खड़ी बोली का विकास - Evolution of vertical dialect
खड़ीबोली अपने मूलरूप में एक मिश्रित बोली है जिसमें कौरवी के साथ पंजाबी, बाँगरू एवं ब्रज के तत्त्व भी अपने मूलरूप या परिवर्तित रूप में समाहित हैं। खड़ीबोली मध्यप्रदेश के भाषारूपों पर आधारित है । उत्पत्ति की दृष्टि से इसे शौरसेनी अपभ्रंश या उसके सन्धिकालीन रूप शौरसेनी अवहट्ट से सम्बन्धित किया जा सकता है।
भाषा के रूप में खड़ीबोली हिन्दी का अस्तित्व सन् 1900 ई. के आसपास मिलने लगता है। उल्लेखनीय है कि हिन्दी आम आदमी की ज़रूरत की भाषा के रूप में उत्पन्न हुई इसलिए उसके विकास का इतिहास भारत की लोकचेतना के विकास से जुड़ा रहा।
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हिन्दी के प्रथम महाकवि चन्दवरदाई ने उसे 'षट्रभाषा' कहा है यानी यह विभिन्न प्रदेशों एवं स्रोतों से बनी हुई सामासिक देश की सामासिक भाषा है। यह अकारण नहीं है कि साझी संस्कृति के महत्त्वपूर्ण कवि अमीर खुसरो ने हिन्दी को अपनी मातृभाषा कहा। उन्होंने न केवल इस भाषा को अपनी काव्य-रचनाओं का माध्यम बनाया प्रत्युत इसके गाम्भीर्य और माधुर्य पर गर्व भी किया।
खड़ीबोली का आदिकालीन रूप गोरखनाथ, खुसरो, रामानन्द, कबीर, नामदेव आदि के साहित्य में उपलब्ध है। आदिकालीन खड़ीबोली का शब्द-समूह मुख्यतः तद्भव और देशज था । वहाँ तत्सम शब्द अपेक्षाकृत बहुत कम थे।
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उसमें पश्तो, तुर्की, फ़ारसी, अरबी के कुछ शब्द स्वभावतः शामिल थे। खड़ीबोली के मध्यकाल का स्वरूप कवि गंग की 'चन्द छन्द वर्णन की महिमा', आलम के 'सुदामा चरित्र' तथा नानक, दादू व रहीम के साहित्य में दिखाई देता है। इस काल के अन्त तक हिन्दी ध्वनियों में पाँच नयी ध्वनियाँ भी शामिल हो गई क, ख, ग, ज, फ मध्यकाल तक खड़ीबोली स्वतन्त्र रूप से साहित्यिक भाषा के रूप में विकसित नहीं हो सकी थी। 19वीं शताब्दी में खड़ीबोली साहित्यिक भाषा के रूप में विकसित हुई। खड़ीबोली के विकास के अनेक ऐतिहासिक कारण थे जिनका विश्लेषण निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है-
(1) आधुनिक भावबोध का सूत्रपात : भारतीय इतिहास में उन्नीसवीं सदी आधुनिकता के प्रस्थान-बिन्दु के रूप में मान्य है। ;
अंग्रेजी साम्राज्य का उपनिवेश बनने के बाद भारत की परम्परागत आर्थिक एवं राजनैतिक व्यवस्था में आधारभूत परिवर्तन हुए, जिनका दूरगामी असर जीवन पर पड़ा। हजारों वर्षों की कृषि संस्कृति के आकाश में चिमनियों व कारखानों का धुआँ उठा। नगरीकरण का नये ढंग से सूत्रपात हुआ। गाँवों में विस्थापन की प्रक्रिया का चलन आरम्भ हुआ। जीवन पुरानी धुरी से उतर गया। भारतीयों का अंग्रेजों से सम्पर्क एक नितान्त नया अनुभव था। यूरोप का संसार चकित करने वाला और ज्ञान विज्ञान के प्रति आकर्षित करने वाला था। डार्विन, मार्क्स व फ्रायड की स्थापनाएँ धर्मप्राण और आस्थाशील भारतीय मन को झकझोरने वाली थीं।
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इन सभी स्थितियों के जटिल दबाव से जिस नयी चेतना का आरम्भ हुआ, उसमें इतिहास की पुनर्व्याख्या अपनी अस्मिता का आत्ममंथन एवं पश्चिमी संस्कृति से खुले संवाद के लिए दबाव बना और इसी दबाव के भीतर से आधुनिक भावबोध विकसित हुआ। इस आधुनिक भावबोध और खड़ीबोली के बीच एक गहरा सम्बन्ध है।
भाषाचिन्तकों का मानना है कि ब्रजभाषा मध्यकालीन भावबोध की भाषा है। यह भक्ति आन्दोलन से उपजे जीवन-मूल्यों और बाद में दरबारी संस्कृति की अभिव्यक्ति की भाषा है। स्पष्ट है कि मध्यकालीन भावबोध को व्यंजित करने वाली भाषा से इस आधुनिक युग के भावबोध को अभिव्यक्त करने की क्षमता नहीं रह गई थी।
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मध्ययुग के नेपथ्य में जाने के साथ उसकी भाषा भी उसी के साथ चली गई और वर्तमान के मंच पर खड़ीबोली हिन्दी का उदय हुआ। हिन्दी साहित्य में इस आधुनिक भावबोध की अभिव्यक्ति भारतेन्दु युग के गद्य साहित्य में हुई। मानवीय वर्तमान की केन्द्रीयता इस आधुनिकता की धुरी है। यद्यपि इस युग में खड़ीबोली का मानक रूप स्थिर नहीं हो सका तथापि इतना स्पष्ट हो गया कि आने वाले समय में खड़ीबोली ही सर्जना व चिन्तन की भाषा बनेगी।
(2) ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना उन्नीसवीं शताब्दी में खड़ीबोली के विकास का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना भी था। ब्रिटिश शासन की स्थापना का एक छोर मुगल साम्राज्य के पतन से भी जुड़ा हुआ है।
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आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ग्रन्थ 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में यह स्वीकार किया है कि मुगल साम्राज्य के पतन के कारण दिल्ली के व्यापारी पूर्वी क्षेत्रों लखनऊ, पटना, कलकत्ता की ओर पलायन करने लगे। उनके साथ यहाँ की खड़ीबोली भी गई। अनुकूल परिवेश पाकर वह तेजी से विकसित हुई । खड़ीबोली के प्रचार-प्रसार में व्यापार का विकेन्द्रीकरण एक महत्त्वपूर्ण कारण रहा । इस प्रकार खड़ीबोली भारत के बड़े हिस्से में सम्पर्क भाषा के रूप में विकसित हुई। उस समय के अनेक सर्वेक्षणों से ज्ञात होता है कि खड़ीबोली हिन्दुस्तान की सम्पर्क भाषा के रूप में स्थापित हो चुकी थी।
;(3) भारतीय नवजागरण की चेतना : उन्नीसवीं शताब्दी में पश्चिमी संस्कृति और भारतीय अस्मिता की टकराहट से उत्पन्न चेतना को ही नवजागरण की चेतना कहा गया है। खड़ीबोली के विकास में इस नवजागरण की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है। परम्परा की तार्किक व्याख्या, नया इतिहास बोध, जातीय अस्मिता की तीव्र चेतना एवं मानवीय मूल्यों पर आधारित एक स्वस्थ समाज की रचना का स्वप्नादि 'भारतीय नवजागरण के आधार बिन्दु थे। इन आधारों की अभिव्यक्ति खड़ीबोली के माध्यम से हुई। यह बेवजह नहीं है कि भारतीय नवजागरण के प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण चिन्तकों,
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विचारकों एवं धार्मिक नेताओं ने खड़ीबोली हिन्दी को अपनाया। उदाहरणार्थ आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 'सत्यार्थप्रकाश' की रचना हिन्दी में की थी। राजा राममोहन राय ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार की आवश्यकता को स्वीकार किया। आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रवर्तक बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भाषा के विकास का सम्बन्ध राष्ट्रीय विकास की सर्वांगता से जोड़ा "निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।" इस प्रकार भारतीय नवजागरण ने न केवल नये जीवनादर्श एवं मूल्यों को विकसित किया अपितु उन्हें अभिव्यक्ति देने वाली भाषा के रूप में खड़ीबोली हिन्दी को भी विकसित किया।
(4) फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना सन् 1800 ई. में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना कलकत्ता
;में हुई जिसका उद्देश्य अंग्रेज अधिकारियों को हिन्दी भाषा का ज्ञान कराना था। कॉलेज में हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष जॉन बार्थविक गिलक्राइस्ट ने हिन्दी के विकास में अविस्मरणीय योगदान किया। उनकी अध्यक्षता में अनेक पुस्तकों के हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हुए और कुछ मौलिक ग्रन्थों की रचना हुई। इस कार्य में उनके सहयोगियों में इंशाअल्ला खां, लल्लूलाल, सदल मिश्र और सदासुखलाल जैसे विद्वज्जनों का नाम उल्लेखनीय है। इंशाअल्ला खां की चर्चित कहानी 'रानी केतकी की कहानी' ठेठ बोलचाल की भाषा में लिखी गई है। वैसे यह कृति भाषा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण न होकर विधा की दृष्टि से अधिक चर्चित रही है। लल्लूलाल का 'प्रेमसागर, सदल मिश्र का 'नासिकेतोपाख्यान' एवं सदा सुखलाल का 'सुखसागर' खड़ीबोली के विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
;(5) राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिन्द' और राजा लक्ष्मणसिंह के प्रयास : खड़ीबोली हिन्दी के विकास में 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध के दो महत्त्वपूर्ण विद्वज्जनों राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिन्द' और राजा लक्ष्मणसिंह का योगदान महत्त्वपूर्ण है। इन्होंने स्वतन्त्र रूप से हिन्दी की दो शैलियों का विकास किया। शिवप्रसाद 'सितारे हिन्द' ने हिन्दी में उर्दूबहुल शैली को विकसित किया। साथ ही उन्होंने फोर्ट विलियम कॉलेज और सरकारी विद्यालयों के लिए अनेक पुस्तकों की रचना की जिनमें 'राजा भोज का सपना', 'इतिहास तिमिरनाशक', 'भूगोल हस्मातलक' आदि बहुचर्चित हुई। राजा लक्ष्मणसिंह ने तत्सम (संश्लिष्ट) प्रधान शैली में हिन्दी अनुवाद किया।
;(6) पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन : उन्नीसवीं शताब्दी में पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन का शुभारम्भ हुआ जिसके चलते हिन्दी भाषा को स्थापित होने में बहुत मदद मिली। इस युग की सम्पूर्ण वैचारिकता और ज्ञान के प्रचार-प्रसार का माध्यम पत्रकारिता थी। यही वजह है कि महत्त्वपूर्ण रचनाकार पत्रकार भी थे। पत्रकारिता के उदय ने हिन्दी की सम्भावनाओं के क्षितिज को विस्तार दिया। हिन्दी का पहला पत्र 'उदन्त मार्तण्ड' वर्ष 1826 ई. में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ। वर्ष 1828 ई. में कलकत्ता से ही 'बंगदूत' निकला जिसे सरकार ने बन्द कर दिया। राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिन्द' का 'बनारस अखबार वर्ष 1844 ई. में प्रकाशित होने लगा।
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सन् 1854 ई. में कलकत्ता से ही 'समाचार' नाम का दैनिक पत्र प्रकाशित हुआ। वर्ष 1873 ई. में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' के माध्यम से खड़ीबोली को साहित्यिक भाषा के रूप में विकसित करने का सफल प्रयास किया कहना सही होगा कि इन पत्र- पत्रिकाओं ने हिन्दी की रूप-रचना को बहुत हद तक व्यवस्थित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।
(7) ईसाई मिशनरियों का योगदान ईसाई धर्म के प्रचार की प्रक्रिया में मिशनरियों ने खड़ीबोली के महत्त्व और आवश्यकता को समझा। उन्होंने सरल खड़ीबोली को अपना माध्यम बनाया।
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नये संसार एवं नयी शिक्षा के व्यापक प्रसार के लिए उन्होंने पुस्तक प्रकाशन की योजना बनाई। श्रीरामपुर, मिर्जापुर, बनारस, इलाहाबाद और आगरा में 'बुक सोसाइटियों' की स्थापना की गई और अनेक स्कूल व कॉलेज खोले गए। इन सोसाइटियों ने भूगोल, इतिहास, धर्मशास्त्र, राजनीति, अर्थशास्त्र, साहित्य, ज्योतिष, चिकित्सा, विज्ञान आदि विषयों की पाठ्यपुस्तकें तैयार कराकर प्रकाशित की। बाइबिल का भी बड़े पैमाने पर हिन्दी अनुवाद कराया गया। मिशनरियों के इस प्रयास ने खड़ीबोली के विकसित होने में बहुत मदद की।
(8) भारतेन्दु एवं उनकेमण्डल का योगदान : अनेक राजनैतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों ने खड़ीबोली को आधुनिक युग की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित तो कर दिया लेकिन उसे साहित्यिक भाषा के रूप में विकसित करने का श्रेय भारतेन्दु युग के साहित्यकारों को है।
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यद्यपि इस युग की कविता की भाषा ब्रजभाषा ही रही, लेकिन गद्य की खड़ीबोली में लिखा जाना भारतेन्दु युग की रचनात्मक उपलब्धि है। इस युग में रचित गद्य साहित्य के माध्यम से ही नये युग की सम्वेदना को अभिव्यक्त किया जा सका। वस्तुतः भारतेन्दुयुग ने ही साहित्य के क्षेत्र में खड़ीबोली की वह नींव रखी जिस पर द्विवेदी युग, छायावाद युग और छायावादोत्तर युग का विशाल भवन खड़ा हो सका।
खड़ीबोली का विकास एक ऐतिहासिक अनिवार्यता थी। जीवन की तरह भाषा भी निरन्तर परिवर्तनशील है। जब भाषा जीवन के बदलावों के समानान्तर नहीं बदलती तब जीवन और भाषा के बीच गतिरोध आ जाता है।
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भाषा में परिवर्तन से ही यह गतिरोध टूट पाता है। उन्नीसवीं शताब्दी में जीवन के जिन नये आयामों का उदय हुआ, उन्हीं से खड़ीबोली भी विकसित और प्रतिष्ठित हुई। इसलिए यह महज भाषा मात्र नहीं, आधुनिक सम्वेदना और सर्जना की शर्त भी है। ध्वनि, शब्द, पद एवं वाक्य संरचना सम्बन्धी व्याकरणिक विशेषताओं के आधार पर खड़ीबोली हिन्दी के निजी विशिष्ट स्वरूप को भलीभाँति समझा जा सकता है।
किसी भाषा की व्याकरणिक विशेषताएँ मूलतः उसकी संरचना प्रविधि से सम्बन्धित होती है। भाषिक प्रयुक्तियों की संरचना एक विशिष्ट सोपानिक प्रक्रिया है।
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ध्वनि, शब्द, पद और वाक्य ही भाषिक विधान के प्रमुख स्तर स्वीकार किये जाते हैं। इन्हीं प्रमुख स्तरों का व्यवस्थित, वैज्ञानिक और संगत प्रयोगात्मक विश्लेषण ही किसी भाषा की व्याकरणिक विशेषताओं का मूल आधार है। खड़ीबोली की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. खड़ी हिन्दी की सभी ध्वनियाँ उच्चारण अवयवों के क्रमानुसार कण्ठ्य, तालव्य, मूर्धन्य, ओष्ठ्य आदि वर्गों में वर्गीकृत हैं। इनके श्रवणगोचर के अनुसार इन्हें घोष-अघोष, ओष्ठ्यविवृत-संवृत, अन्तस्थ, उष्म तथा अल्पप्राण महाप्राण आदि वर्गों में विभाजित किया गया है।
;ii. खड़ीबोली का शब्द भण्डार प्रायः तीन वर्गों में प्राप्त है रूद, यौगिक और योगरूढ़ । खड़ीबोली हिन्दी में सभी स्रोतों (संस्कृत, अंग्रेजी, फ़ारसी तथा आंचलिक) से प्राप्त शब्दों की संरचना में यह प्रवृत्ति लक्षित की जा सकती है, यथा किंकर्तव्यविमूढ़, मोटरचालक, जिलाधीश, घुसपैठिया आदि ।
iii. प्रकृति और प्रत्यय के योग से शब्दसंरचना की प्रवृत्ति खड़ीबोली की प्रमुख व्याकरणिक विशेषता है।
iv. खड़ी हिन्दी की पद संरचना व्यवस्थित, वैज्ञानिक और नियमबद्ध है।
;V.वाक्य संरचना मुख्यतः संस्कृत के अनुसार है। इसमें हमेशा कर्ता-कर्म क्रिया के क्रम का पालन होता है।
vi. विशेषण पद विशेष पद (संज्ञा) से पहले रखा जाता है, किन्तु सर्वनाम का विशेषण उसके बाद आता है, पहले नहीं।
vii. कारक सम्बन्धी विभक्ति चिह्न उसी संज्ञा या सर्वनाम पद के साथ, उसके तुरन्त बाद जुड़ता है जो उस कारक विशेष का घटक होता है।
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viii. भूतकालिक क्रिया के कर्त्ता पद के साथ यदि कारक सूचक परसर्ग न लगा हो तो उस क्रिया के लिंग वचन का रूप कार्य के अनुसार होता है, कर्त्ता के अनुसार नहीं।
ix. जिन वाक्यों में भिन्न-भिन्न लिंग और वचन वाली अनेक संज्ञाएँ होती हैं, उसमें क्रिया का रूप अन्तिम
संज्ञा पद के अनुसार होता है यथा शिकारी ने एक शेर, कई हिरण और एक हिरनी मारी। - x खड़ीबोली हिन्दी की वाक्य संरचना तीन रूपों में प्राप्त होती हैं सरल वाक्य, संयुक्त वाक्य और मिश्रित - वाक्य ।
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