हिन्दी साहित्य और तुलनात्मक आलोचना - Hindi Literature and Comparative Criticism

तुलनात्मक आलोचना हर युग में किसी न किसी रूप में पाई जाती है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में विभिन्न युगों में तुलनात्मक आलोचना के उदाहरण देखे जा सकते हैं। विशेषतः द्विवेदी युग युग में रीतिकालीन कवियों देव और बिहारी के अध्ययन के सन्दर्भ में तुलनात्मक आलोचना का विकास हुआ है। तुलनात्मक मूल्यांकनको इस युग की मुख्य समीक्षा पद्धति माना जाता है। हिन्दी साहित्य में यह पद्धति किसी न किसी रूप में आज तक चली आ रही है। ऐतिहासिक दृष्टि से हिन्दी में तुलनात्मक आलोचना का आरम्भ बाबू शिवनन्दन सहाय ने किया था।

उन्होंने सन् 1905 में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की कविता की समीक्षा के दौरान उनकी तुलना ‘शेखर', 'पद्माकर', 'तुलसीदास' आदि कवियों से की और भारतेन्दु को एक प्राकृत कवि के रूप में प्रस्तुत किया। इसमें किसी को श्रेष्ठ या निम्न दिखाने का कोई भाव नहीं है, बल्कि बहुत ही गम्भीरता से भारतेन्दु की कविता का महत्त्व अन्य कवियों को सामने रखते हुए बताया गया है। आलोचना के महत्त्व की दृष्टि से पण्डित पद्मसिंह शर्मा हिन्दी में तुलनात्मक आलोचना के वास्तविक प्रणेता है। उन्होंने 1907 ई. में बिहारी और सादी की तुलना द्वारा इसका आरम्भ किया था। तुलनात्मक अध्ययन को वे आलोचक का मुख्य कार्य मानते थे ।

सन् 1908-09 में उन्होंने 'सरस्वती' पत्रिका में विभिन्न भाषाओं की कविताओं का बिम्ब प्रतिबिम्ब-भाव दिखाने के लिए निबन्ध लिखे थे। 'सरस्वती' में ही सन् 1910 में उनका निबन्ध 'सतसई-संहार' धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुआ था। उनकी इस आलोचना पद्धति का सबसे बड़ा प्रमाण उनकी पुस्तक 'बिहारी सतसई : तुलनात्मक अध्ययन' (1918 ई.) है।


मिश्र बन्धुओं ने अपने ग्रन्थ 'हिन्दी नवरत्न' में नौ कवियों को श्रेणियों में बाँट कर उनका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया था। इसमें देव को बिहारी से बड़ा कवि बताने के कारण आलोचकों के बीच विवाद पैदा हो गया और प्रतिक्रियास्वरूप तुलनात्मक आलोचना में उबाल आ गया।

पण्डित पद्मसिंह शर्मा ने 'बिहारी सतसई : तुलनात्मक अध्ययन' पुस्तक लिखी, जिसमें बिहारी को देव से बड़ा कवि प्रमाणित किया गया। पण्डित कृष्णबिहारी मिश्र ने इसके उत्तर में 'देव और बिहारी' पुस्तक लिखकर बिहारी की तुलना देव से की और देव को बड़ा कवि दिखलाने का प्रयत्न किया। यहाँ उन्होंने मिश्र बन्धुओं के तर्कों का समर्थन ही किया, परन्तु उनकी शैली संयत है और दोनों कवियों के काव्योत्कर्ष को अपेक्षाकृत सन्तुलित ढंग से प्रस्तुत करने के बाद देव को बिहारी से बड़ा कवि माना।


देव-बिहारी के विवाद में लाला भगवानदीन भी उतर पड़े।

लाला जी रीतिकालीन साहित्य के मर्मज्ञ थे। पण्डित कृष्णबिहारी मिश्र द्वारा की गई बिहारी की प्रतिकूल आलोचना से वे क्षुब्ध हो गए और 'बिहारी और देव' पुस्तिका लिख कर पण्डित कृष्णबिहारी मिश्र को उनकी आलोचना का उत्तर दिया। पुस्तक में बिहारी पर लगाए गए आक्षेपों का उत्तर देते हुए बड़े कवि के पद पर बिहारी को ही बिठाने का आग्रह है इसलिए कवियों के काव्य का निष्पक्ष विवेचन नहीं हो पाया। अपने सतहीपन के कारण हिन्दी साहित्य के इतिहास में यह विवाद तुलनात्मक आलोचना का अनुकरणीय रूप तो नहीं बन सका, परन्तु इसमें रीतिकालीन काव्य की विशद् व्याख्या सामने आई जो उस साहित्य की शक्ति और सीमाओं को समझने में बहुत सहायक हुई।


आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी अपनी आलोचना में यथास्थान विभिन्न कवियों और काव्यधाराओं पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया है। उन्होंने अपने ग्रन्थ 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में हिन्दी साहित्य की विभिन्न धाराओं, साहित्यकारों और काल-खण्डों का विवेचन करते समय उनकी परस्पर तुलना भी की है। अपने मूल्यांकन में इस तुलना के आधार पर रचनाकारों और रचनाओं का मूल्य निर्धारित किया है। भक्ति-काल के कवियों सूरदास, तुलसीदास, कबीर, जायसी आदि के महत्त्व का निर्धारण करने में जहाँ उनकी मौलिक विशेषताओं को आधार बनाया गया है, वहीं इनकी पारस्परिक तुलना को भी ध्यान में रखा गया है। इतना ही नहीं, \

काव्य रूपों की तुलना भी कवियों के मूल्यांकनका आधार बना है। तुलसी और जायसी की महानता सिद्ध करने में अन्य बातों के अतिरिक्त प्रबन्ध-काव्य भी एक मुख्य तत्त्व रहा है। कवियों पर अपने निष्कर्षों में प्रायः उनकी भाषा भी तुलनात्मक रहती थी। उनकी आलोचना में भाव, भाषा, व्यंजना और विचार की अभिव्यक्ति और रूप- शैली आदि की तुलना के आधार पर 'जैसा इसमें है वैसा और किसी में नहीं' अथवा 'उस जैसा इसमें नहीं' का भाव सर्वत्र दिखाई देता है।


शुक्ल जी के बाद पण्डित शान्तिप्रिय द्विवेदी ने भी अपनी आलोचना में तुलनात्मक पद्धति को अपनाया है।

उन्होंने छायावादी कवियों के विवेचन में प्रसाद और निराला, निराला और पंत, पंत और श्रीधर पाठक तथा पंत और महादेवी वर्मा आदि के काव्य की विशेषताओं को तुलनात्मक रूप से देखते हुए अपनी मान्यताएँ सामने रखी हैं। साहित्य के विभिन्न अंगों जैसे भाव, भाषा, छन्द और रस आदि की दृष्टि से प्रसाद और निराला की तुलना करते हुए उन्होंने बताया कि इन दोनों कवियों की भाषा में पारुष्य है, परिष्कार नहीं। निराला सभी रसों के कवि हैं जबकि प्रसाद में शृंगार रस की प्रमुखता है। निराला मुक्त छन्द के कवि हैं और प्रसाद अतुकान्त छन्द के कवि हैं।

दोनों की कविता की विभिन्न आधारों पर तुलना करते हुए उन्होंने देखा कि दोनों कवियों में शब्दों और छन्दों के स्तर पर नूतनता और भावों के स्तर विविधता है। महादेवी और पंत की कविताओं की तुलना करते हुए द्विवेदी ने कहा है कि पंत प्रवृति प्रधान कवि हैं और महादेवी की कविता में निवृत्ति की प्रमुखता है। द्विवेदी जी ने तुलनात्मक आलोचना के माध्यम से साहित्यकारों की रचनाओं की विशेषताओं के साथ-साथ उनके वैचारिक दृष्टिकोण और जीवन-दर्शन को भी हमारे सामने प्रकट किया है।


आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचना में भी तुलनात्मक आलोचना के पर्याप्त उदाहरण देखे जा सकते हैं।

तुलसी, सूर और कबीर आदि कवियों के काव्य के विवेचन में पारस्परिक तुलना भी उनके मूल्यांकन का एक मुख्य आधार है।


छायावादी काव्य के मूल्यांकनके अन्तर्गत कई आलोचकों ने कवियों की तुलना को अपनी आलोचना में अपनाया है। आचार्य शुक्ल ने निराला, प्रसाद, पंत और निराला की रहस्य-भावना की तुलना के आधार पर उन्हें दो श्रेणियों में बाँटा है। इन कवियों के काव्य के विवेचन में भी यथास्थान पारस्परिक तुलना के आधार पर उनका महत्त्व बताया गया है। आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने 'प्रसाद', 'पंत' और 'निराला' को ऐतिहासिक दृष्टि से हिन्दी साहित्य में युगान्तर उपस्थित करने वाली वृहत्त्रयी कहा है। इनमें भी जयशंकर प्रसाद का कार्य सबसे अधिक विशेषता समन्वित माना है।

कवियों और काव्य प्रवृत्तियों की तुलना के साथ-साथ हिन्दी साहित्य में आलोचकों की तुलना की प्रवृत्ति भी देखी जाती है। आचार्य शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचना- दृष्टि को लेकर हिन्दी के आलोचकों में तुलनात्मक दृष्टिकोण देखा जा सकता है। डॉ. रामविलास शर्मा और डॉ. नामवर सिंह ने इन दोनों आलोचकों की तुलना के आधार पर उनके योगदान को रेखांकित किया है। डॉ. निर्मला जैन की आलोचना, विशेष रूप से उनकी पुस्तक 'रस सिद्धान्त और सौन्दर्य शास्त्र में तुलनात्मक आलोचना का निर्वाह हुआ है। इस प्रकार तुलनात्मक आलोचना हिन्दी आलोचना की एक प्रवृत्ति बनी हुई है।