी इसी के आधार पर हुआ है। ग्रन्थान्त में दो सर्ग 'रहस्य' तथा 'आनन्द' उसी वर्णन के लिए जोड़े गए हैं। अन्य सर्गों में भी प्रसाद को जहाँ अवसर मिला है, उन्होंने शिव के अनेक रूपों एवं शैव दर्शन के विभिन्न तत्त्वों का वर्णन किया है।

समरसता का सिद्धान्त शैव दर्शन की नींव है। भेद-बुद्धि जीवन को उससे छू रखती है। जिस पल भेद- बुद्धि का लोप हो जाता है, मन स्वयं समरस हो जाता है। शैवदर्शनानुसार शिव और शक्ति में कोई भेद नहीं है। "शिव ही बहिर्मुख होने पर शक्ति और शक्ति ही अन्तर्मुख होने पर शिव है।" कामायनी में जगत् का यही रूप लिख गया है-


कर रही लीलामय आनन्द महाचिति सजग हुई सी व्यक्त, विश्व का उन्मीलन अभिराम इसी में सब होते अनुरक्त।"


जीव की यह स्थिति है कि वह सामरस्यपूर्ण नहीं हो पाता


ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है इच्छा क्यों पूरी हो मन की, एक दूसरे से न मिल सके यह विडम्बना है जीवन की। "

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सामरस्यपूर्ण स्थिति में पहुँच जाने पर सभी प्रकार के द्वन्द्वों यथा दुःख-सुख, हृदय बुद्धि, नर-नारी, राजा- प्रजा, व्यष्टि-समष्टि का भेदभाव समाप्त हो जाता है। हर तरफ अखण्ड आनन्द का साम्राज्य अनुभव होता है।


बौद्ध दर्शन


कामायनी के प्रतिपाद्य को स्थिर करने में प्रसाद को बौद्ध दर्शन से भी सहायता मिली है। 'चिन्ता सर्ग' के कई छन्दों में बौद्ध-दर्शन के दुःखवाद और क्षणवाद का प्रभाव मिलता है। जैसे-


जीवन तेरा क्षुद्र अंश है व्यक्त नील घन माला में, सौदामिनी सन्धि सा सुन्दर क्षण भर रहा उजाला में। 13


दुःखवाद अधोलिखित छन्द में मिलता है-


वे सब डूबे, डूबा उनका विभव, बन गया पारावार; उमड़ रहा है देव सुखों पर दु:खजलधि का नाद उपार। 14


कामायनी में अनेक स्थलों पर वेदान्त दर्शन की भी स्वीकृति मिलती है साथ ही डार्विन के विकासवाद की छाप भी स्पष्ट अंकित है । हतोत्साहित मनु में फिर से साहस का संचार करने के लिए ( विकासवाद से सम्बन्धित एक अन्य धारणा) परिवर्तनवाद का भी प्रयोग किया गया है। जैसे-


प्रकृति के यौवन का शृंगार करेंगे कभी न बासी फूल; मिलेंगे वे जाकर अति शीघ्र आह उत्सुक है उनकी धूल ।


पुरातनता का यह निर्मोह सहन करती न प्रकृति पल एक नित्य नूतनता का आनन्द किये है परिवर्तन में टेक। 15


शैव दर्शन के व्यक्तिवादी होने पर भी 'कामायनी' में सामाजिक दर्शन को भी महत्त्व दिया गया है। जीवन के सामाजिक पक्ष की उपेक्षा करके मनुष्य जीवन का पूर्ण विकास नहीं कर सकता। प्रसादजी इस तथ्य के पूर्ण समर्थक थे। उन्होंने यथाअवसर जीवन के सामाजिक पक्ष को प्रस्तुत किया है और कहा है कि व्यक्ति अपने को समष्टि के लिए समर्पित करे। उदाहरणार्थ-


अपने में सब कुछ भर कैसे व्यक्ति विकास करेगा ? यह एकान्त स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा !16


अस्तु कामायनी की दार्शनिक पृष्ठभूमि सुदृढ़ है। उसे अनेक दर्शनों का आधार प्राप्त है।

शैव दर्शन समरसता सिद्धान्त, बौद्धों का क्षणवाद एवं दुःखवाद, वेदान्त दर्शन का ज्ञानवाद और अनेक समाजवादी तत्त्वत् । आचार्य शुक्ल ने कामायनी के घटनाचक्र पर शैव दर्शन का आरोप करते हुए लिखा है- "श्रद्धा ने मनु को सरस्वती तट पर एक गुफा में पाया। मनु उस समय आँखें बन्द किये चित्ती-शक्ति का आन्तर्नाद सुन रहे थे, ज्योतिर्मय पुरुष का आभास पा रहे थे, अखिल विश्व के बीच नटराज नृत्य देख रहे थे। श्रद्धा को देखते ही बेहद चेत होकर पुकार उठे श्रद्धे ! उन चरणों तक ले चल । श्रद्धा आगे-आगे और मनु पीछे-पीछे हिमालय पर चढ़ते - चले जाते हैं। यहाँ तक कि वे ऐसे महादेश में अपने को पाते हैं जहाँ वे निराधार ठहरे जान पड़ते हैं।

भू-मण्डल के रसों का कहीं पता नहीं ।" यहाँ अब कवि पूरे रहस्यवादी का बाना धारण करता है और मन के भीतर एक नयी चेतना ( इस चेतना से भिन्न) का उदय बताता है। अब मनु को त्रिषिक (थ्री डाइमेंशन) विश्व और त्रिभुवन के प्रतिनिधि तीन अलग-अलग आलोक बिन्दु दिखाई पड़ते हैं। श्रद्धा उन्हें एक-एक का रहस्य समझाती है। इन तीन बिन्दुओं का रंग लाल, काला और श्वेत है। जिसमें प्रथम लाल बिन्दु 'इच्छा' का क्षेत्र है, दूसरा काला बिन्दु कर्म का क्षेत्र है और तीसरा श्वेत बिन्दु 'ज्ञान' का क्षेत्र है। श्रद्धा इनका सविस्तार वर्णन करती हैं। तीनों की भिन्नता को ही दुखों का कारण बताती है और जब वह मुस्कुराती है तो तीनों बिन्दु एक हो जाते हैं। आचार्य शुक्ल के मतानुसार - "इस रहस्य को पार कर लेने पर ही आनन्द-भूमि दिखाई गई है।

वहाँ इड़ा भी कुमार (मानव) को लिये अन्त में पहुँचती है और देखती है कि पुरुष पुरातन प्रकृति से मिला हुआ अपनी ही शक्ति से लहरें मारता हुआ आनन्द-सागर-सा उमड़ रहा है।"


परम्परा और आधुनिकता


कामायनी की कथा शतपथ ब्राह्मण तथा पुराण प्रसिद्ध होती हुई भी आधुनिक युग की कहानी है। उसमें प्रदर्शित जीवन सभ्यता एवं संस्कृति का रूप मनुकालीन नहीं रचनाकालीन है। कामायनी महाकाव्य मनुकालीन परिस्थितियों, हलचलों तथा आन्दोलनों की ओट में आधुनिक समय की परिस्थितियों, हलचलों एवं आन्दोलनों को चित्रित करता है। उसमें प्रतिपादित विचार एवं परिलक्षित प्रवृत्तियाँ आज की हैं।

आर्नोल्ड ने काव्य की जो परिभाषा दी है कि "तत्त्वतः वह जीवन की समीक्षा है", सामान्य काव्य के लिए भले ही उपयुक्त न हो पर वह 'कामायनी' पर पूर्णत: चरितार्थ होती है। "अपनी ज्ञान, विज्ञानमयी सम्पदा के कारण ही 'कामायनी' 'मानस' की भाँति चिर नवीन है। उसमें ऐसी ही मौलिक और मानव जीवन से घनिष्ठतम सम्बन्धित समस्याओं को उठाया गया है, जो किसी एक युग और देश-विदेश तक सीमित न होकर समस्त मानव जाति के चिरकालीन जीवन से अनुबन्धित है। उसमें ऐसे जीवन-मूल्यों का अन्वेषण है जो हर नवागत पीढ़ी के प्राप्तव्य और मानवता के अभ्युदय में सहायक है ।" 17 इस प्रकार प्रसादजी का युग-कवि रूप हर युग का प्रतिदर्शक सिद्ध होता है। 'कामायनी' की इसी वैचारिक गम्भीरता के कारण उसे 'हिन्दी का वेद' भी कहा गया है। कामायनी यद्यपि आदिम मानव की कथा है किन्तु कवि ने उसमें भी आधुनिक समस्याओं को स्थान दिया है। मुख्य समस्याएँ अधोलिखित हैं-


भोगवाद


पूँजीवादी सभ्यता के विकसित होने से भोगवादी प्रवृत्तियाँ बढ़ती जा रही हैं। वैज्ञानिक युग में मानव ने अनेक सुखों की खोज कर ली है जिसके कारण उसमें स्वार्थ की भावना भर गई है। अपने सुख के लिए वह दूसरे मनुष्यों की हानि करने में संकोच नहीं करता। दूसरे की सुख-सुविधा के विषय में वह ध्यान नहीं देता । देवताओं के जीवन का जो स्मृतिबिम्ब कामायनी में वर्णित है और उसका जो परिणाम दिखाया गया है, वह आधुनिक भोगवादी जीवन की ओर संकेत करने वाला है। प्रसाद इस भोगवाद के विरुद्ध हैं। उन्होंने इन्द्रियजन्य लिप्साओं की अवहेलना करते हुए कहा है-


आकर्षण से भरा विश्व यह केवल भोग्य हमारा, जिनके दो कूलों में बहे वासना धारा।


वही स्वर्ग की बन अनन्तता मुसकाता रहता है; दो बूँदों में जीवन का रस लो बरबस बहता है। 18


देवसृष्टि का विनाश उसकी भोगवादी संस्कृति के कारण ही होता है। कवि यह कहना चाहता है कि अखण्ड विलास एवं भोग-लिप्सा अन्ततः विध्वंस का कारण होती है।


नारी स्वातन्त्र्य


नारी का स्वाभिमान, उसकी मर्यादा, उसकी स्वतन्त्रता, आधुनिक युग का बड़ा प्रश्न है । प्रसाद ने कामायनी में श्रद्धा एवं इड़ा के रूप में दो नारी प्रतीकों का सृजन किया है। प्रसाद ने श्रद्धा के रूप में आदर्श नारी की कल्पना की है वे आज की नारी को श्रद्धा के रूप में देखना चाहते हैं-


दया, माया, ममता लो आज मधुरिमा लो अगाध विश्वास, हमारा हृदय रत्न निधि स्वच्छ तुम्हारे लिए खुला है पास। "


प्रसाद पुरुष नारी में सामंजस्य चाहते हैं। वह पुरुष को यह बताना चाहते हैं कि नारी मात्र भोग्या नहीं है। उसका अपना अस्तित्व है उसकी अपनी सत्ता है। काम मनु को तिरस्कृत करते हुए कहता है-


तुम भूल गए पुरुषत्व मोह में कुछ सत्ता है नारी की; समरसता है सम्बन्ध बनी अधिकार और अधिकारी की।


प्रसाद नारी को चहारदीवारी के भीतर बन्द करके नहीं रखना चाहते थे।

पुरुष के साथ निरन्तर सहयोग करते हुए सही अर्थों में उसकी सहधर्मिणी होना ही नारी की सार्थकता है। इड़ा और श्रद्धा के माध्यम से उन्होंने दिखाया है कि नारी अपने स्वार्थ को त्याग कर पुरुष के लिए सदैव उन्नति का मार्ग प्रशस्त करती है।


संघर्ष


कामायनी के इड़ा सर्ग में सारस्वत प्रदेश के लोकजीवन में हमें आधुनिक संघर्ष दिखई पड़ता है। आज का यह संघर्ष हमारे देश में ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है। शासक और शासित की समस्या, श्रमिकों और पूँजीपतियों की समस्या, जाति और वर्ग भेद की समस्याएँ सम्प्रति हमारे सम्मुख विकराल मुँह बाए खड़ी हैं।


शासक और शासित का द्वन्द्व


जब शासक अपने ही बनाये गए नियमों का उल्लंघन करता है, स्वेच्छाचारी हो जाता है और प्रजा को प्रताड़ित करता है तब शासक की यही निरंकुशता संघर्ष का कारण बनती है। सारस्वत प्रदेश में मनु की इसी निरंकुशता से संघर्ष हुआ। मनु की उच्छृंखलता उनके स्वरों में स्पष्ट होती है। इड़ा के समझाने पर भी मनु अपना हठ नहीं छोड़ते हैं और कहते हैं-


आह प्रजापति होने का अधिकार यही क्या ! अभिलाषा मेरी अपूर्ण ही सदा रहे क्या ? मैं सबको वितरित करता ही सतत रहूँ क्या ? कुछ पाने का यह प्रयास है पाप, सहूँ क्या ?20


मनु की इस मनोवृत्ति में वर्तमान शासक वर्ग की मनःस्थिति देखी जा सकती है।


श्रमिकों और पूँजीपतियों का संघर्ष


सम्पूर्ण विश्व में इस संघर्ष की स्थिति आज विद्यमान है। श्रमिकों और पूँजीपतियों के बीच की खाई दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। एक तरफ पूँजीपति अधिक चर्बी के कारण दिनोदिन मोटा होता जा रहा है दूसरी तरफ श्रमिकों की हड्डियाँ दिखाई पड़ रहीं हैं। इस समस्या का जड़ यान्त्रिक सभ्यता है जिसके फलस्वरूप राष्ट्र की सम्पूर्ण पूँजी गिने-चुने लोगों के पास इकट्ठा हो रही है। कामायनी में सारस्वत प्रदेश की उन्नति यान्त्रिक सभ्यता के द्वारा हुई है। वहाँ का सारा वैभव बुद्धि के आधार पर टिका है। मनुष्य स्वाभाविक प्रकृति से छू चला गया है।


जिसके कारण संघर्ष के समय प्रकृति मनु का साथ छोड़ देती है, कुपित हो जाती है। पीड़ितों की आवाज़ मनु के लिए अभिशाप बन गई -


प्रकृति शक्ति तुमने यन्त्रों से छीनी शोषण कर जीवनी बना दी जर्जर झीनी। 21


जातियों और वर्गों का संघर्ष


जातियों और वर्गों का संघर्ष आधुनिक समाज में किसी न किसी रूप में सर्वत्र विद्यमान है। इससे सामाजिक एकता खण्डित हो गई है। सामाजिक सुख-शान्ति समाप्त हो गई है। लोग अपने वर्ग के हितों को ध्यान में रखकर कार्य कर रहे हैं। कवि ने स्थान-स्थान पर इस समस्या को इंगित किया है। काम ने जो शाप दिया है उससे वर्ग-भेद जनित विषमता स्पष्ट हो जाती है। -


यह अभिनव मानव प्रजा सृष्टि


इयता में लगी निरन्तर ही वर्णों की करती रहे वृष्टि अनजान समस्याएँ गढ़ती रचती हो अपनी ही विनष्टि कोलाहल कलह अनन्त चले, एकता नष्ट हो बढ़े भेद अभिलषित वस्तु तो दूर रहे हाँ मिले अनिच्छित दुखदखेद | 2


गाँधीवाद एवं साम्यवाद


प्रसादजी गाँधीवाद और साम्यवाद से प्रभावित थे। कामायनी 1935 में प्रकाशित हुई । उस समय गाँधीजी का देशभर में प्रभाव था। श्रद्धा के चरित्र में गाँधीवादी विचारधारा दिखाई पड़ती है जब वह तकली पर सूत काटती है- -


चल री तकली धीरे-धीरे, प्रिय गये खेलन अहेर


यही नहीं वह हिंसा का विरोध और अहिंसा का समर्थन भी करती है।

वह जीवन के विकास के लिए समर्पण और विश्वास को महत्त्वपूर्ण बताती है। जो गाँधीवादी जीवन दर्शन का प्रभाव है। वह मनु से कहती है-


समर्पण लो सेवा का सार सजल संस्कृति का यह पतवार आज से यह जीवन उत्सर्ग इसी पद तल में विगत विकार। 


सारस्वत प्रदेश के संघर्ष में साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव दिखाई देता है। सारस्वत प्रदेश के सारे द्वन्द्रों की जड़ में वितरण की असमानता और यान्त्रिक पूँजीवाद का निरन्तर बढ़ना है।


परम्पराएँ ऋणात्मक ही नहीं, धनात्मक भी होती हैं। धनात्मक परम्पराएँ हमारे चतुर्दिक विकास में सहायक होती हैं। प्रसाद ने उन परम्पराओं में आधुनिकता का पुट देकर मनुष्य को सन्मार्ग की ओर प्रेरित किया है। अतः इस क्षेत्र में उनकी सारस्वत प्रतिभा प्रशंसनीय है।