ऐतिहासिक आलोचना - historical criticism

साहित्य का विवेचन उसके आन्तरिक और बाह्य पक्षों के आधार पर किया जाता है। आलोचना में जब इन दोनों पक्षों पर उचित महत्त्व दिया जाता है तब साहित्य के सही अर्थ और स्वरूप के पूर्णतः उद्घाटित होने की सम्भावना होती है। कोई एक पक्ष छूट जाए या उसे पूरा महत्त्व न मिले तो आलोचना एकांगी हो जाती है। ऊपर आपने देखा कि व्यक्तिवादी आलोचना में साहित्य के बाहरी पक्ष को उतना महत्त्व नहीं दिया जाता है जितना लेखक, पाठक या आलोचक के व्यक्तिगत विचारों और रुचियों को दिया जाता है। आगे आप देखेंगे कि साहित्य के बाह्य पक्ष से सम्बन्धित एक आलोचना दृष्टि भी हिन्दी साहित्य में रही है जो साहित्य का मूल्यांकन ऐतिहासिक दृष्टि से करती है और साहित्य के मूल्यांकनमें ऐतिहासिक परिस्थितियों को महत्त्व देती है।


ऐतिहासिक आलोचना का अर्थ


किसी कृति की आलोचना उसकी रचना के ऐतिहासिक परिवेश के परिप्रेक्ष्य में की जाती है तो उसे ऐतिहासिक आलोचना कहा जाता है। अर्थात् ऐतिहासिक आलोचना-पद्धति इतिहास की कसौटी पर किसी रचना के विवेचन की आलोचना पद्धति है। हिन्दी साहित्य कोश के अनुसार “किसी कृति की व्याख्या करते समय रचयिता के पूर्ववर्ती तथा समकालीन इतिहास का आश्रय ग्रहण करने से ऐतिहासिक आलोचना (हिस्टोरिकल क्रिटिसिज्म) का जन्म होता है।" इस आलोचना पद्धति में कृति के मूल्यांकन के लिए उसके रचना काल से सम्बन्धित ऐतिहासिक तथ्यों को ध्यान में रखा जाता है। इसके अन्तर्गत उस समय के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक परिवेश के सन्दर्भ में रचना का विवेचन किया जाता है।


ऐतिहासिक आलोचना पद्धति में साहित्य का विश्लेषण और मूल्यांकन युगीन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में किया जाता है। साहित्य-सृजन और सम्प्रेषण में उस समय की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, दार्शनिक और धार्मिक परिस्थितियों का क्या प्रभाव रहा है, इसी के आलोक में कृति के मूल्य और महत्त्व का निर्धारण किया जाता है। इसमें रचना के मूल्यांकन में साहित्यशास्त्रीय मानदण्डों के स्थान पर युगीन परम्पराओं के निर्वाह और युगधर्म के पालन जैसे साहित्येतर मानकों पर अधिक ध्यान दिया जाता है। इस पद्धति के अन्तर्गत आलोचक रचना के विवेचन में देश-काल की परिस्थितियों के सन्दर्भ में रचना के अन्तरंग और बहिरंग का उद्घाटन करता है। उसका ध्यान साहित्य और युग के पारस्परिक सम्बन्धों को समझने में रहता है।


इतिहास-बोध और आलोचना-दृष्टि


साहित्य की व्यापक सामाजिक और ऐतिहासिक भूमिका के कारण आलोचना को 'सभ्यता समीक्षा' भी कहा गया है। किसी भी रचना का मूल्यांकन इतिहास में उसके स्थान और महत्त्व की पृष्ठभूमि में समाज पर पड़ने वाले उसके प्रभाव के आधार पर किया जाता है। इस प्रक्रिया में रचना की विषयवस्तु और रूप दोनों पर विचार करते हुए उसके महत्त्व का उद्घाटन किया जाता है । इतिहास के तथ्य वस्तुपरक होते हैं और आलोचना में आलोचक के अभिमत और व्याख्या की मुख्य भूमिका होने से उसकी प्रवृत्ति आत्मगत होती है। यद्यपि इतिहास भी पूर्ण रूप से वस्तुपरक होने का दावा नहीं कर सकता क्योंकि ऐतिहासिक तथ्यों के विश्लेषण में इतिहासकार की दृष्टि की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। आलोचना का आधार भी वस्तुपरक साहित्यिक तथ्य होते हैं।


ऐतिहासिक आलोचना में आलोचक के इतिहास-बोध और आलोचना -दृष्टि के मध्य द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध होता है। साहित्य को ऐतिहासिक प्रक्रिया का अंग मानकर उसका अध्ययन करने पर ही उसके साहित्यिक और सामाजिक मूल्य की सही परख हो सकती है। साहित्य के इतिहास और साहित्यिक आलोचना का सम्बन्ध एक अनिवार्य और अटूट सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध के टूट जाने पर इतिहास और आलोचना दोनों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। इसलिए रेने वेलेक और ऑस्टिन वारेन ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'साहित्य-सिद्धान्त' में लिखा है कि " साहित्य के इतिहासकार को इतिहासकार बने रहने के लिए भी जरूरी है कि वह साथ ही आलोचक भी हो।" इतिहास बोध के अभाव में आलोचना दिशाहीन हो जाती है और आलोचनात्मक बोध के बिना इतिहास गतिहीन बन जाता है।


साहित्य के इतिहास में रचनाओं, रचनाकारों और साहित्यिक प्रवृत्तियों और आन्दोलनों को समय-क्रम में व्यवस्थित करने के साथ-साथ उनके उद्भव, विकास और महत्त्व से सम्बन्धित अन्य सभी बातों का विवरण भी प्रस्तुत किया जाता है। इसमें किसी रचना की ऐतिहासिक परिस्थितियों को रेखांकित करते हुए उसके पूर्वापर सम्बन्धों को भी दृष्टिगत रखा जाता हैं। साहित्य के इतिहास का प्रमुख कार्य साहित्यिक कृतियों को उनके देश- काल से सम्बद्ध करते हुए परम्परा और समकालीनता के सन्दर्भ में उनका मूल्य निर्देशित करे। साहित्य के इतिहास में इस बात की खोज भी की जाती है कि साहित्य विशेष का इतिहास समाज के इतिहास से किस रूप में सम्बद्ध हैं।

कृति और कृतिकार के मध्य सम्बन्धों को रेखांकित करने के साथ-साथ युगीन परिस्थितियों के प्रति साहित्य की प्रतिक्रियाओं और उनसे उपजे पारस्परिक सम्बन्धों की पहचान साहित्य के इतिहास का कार्य क्षेत्र है। साहित्य अपने युग का प्रतिनिधि होता है। साहित्य में अपने युग की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक घटनाओं की प्रतिध्वनि सुनाई देती है। साहित्य के इतिहास में इस दृष्टि से भी रचनाओं का मूल्यांकन अपेक्षित होता है।


साहित्य किसी न किसी रूप में अपनी परम्परा से जुड़ा हुआ होता है। इसलिए वह हमारे इतिहास का अंग होता है।

ऐतिहासिक आलोचना का यह दायित्व है कि इस सन्दर्भ में साहित्य की ग्रहणशीलता की सम्भावना का निर्देश करे।

डॉ. नामवर सिंह ने परम्परा को साहित्य का एक प्रतिमान मानते हुए लिखा है कि "परम्परा इतिहास के अंदर केवल सम्बन्ध भावना नहीं, बल्कि साहित्य का एक निश्चित प्रतिमान है, इसलिए इतिहास अन्ततः समीक्षा का प्रतिमान है । ऐतिहासिक बोध वस्तुतः आलोचनात्मक बोध है ऐसा आलोचनात्मक बोध जिसे आत्मपरीक्षा के लिए हर साहित्य सतत परखता चलता है।" ('इतिहास और आलोचना')


साहित्य की विधाओं का विकास तथा उसके रूप, भाषा और शैली सम्बन्धी परिवर्तनों का अध्ययन भी साहित्येतिहास की विषयवस्तु है।

साहित्य के इतिहास लेखन की दृष्टि से इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि साहित्य इतिहास नहीं है, इसलिए साहित्य के मूल्यांकनमें ऐतिहासिक और साहित्यिक मानदण्डों का सन्तुलित उपयोग किया जाना ही श्रेयस्कर होता है। साहित्येतिहासिक आलोचक साहित्यिक घटनाओं, विलक्षण उपलब्धियों और साहित्यकारों को काल-क्रम की एक व्यवस्था में प्रस्तुत करता है, साथ ही उन सामाजिक और जीवनवृत्तीय परिस्थितियों की छान-बीन करते हुए साहित्य से उनकी सम्बद्धता का निर्देश करता है और उनके औचित्य पर भी निर्णय करता है। साहित्येतिहासिक आलोचना में किसी व्यापक जीवन-दृष्टि की आवश्यकता होती है।

जीवन मूल्यों और जीवन-दृष्टि के अभाव में साहित्य का इतिहास इतिवृत्त मात्र बनकर रह जाता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में लोक-मंगल की दृष्टि से हिन्दी साहित्य के इतिहास को प्रस्तुत किया है। कवियों और काव्य प्रवृत्तियों के मूल्यांकन में उनकी यही दृष्टि निर्णायक रही है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने साहित्येतिहास ग्रन्थों में मानवतावादी दृष्टि को आधार बनाया है।


ऐतिहासिक आलोचना का स्वरूप


परम्परा से साहित्य को समाज का प्रतिबिम्ब माना जाता है। सामाजिक परिस्थितियाँ साहित्य-सृजन को प्रभावित और प्रेरित करती हैं।

ऐतिहासिक आलोचक लेखक के समय की उन सामाजिक ऐतिहासिक शक्तियों को खोजने का प्रयास करता है, जिनमें उस साहित्य का सृजन हुआ है। इस प्रकार साहित्य और इतिहास में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। इतिहास मनुष्य के जीवन की उपलब्धियाँ और सीमाएँ बताता है। वह सामाजिक परिस्थितियों के बनने-बिगड़ने और मानवीय प्रयासों की सफलताओं और असफलताओं का प्रामाणिक लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है । साहित्य में इन्हीं गतिविधियों का चित्रण किया जाता है। साहित्य को पढ़कर हम उस युग-विशेष के समाज और मानवीय जीवन की जानकारी प्राप्त करते हैं जिसके सन्दर्भ में उस साहित्य की रचना हुई है।

साहित्यिक कृतियाँ ऐतिहासिक दस्तावेज़ तो नहीं कही जा सकतीं, लेकिन उनसे इतिहासकार दिशा प्राप्त कर सकते हैं। साहित्य मनुष्य के अतीत को समझने की एक दृष्टि देता है।


आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि "जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है।

आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य- परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही 'साहित्य का इतिहास' कहलाता है। जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनैतिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है। अतः कारण-स्वरूप इन परिस्थितियों का किंचित् दिग्दर्शन भी साथ-ही-साथ आवश्यक होता है।" ("हिन्दी साहित्य का इतिहास' )


समाज और साहित्य के पारस्परिक सम्बन्धों की विशेषता यह है कि जहाँ दोनों एक-दूसरे को किसी न किसी रूप में प्रभावित करते हैं वहीं साहित्य की स्वायत्तता का प्रश्न भी साहित्य के इतिहासकार के सामने आता है।

डॉ. नामवर सिंह साहित्यिक आलोचना में ऐतिहासिक दृष्टि के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि "आलोच्य वस्तु साहित्यिक कृति और उसमें अंकित सामाजिक यथार्थ है। सामाजिक पृष्ठभूमि का उपयोग उस सामाजिक यथार्थ को समझने तथा परखने के लिए होना चाहिए। ... सही तरीका यह है कि साहित्यिक कृति के सामाजिक यथार्थ के विश्लेषण के सिलसिले में यथास्थान अन्य साधनों से प्राप्त सामाजिक सामग्री का उपयोग किया जाये।" ('इतिहास और आलोचना')


ऐतिहासिक आलोचना में मुख्यतः साहित्य के दो पक्षों पर अधिक ध्यान दिया जाता है। पहला पक्ष है उस कृति के माध्यम से इतिहास के काल-विशेष के बारे में जानकारी प्राप्त करना ।

साहित्य के माध्यम से उसमें उल्लिखित शासकों, शासन प्रणालियों, धार्मिक मान्यताओं, सामाजिक रीति-रिवाजों, आर्थिक प्रणालियों और रहन-सहन के तौर-तरीकों आदि को जानने-समझने में सहायता मिलती है। उदाहरणार्थ, प्रेमचंद के उपन्यासों में सामन्ती साम्राज्यवादी व्यवस्था में जी रहे ग्रामीण और किसान जीवन की प्रामाणिक जानकारी हमें मिलती है। इसी प्रकार जयशंकर प्रसाद के नाटकों को पढ़कर बौद्धकालीन और गुप्तकालीन भारत में सामाजिक जीवन के स्वरूप के बारे में हम जान सकते हैं।


दूसरा पक्ष है ऐतिहासिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में कृति विशेष का मूल्यांकन कर उसके महत्त्व का प्रतिपादन करना ।

इसमें इतिहास के सन्दर्भ में किसी साहित्यिक रचना में अभिव्यक्त घटनाओं, पात्रों और सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों की व्याख्या की जाती है। इतिहास के ज्ञात तथ्यों के साथ साहित्यिक रचना में अभिव्यक्त ऐतिहासिक बातों की समानता या असमानता के आधार पर कृति के साहित्यिक मूल्य का निर्धारण किया जाता है। जायसी कृत 'पद्मावत' में किसी पूर्व प्रचलित कथा के आधार पर ऐतिहासिक पात्रों को कुछ मिलते-जुलते रूपों में प्रस्तुत किया गया है। यह रचना एक साहित्यिक कृति है, जिसमें कल्पना और इतिहास के मेल से मनुष्य के मनोभावों और प्रकृति के साथ उसके सम्बन्धों का चित्रण किया गया है।

इसे सामान्य लोगों ने ही नहीं, कई इतिहासकारों ने भी ऐतिहासिक प्रमाण मान लिया है और उसी आधार पर राजस्थान के मध्यकालीन इतिहास को प्रस्तुत किया है। साहित्य और इतिहास की सही समझ और दोनों में भेद कर सकने के विवेक के अभाव में साहित्य और इतिहास दोनों के सम्बन्ध में भ्रान्तियाँ पैदा हो जाती हैं।


ऐतिहासिक पद्धति से साहित्यिक रचनाओं के मूल्यांकन में इस प्रकार की समस्याएँ आती ही हैं। इसलिए कुछ आलोचकों का मत है कि ऐतिहासिक आलोचना युग-जीवन को समझने में तो अवश्य सहायक होती है,

परन्तु इसमें ऐतिहासिक परिस्थितियों पर अधिक बल दिए जाने के कारण कृति पर पूरा ध्यान नहीं दिया जाता है, इसलिए उसके साहित्यिक महत्त्व और मूल्य की सही परख इस पद्धति में नहीं हो पाती है। इस पद्धति का प्रयोग करने वाले आलोचक को कृति में अभिव्यक्त साहित्यिक और साहित्येतर पक्षों की सावधानीपूर्वक पहचान करने के बाद ही उस पर अपना निर्णय देना चाहिए, केवल इतिहास को ही देखने से इतिहास की व्याख्या में तो भ्रम उत्पन्न होता ही है, कृति के सही मूल्यांकनमें भी अवरोध पैदा हो जाता है।


ऐतिहासिक आलोचना का महत्त्व


ऐतिहासिक आलोचना पद्धति का मुख्य लक्ष्य जिस युग में या जिस युग के सम्बन्ध में कृति-विशेष की रचना हुई है उस युग की शक्तियों को पहचान कर व्यक्तिगत और सामाजिक रूप से मनुष्य के संघर्ष को दिखाना हैं।

इसमें यह देखने का अवसर मिलता है कि लेखक ने अपने युग से क्या ग्रहण किया है और उसे किस रूप में प्रस्तुत किया है। डॉ. नामवर सिंह ने लिखा है कि "समाज ने साहित्य को उत्पन्न किया है, साहित्य ने समाज को नहीं। इसलिए साहित्य का इतिहास समझने के लिए समाज के विकास का ज्ञान आवश्यक है। ... समाज से एक बार उत्पन्न हो जाने के बाद साहित्य स्वयं सामाजिक शक्ति बन जाता है और समाज के विकास में योग देता है। " ('इतिहास और आलोचना')


इतिहास ठोस तथ्यों को ही अपनी सामग्री मानता है, साहित्य में मनुष्य जीवन के सूक्ष्म विवरण होते हैं, उसके भावों और विचारों का उत्थान और पतन दिखाया जाता है।

प्रेमचंद के उपन्यास ठोस इतिहास नहीं हैं, लेकिन उनमें ब्रिटिश काल के भारतीय समाज का सजीव चित्रण है। उसमें अंग्रेजों के शोषण और सामन्ती दमन के चित्र हैं, किसानों, दलितों और स्त्रियों के दुःख-दर्द और उनकी आकांक्षाएँ हैं, राजनीति और समाज-व्यवस्था की मक्कारियाँ और षड्यंत्र हैं। ये सब देखने के लिए आलोचक को ऐतिहासिक आलोचना का सहारा लेना होगा । रचनाकार का जीवन और व्यक्तित्व रचना-प्रक्रिया तथा रचना के कथ्य और शिल्प को प्रभावित करता है । साहित्य में रचनाकार के व्यक्तित्व की विशेषताएँ बताने वाले अनेक तत्त्व उपलब्ध होते हैं।

इस आधार पर कृति और कृतिकार परस्पर जुड़े हुए होते हैं। ऐतिहासिक आलोचना इस दृष्टि से भी साहित्य के इतिहास को प्रस्तुत करती है।


हिन्दी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कवियों के काव्य-मूल्य का निर्णय ऐतिहासिक परिस्थितियों को ध्यान मैं रखकर किया है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनी आलोचना में इस पद्धति का प्रयोग सबसे अधिक किया हैं। हिन्दी के अन्य कई आलोचकों ने भी साहित्यिक रचनाओं का विश्लेषण और मूल्यांकनइस पद्धति के आधार पर किया है। साहित्यिक विधाओं और काव्य रूपों के विकास को समझने की दृष्टि से यह विधि बहुत उपयोगी मानी जाती है।