हिन्दी साहित्य और व्यक्तिवादी आलोचना - Hindi literature and individualistic criticism
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने पूँजीवाद को व्यक्तिवाद की उत्पत्ति का कारण माना है तथा उसे एक रोग कहकर उसकी आलोचना की है। उन्होंने लिखा है कि "इन बहुत सी वाद-व्याधियों का प्रवर्तक है व्यक्तिवाद, जो बहुत पुराना रोग है। पुराने रोग जल्दी पीछा नहीं छोड़ते... व्यक्तिवाद की नींव भेदभाव पर है (भेदभाव मूलतः पूँजीवाद से उत्पन्न होता है)।" हिन्दी साहित्य में व्यक्तिवाद का विकास उस सामाजिक परिस्थिति के विरुद्ध मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के रूप में हुआ जो व्यक्ति के स्वतन्त्र विकास में बाधक थी। आधुनिक हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के राजनैतिक परिवेश में हुआ जिसमें लेखक के व्यक्तित्व को विकसित होने के सुअवसर उपलब्ध नहीं थे,
इसलिए साहित्य में अन्तर्मुखी दशाओं की अभिव्यक्ति की राह आसान हुई । लेखक अपने अहम् को ही समाज का सत्य मानकर साहित्य-सृजन करने लगा। बाह्य संसार और सामाजिक परिस्थितियों से आँख चुराने के कारण उसमें आत्म- पलायन की प्रवृत्ति प्रबल हुई। अधिकांश छायावादी कवियों में व्यक्तिवादी प्रवृत्ति की यही पृष्ठभूमि है। समाज की प्रत्यक्ष अस्वीकृति के कारण प्रयोगवाद और नयी कविता में भी व्यक्तिवादी प्रवृत्ति हावी रही है। अज्ञेय के उपन्यास 'शेखर एक जीवनी' में पलायन और व्यक्तिवाद के स्पष्ट संकेत हैं। जैनेन्द्र के अधिकांश उपन्यासों में व्यक्तिवादी दृष्टि व्यापक रूप में देखी जा सकती है। 'तारसप्तक' में मुक्तिबोध ने भी माना था कि "कला का केन्द्र व्यक्ति है।"
बाद में 'तीसरा क्षण' में रचना- प्रक्रिया के तीन क्षणों की स्थापना में मुक्तिबोध की व्यक्तिवादी चेतना प्रकट हुई हैं। उन्होंने माना है कि "कला का पहला क्षण जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव क्षण है।"
वैयक्तिकता या व्यक्ति की निजता प्रयोगवाद का वैचारिक आधार है। छायावाद में भी व्यक्ति की प्रधानता थी, परन्तु वह भावात्मक स्तर की वैयक्तिकता थी। प्रयोगवाद में बौद्धिक स्तर की वैयक्तिकता प्रमुखता के साथ दिखाई देती है। हिन्दी के छायावादोत्तर काल में हिन्दी साहित्य में 'व्यक्ति स्वातन्त्र्य' का सिद्धान्त साहित्य-सृजन और आलोचना के क्षेत्र में अपना स्थान बना चुका था।
इस सिद्धान्त के आधार पर साहित्य के मूल्यांकन की जो पद्धति विकसित हुई उसे 'नयी कविता' की तर्ज पर 'नयी आलोचना' नाम दिया गया। इस आलोचना में सामाजिकता के स्थान पर व्यक्ति-स्वातन्त्र्य को जीवन का सर्वोच्च मूल्य माना गया और उसी आधार पर साहित्य के नये प्रतिमान प्रस्तुत किए गए। यह विचार प्रचारित किया गया कि अपनी कमजोरी, अनुपयोगिता और लघुता के बोध से व्यक्ति अपनी शक्ति और सामर्थ्य खोकर समाज के अधीन हो गया है। व्यक्ति को अपनी बौद्धिक चेतना के बल पर इस सामाजिक अधीनता से मुक्त होना है और अपने अस्तित्व की स्वतन्त्र प्रतिष्ठा करनी है। इस दौर में अज्ञेय के लेखन का महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप रहा है।
उन्होंने पाश्चात्य साहित्य सिद्धान्तों की नवीन मान्यताओं को आधार बनाकर आधुनिक हिन्दी साहित्य के मूल्यांकन के नये तर्क और कसौटियाँ प्रस्तुत की हैं। प्रयोगवाद में व्यक्ति की अहंवादी प्रवृत्तियों को विस्तार के साथ प्रस्तुत किया गया है।
'प्रयोगवाद' और 'नयी कविता' दोनों ही काव्यधाराओं पर अज्ञेय का व्यापक प्रभाव रहा है। इन काव्यधाराओं में वैयक्तिक ईमानदारी और व्यक्ति-स्वातन्त्र्य की माँग सामाजिक दायित्व से दूरी बनाकर चलती है और चलते-चलते समाज-विरोधी चिन्तन का रूप ले लेती है। नेमिचन्द्र जैन ने लिखा है कि अज्ञेय के समस्त साहित्य में उनके व्यक्तित्व की ही मूल दुर्बलता और संकीर्णता बार-बार उभर आती है। डॉ. नामवर सिंह अज्ञेय को वैयक्तिक अनुभूति का मंत्रदाता मानते हैं।
लक्ष्मीकान्त वर्मा ने आधुनिक काव्य की व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों और उनकी पृष्ठभूमि का विश्लेषण किया है। उन्होंने लिखा है कि एक ओर व्यापक जीवन की आस्थाएँ एक सामूहिक चेतना को प्रेरणा दे रही हैं, दूसरी ओर व्यक्ति की अन्तर्मुखी चेतना उसके व्यक्ति कृति में समा जाना चाहती हैं। व्यक्तिवादी अहम् समाज के सामूहिक अहम् से समन्वय स्थापित करने के प्रयास में जीवन के तथाकथित सत्यों को नये माध्यम से देखने की चेष्टा करता है। परम्परागत समाज और मूल्यों के टूट जाने के कारण रूप शिल्प,
वस्तु-विधान और प्रबन्ध सभी में जीवन के रंगों को सार्वजनिक दृष्टि से न देखकर अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण से देखता है। उसके लिए अपना दुःख ही दुःख है और अपना सुख ही सुख है वह इससे आगे देखने की क्षमता को स्वीकार नहीं कर पाता । लक्ष्मीकान्त वर्मा कलाकार की वैयक्तिक स्वतन्त्रता और व्यक्तिनिष्ठता के समर्थक आलोचक हैं। डॉ. धर्मवीर भारती ने भी व्यक्तिवादी मूल्यों का समर्थन किया है। व्यक्तिगत मुक्ति के सम्बन्ध में उनका विचार है कि वैयक्तिकता और स्वतन्त्रता की माँग करना प्रगति स्वतन्त्रता की माँग करना है। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार भी कलाकार की मुख्य समस्या उसकी कला है, समाज नहीं।
डॉ० नगेन्द्र का आलोचकीय दृष्टिकोण भी व्यक्तिवादी है। उनकी आलोचना में सामाजिक और ऐतिहासिक परिवेश तथा युग-बोध को विवेचन का आधार बनाने की प्रवृत्ति नहीं है। इस प्रकार हिन्दी आलोचना में व्यक्ति-लेखक और व्यक्ति आलोचक दोनों ही रूपों में साहित्य का मूल्यांकन व्यक्तिवादी पद्धति से किया जाता रहा है।
लेखक के जीवन वृत्तान्त और रचनात्मक साहित्य को साक्ष्य मान कर भी हिन्दी में कई आलोचनाएँ लिखी गई हैं। इनमें ऐतिहासिक आलोचना और व्यक्तिवादी आलोचना दोनों पद्धतियों का निर्वाह हुआ है।
डॉ. रामविलास शर्मा ने 'निराला की साहित्य साधना' में निराला के जीवन-संघर्ष और उनकी विचारधारा को उनके काव्य के मूल्यांकनकी महत्त्वपूर्ण सामग्री के रूप में प्रयोग किया है। डॉ. नामवर सिंह ने 'दूसरी परम्परा की खोज' में डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के जीवन सन्दर्भों और साहित्यिक अभिव्यक्तियों को उनकी आलोचना के महत्त्वपूर्ण संकेत मानकर उनका विश्लेषण किया है। डॉ. रमेश कुंतल मेघ ने जीवनवृत्तीय साक्ष्यों के आधार पर जयशंकर प्रसाद के साहित्य का मूल्यांकन किया है। 'कलम का सिपाही प्रेमचंद पुस्तक में अमृतराय ने प्रेमचंद का मूल्यांकन उनके जीवन की परिस्थितियों के सन्दर्भ में किया है।
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