हिन्दी साहित्य और ऐतिहासिक आलोचना - Hindi literature and historical criticism
हिन्दी में ऐतिहासिक आलोचना के विकास में रामचन्द्र शुक्ल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ० रामकुमार वर्मा, डॉ. भगीरथ मिश्र, नलिन विलोचन शर्मा आदि के नामों का उल्लेख किया जा सकता है। आचार्य शुक्ल ने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' लिखते हुए पर्याप्त रूप से ऐतिहासिक दृष्टिकोण अपनाया है। इसी से उनकी आलोचना सुव्यवस्थित और सुसंगत आलोचना बन सकी है। साहित्य के काल विभाजन से लेकर साहित्यकारों और कृतियों के विवेचन में शुक्ल जी ने वैज्ञानिक ढंग से इतिहास का सहारा लेकर अपना विवेचन सामने रखा है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'हिन्दी साहित्य का आदिकाल', 'हिन्दी साहित्य की भूमिका' तथा 'हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास' आदि पुस्तकों में ऐतिहासिक दृष्टि से हिन्दी साहित्य का विवेचन किया है।
उन्होंने कबीर और नाथ सम्प्रदाय का बहुत गम्भीरता के साथ अन्वेषण कर उसका साहित्यिक मूल्य स्थापित किया है। द्विवेदी जी की मान्यता है कि किसी लेखक का साहित्यिक स्थान निर्धारित करने के लिए क्रमागत सामाजिक, सांस्कृतिक और जातीय निरन्तरता को दृष्टिगत रखना आवश्यक होता है। उन्होंने हिन्दी साहित्य को सही ढंग से समझने के लिए संस्कृत, पालि, प्राकृत एवं अपभ्रंश आदि पूर्ववर्ती साहित्य-परम्पराओं की जानकारी और हिन्दी साहित्य के साथ उनके सम्बन्ध को समझने की आवश्यकता प्रतिपादित की है। पण्डित विश्वनाथ मिश्र ने 'भूषण ग्रन्थावली' और आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने 'उत्तरी भारत की सन्त परम्परा' जैसे ग्रन्थों में ऐतिहासिक आलोचना का परिचय दिया है।
आलोचकों के एक दूसरे वर्ग ने साहित्य का इतिहास लिखकर इस आलोचना-पद्धति के विकास में अपना योगदान दिया है। डॉ॰ रामकुमार वर्मा ने 'हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' में हिन्दी साहित्य के आदिकाल और भक्तिकाल का ऐतिहासिक दृष्टि से विवेचन किया है। डॉ. भगीरथ मिश्र ने 'हिन्दी काव्यशास्त्र का इतिहास' और 'हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास' जैसी पुस्तकों में अपनी ऐतिहासिक दृष्टि का परिचय दिया है। नलिन विलोचन शर्मा ने 'साहित्य का इतिहास-दर्शन' जैसी पुस्तकों में यह माना है कि साहित्य के इतिहास को लिखने के लिए इतिहास की आधारभूत सामग्री, इतिहास विषयक अवधारणा और आलोचनात्मक दृष्टिकोण का होना आवश्यक है।
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