आत्मसंघर्ष का कथ्य - story of self struggle

निराला- कृत 'राम की शक्ति-पूजा' कृतिवास से प्रभावित है किन्तु इसमें पर्याप्त अन्तर भी विद्यमान है। जैसे कृतिवास की कथा पौराणिकता से पूर्णतः युक्त है, अतः अर्थ की भूमि में वह सपाट है। वहीं 'राम की शक्ति- पूजा' में कथा आधुनिकता से युक्त होने के साथ अर्थ की कई भूमियों को स्पर्श करती है। इसके संश्लिष्ट भावबोध में एक से अधिक अर्थ स्तर छिपे हुए हैं, इसमें निराला ने युगीन चेतना और संघर्ष का मनोवैज्ञानिक धरातल पर प्रभावशाली चित्रण किया है। उनकी इसी मौलिकता के कारण यह रचना कालजयी बन गई है। राजकुमार सैनी के शब्दों में "हिन्दी के महाकाव्यों में जो स्थान 'रामचरितमानस' का है,

लम्बी कविताओं में लगभग वही स्थान इस कविता का है। यदि गुण में परिणाम को पराजित करने की शक्ति है तो हिन्दी की यह एक कविता कई एक खण्ड काव्यों / प्रबन्ध काव्यों से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। इस अकेली कविता का महत्त्व उतना ही है जितना कि एक महाकाव्य का।"


राम और रावण के युद्ध के निर्णायक अन्तिम दिनों की छोटी सी कथा के सहारे राम के आत्मसंघर्ष का चित्रण करने में कवि निराला को विशेष सफलता हासिल हुई है। इसका एक विशेष कारण यह है कि 'राम की शक्ति-पूजा' में स्वयं निराला का व्यक्तित्व प्रक्षेपित हुआ है और इसी कारण बच्चन सिंह और दूधनाथ सिंह ने इस कविता को निराला के जीवनसंघर्ष और आत्मसंघर्ष की कविता माना है।

कविता की शुरुआत अँधेरे की स्थिति से हुई है - "रवि हुआ अस्त।" यह अँधेरा निराला के जीवन में भी व्याप्त है। यह निराशा वही है जो 'सरोज स्मृति' में- "दुःख ही जीवन की कथा रही / क्या कहूँ आज जो नहीं कही" के रूप में दिखाई देती है।


युद्ध से लौटते राम का जो खिन्न चित्र प्रस्तुत किया गया है वह वास्तव में प्रकाशकों द्वारा रचनाओं को लौटाए जाने और आलोचकों के कटु वाक्य-बाणों को सह कर लौटते कवि निराला की अपनी ही चेतना का चित्र है। दूधनाथ सिंह के अनुसार इस कविता में राम की शारीरिक संरचना और सौन्दर्य वैसा ही है जैसे स्वयं निराला का व्यक्तित्व था ।

निराला शारीरिक रूप से विशालकाय थे, उनकी लम्बी केश राशि और सम्पूर्ण देहयष्टि राम के इस वर्णन में साकार हो उठती है-


धनु-गुण है, कटिबन्ध स्रस्त तूणीर-धरण, दृढ़ जटा मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वक्ष पर विपुल उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार चमकती दूर ताराएँ ज्यों हों कहीं पार ।


इसी प्रकार राम की संशयग्रस्त परिस्थितियों के प्रस्तुत चित्र में भी कविवर निराला के जीवन की संशय- ग्रस्त,

खिन्न और ध्वस्त परिस्थितियों का ही चित्रण प्रतीत होता है। निराला राम के समान ही अपने समस्त प्रयत्नों की असफलता से आशंकित दिखाई देते हैं-


स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय, रह-रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय, * कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार-बार, असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार


'राम की शक्ति-पूजा' में राम के हृदय में सीता के प्रति जो गहरा और एकनिष्ठ प्रेम दिखाई देता है,

वह निराला के एकनिष्ठ गार्हस्थ्यक प्रेम का ही प्रक्षेपण है। मनोहरा देवी के प्रति निराला का प्रेम एकनिष्ठ था इसीलिए उन्होंने अल्पायु में पत्नी की मृत्यु हो जाने के उपरान्त भी पुनर्विवाह नहीं किया। उनकी यही एकनिष्ठता राम में भी परिलक्षित होती है, जो सीता की मुक्ति का आधार है- "जानकी! हाय, उद्धार प्रिया का हो न सका।"


'राम की शक्ति-पूजा' की मूलभूत समस्या है शक्ति का अन्याय के पक्ष में होना। रावण समस्त वैभव से सम्पन्न है जबकि राम वनवास में होने के कारण सुविधाओं से वंचित हैं।

इन विकट परिस्थितियों में महाशक्ति भी रावण के साथ है। निराला को भी व्यक्तिगत जीवन में आर्थिक कठिनाइयों और साहित्यिक जीवन में विरोध का सामना करना पड़ा। इन विकट परिस्थितियों में राम और निराला की हताशा स्वाभाविक है और इस हताशा को प्रकट करती यह पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-


रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर, यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर!


पश्चात्, देखने लगीं मुझे बँध गए हस्त, फिर खिंचा न धनु मुक्त ज्यों बँधा मैं, हुआ त्रस्त !

'राम की शक्ति-पूजा' में निराला जाम्बवन्त के माध्यम से राम को शक्ति की आराधना करने की युक्ति बताते हैं और इस प्रकार निराला स्वयं को ही प्रेरणा देते हैं-


आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर


तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर। रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सकता त्रस्त तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त,


महाशक्ति की आराधना का जो अनुष्ठान किया गया, वह ज्ञान और हठयोग का मार्ग है।

निराला स्वयं योगमार्ग से जुड़े हुए थे, इससे संकेत मिलता है कि उन्होंने अपने ही व्यक्तित्व का आरोपण राम पर किया है-


क्रम-क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस चक्र से चक्र मन चढ़ता गया ऊर्ध्व निरलस;


जिस प्रकार निराला सदैव ही संघर्षों से जूझते रहे, उसी प्रकार शक्ति-पूजा के राम भी निरन्तर संघर्षरत रहे। अनुष्ठान की पूर्णता के दौरान देवी दुर्गा पूजा का अन्तिम फूल उठा कर ले जाती है जो उनके अन्तिम संघर्ष का परिचायक है। निराला के जीवन में पत्नी का साथ छूट जाना,

आर्थिक अभाव के कारण पुत्री सरोज की मृत्यु हो जाना और महान् रचनात्मकता के बावजूद साहित्य क्षेत्र में स्वीकृति नहीं मिलना। ये सभी संघर्ष मिलकर निराला को उस भावभूमि पर ले जाते हैं जहाँ कोई भी व्यक्ति आत्मधिक्कार की अवस्था में आ जाता है। ऐसी स्थिति में निराला के राम या स्वयं निराला चीत्कार कर उठते हैं-


धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध, धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध ।


शक्ति-पूजा के राम की तरह निराला भी कभी ना हारने वाले पुरुषार्थी थे।

यही कारण है कि राम सीता मुक्ति के अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए कभी न थकने वाली मनःस्थिति में पहुँच जाते हैं-


वह एक और मन रहा राम का जो न थका, जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय ।


स्पष्ट है कि 'राम की शक्ति-पूजा' निराला के आत्मसंघर्ष की कथा है, वह निराला जो 'सरोज स्मृति' में जीवन के संघर्षों से जीत नहीं पाए, 'राम की शक्ति-पूजा' में राम बनकर विजयी हुए। इस रूप में यह कविता राम की विजय यात्रा के साथ-साथ निराला की विजय यात्रा है। इसके नायक 'पुरुषोत्तम नवीन' राम स्वयं निराला हैं, जो नयी शक्ति और नये ओज से युक्त हैं।


प्रासंगिकता


'राम की शक्ति-पूजा' निराला की कालजयी रचना है, जिसमें रामकथा के एक अंश को नये शिल्प और कलेवर में ढाल कर प्रस्तुत किया गया है। कविवर निराला ने प्राचीनकाल से विख्यात रामकथा के संकटपूर्ण स्थल - 'रावण के साथ युद्ध में राम की निराशा का चुनाव किया और अपनी सृजनात्मक कल्पना के माध्यम से उसमें पौराणिक वातावरण की सृष्टि करने के साथ ही नयी अन्तर्वस्तु का समावेश किया। स्पष्ट है कि 'राम की शक्ति- पूजा' पौराणिक आख्यान की आवृत्ति भर नहीं है वरन् उसमें निहित सत्य को आधुनिक परिवेश के अनुसार बदलकर नवीनता के साथ प्रकट करने का प्रयास भी है।

यह कथानक अप्रत्यक्ष रूप से अपने रचनाकाल के दौरान हुए विश्वयुद्ध की ओर संकेत करता है। इस समय भारत में स्वाधीनता संग्राम निरुत्साहिता के दौर में था । स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणी नेताओं और देश की आम जनता का हृदय पराजय के बोध से भारी था। ऐसे समय में राम के प्रतीक का चयन बेहद प्रभावशाली ढंग से करते हुए निराला ने हताश भारतीय जनमानस में आशा का संचार करने का प्रयास किया है।


कोई भी व्यक्ति, घटना या प्रसंग किसी अन्य काल में पूर्णतः प्रासंगिक नहीं हो सकता है वरन् उसमें कल्पना के माध्यम से हस्तक्षेप करते हुए

प्रासंगिक बनाया जाता है। निराला ने भी राम के मिथक में कई परिवर्तन किए, जो 1936 के भारत की आवश्यकता के अनुरूप थे। इसके कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं-


निराला ने राम को देशभक्ति और राष्ट्रीयता की भावना के रूप में प्रस्तुत किया है तो रावण को अंग्रेजी शासन की क्रूरता, अनीति और अत्याचार के रूप में प्रस्तुत किया है। जब राम कहते हैं " मित्रवर, विजय होगी - न समर" तो यह देश की निराशाजनक स्थिति का ही सूचक है। निराशा के इन क्षणों से उबरने के लिए निराला ने शक्ति की मौलिक कल्पना की है,

जो इस बात की सूचक है कि केवल सत्य और न्याय के मार्ग पर चलना ही पर्याप्त नहीं वरन् किसी भी देश के लिए शक्ति का संचय होना भी अनिवार्य है तभी वह दासता की जंजीरों को तोड़ सकता है- "हे पुरुष सिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण" स्पष्ट है कि संघर्ष के क्षणों में बिना शक्ति और पौरुष के सफलता मिलना अत्यन्त मुश्किल है और यह सन्देश भारत की परतन्त्रता के समय प्रेरणा का स्रोत रहा। निराला ने शक्ति-साधना के लिए राम को योग प्रक्रिया का प्रयोग करते हुए चित्रित किया है। यह प्रक्रिया आन्तरिक शक्ति की ओर संकेत करती है, जो तत्कालीन स्वतन्त्रता संग्राम की दृष्टि से अत्यन्त प्रासंगिक और अनिवार्य प्रतीत होती है।


इसी प्रकार कविता में हनुमान की उपस्थिति यह दर्शाती है कि तत्कालीन भारतीय जनता के पास इतनी शक्ति थी कि वह अंग्रेजी शासन को हरा सके। किन्तु आवश्यकता थी तो इस बात की कि उस शक्ति को संयोजित करके उसका समुचित प्रयोग किया जाए। 'राम की शक्ति-पूजा' में राम का सीता के प्रति जो प्रेमभाव दर्शाया गया है वह आधुनिक समतामूलक समाज में नारी-पुरुष के सम्बन्धों का प्रतीक है। वाल्मीकि, तुलसी और कृतिवास की रामायण में नारी को वह सम्मान नहीं मिला, जो निराला ने 'राम की शक्ति-पूजा' में अपनी मौलिकता के माध्यम से प्रस्तुत किया ।

>नन्दकिशोर नवल का दावा है कि इस कविता का केन्द्रीय भाव 'सीता की मुक्ति' है और सीता के प्रतीक के माध्यम से 'नारी की मुक्ति' है। सीता इस सम्पूर्ण युद्ध और शक्ति-पूजा का मूल उद्देश्य ही नहीं वरन् कथा के हर मोड़ पर सक्रिय रूप से उपस्थित हैं।

कविता के अन्त में - " होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन ! कह महाशक्ति राम के बदन में हुई लीन" राम के मुख में शक्ति को लीन होते दर्शाया गया है, जबकि रावण को शक्ति की गोद में बैठे हुए दर्शाया गया है।

यह इस बात का प्रतीक है कि शक्ति का सम्बन्ध नैतिकता के साथ आन्तरिक होता हैं, जबकि अनैतिकता के साथ मात्र बाह्य रूप में विद्यमान रहती है।


वर्तमान युग भी विभिन्न विषम और नकारात्मक परिस्थितियों से परिपूर्ण है । अनैतिक आचरण, अराजकता, कुरीतियाँ, भ्रष्टाचार जैसी अनेक काली शक्तियों के समक्ष सदाचारी जनमानस विवश प्रतीत होता है। इन परिस्थितियों में 'राम की शक्ति-पूजा' हमें पुरुषार्थ की प्रेरणा देती है, जिससे हम इन विकट परिस्थितियों का निडर होकर सामना कर सकें।

गहन निराशा के अन्धकार में भी आस्तिकता, आस्थावादिता और आशा का दामन थामे रहने की प्रेरणा का स्वर हमें 'राम की शक्ति-पूजा' में सुनाई देता है। निराला का यह दृढ़ विश्वास है कि अडिग शक्ति और अदैन्य भाव से संघर्षरत रहने वाला, अन्ततः विजय अवश्य प्राप्त करता है। उनका यह विश्वास हमें भी निष्काम कर्म करने की प्रेरणा प्रदान करता है। इस प्रकार निराशा पर विजय प्राप्त कर शक्ति का संचार करने और बुरी शक्तियों पर अपने पौरुष-बल से विजय प्राप्त करने का सन्देश देने वाली 'राम की शक्ति-पूजा' अपने रचनाकाल में ही नहीं वरन् वर्तमान काल में भी प्रासंगिक प्रतीत होती है।

डॉ० रामकिशोर के अनुसार 'राम की शक्ति-पूजा' की कथा योजना में किसी तरह का रूपात्मक विधान न होते हुए भी राम के संघर्ष में कवि और युग दोनों का संघर्ष बखूबी अभिव्यंजित हो जाता है।


से नवीन आयाम प्रस्तुत किए हैं। छायावादी कवियों ने परम्परा के प्रति विद्रोह करते हुए द्विवेदीयुगीन साहित्यिक प्रवृत्तियों (इतिवृत्तात्मकता, आदर्शवाद, उपदेशात्मकता) को त्यागकर प्रेम, प्रकृति और मानवीय सौन्दर्य की स्वानुभूतिमयी रहस्यपरक सूक्ष्म अभिव्यंजना की ।


जयशंकर प्रसाद सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानन्दन पन्त तथा महादेवी वर्मा को छायावाद के चार आधार स्तम्भ के रूप में स्वीकार किया जाता है।

इनके महत्त्व को प्रकट करते हुए रामधारीसिंह 'दिनकर' ने लिखा है - "छायावाद में जो कुछ भी सुन्दर और साखान् था, वह मुख्यतया हिन्दी के चार कवियों में विभक्त हुआ । उसकी दार्शनिकता प्रसाद के हाथ लगी तथा पौरुष निराला को मिला। पन्त ने उसकी प्रभावी अरुणिमा, गन्ध और ओस को ग्रहण किया और महादेवी के हिस्से आई उसकी धूमिलता, जिससे उनकी आध्यात्मिक विरह की कल्पना और भी गम्भीर हो गई।" छायावाद के चतुष्टय कवियों में से जयशंकर प्रसाद और सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' के सन्दर्भ में आप प्रस्तुत पाठ्यचर्या में पूर्व की इकाइयों में विस्तृत अध्ययन कर चुके हैं। प्रस्तुत इकाई में आप सुमित्रानन्दन पन्त और उनके द्वारा रचित कविता 'परिवर्तन' का विस्तृत अध्ययन करेंगे।