ताप

ताप

ऐ मेरे अन्तरतम ताप ! मुझे तपा दे मुझे मिटा दे।


तीन तरह के पापों से सन्तप्त है यह जीवन । काम, क्रोध, लोभ आदि आध्यात्मिक ताप, हिंसक जीवादि की क्रूरता के आधिभौतिक ताप और वज्र, वर्षा, विस्फोट आदि प्राकृतिक आपदाओं के आधिदैविक ताप से झुलस रहा है मनुष्य । मनुष्य के रूप में इस पृथ्वी पर जन्म लिया है मैंने, इसलिए ताप से झुलसना जीवन का एक अभिन्न अंग मान लेना होगा। क्या बिना तपे जीवन जी लेना सम्भव है ?


आज विवाह संस्कार की होमाग्नि मुझे मोदमुग्ध करने के बदल तापदग्ध कर रही थी और मैंने उसे सहज भाव से स्वीकार भी लिया था। आज की यह अनसोची प्राप्ति मुझे पत्थर बना रही थी। अपने चंचल सपनों को विवाह के यज्ञ में मैं स्वाहा करती चली जा रही थी।


ब्राह्ममुहूर्त में आचार्य गौतम दूल्हे के वेश में और गौतम आश्रम के अन्य आचार्यगण बाराती के रूप में रम्यवन में पहुँच गए। आचार्य गौतम को दूल्हे के वेश में देखकर मैं उल्लसित नहीं हुई, न जाने क्यों सशंकित और संकुचित हो गई। आचार्यजी का वह वेश मेरी कल्पना में कभी चित्रित नहीं हुआ था। इसलिए उनके रूप के साथ वर का वेश कुछ अटपटा लग रहा था। वे होमाग्नि की तरह लग रहे थे- पवित्र किन्तु कठोर। पिताजी, भैया नारद और अन्य देवताओं ने हमारी ओर से वर और बारातियों का सादर स्वागत किया। पिताजी ने वर पक्ष को यज्ञ सम्पादन करने की अनुमति प्रदान करके हमारे घर के श्रेष्ठ के हिसाब से स्वयं ही पुरोहित का कार्य प्रारम्भ कर दिया। उसके बाद शुरू हो गया कन्या पक्ष की ओर से 'इन्द्राणी कर्म' अब मैं इन्द्राणी-सी सजी हुई थी। प्रत्येक वर इन्द्र जो होता है और प्रत्येक वधू इन्द्राणी !



जीवन में कम-से-कम एक दिन स्वयं को श्रेष्ठ समझ सभी आनन्दित होते हैं। आज गौतम हैं 'इन्द्र' और मैं 'इन्द्राणी' । 'इन्द्राणी-कर्म' के दौरान आठ सधवाएँ हम दोनों की प्रशस्ति गा-गाकर नृत्य कर रही थीं। जब उनका नाच-गाना चल रहा था, आचार्य गौतम वर के रूप में मेरे निकट आए। वे मुझे विवाह वस्त्र, अंगराग, पुष्पमाला एवं दर्पण इत्यादि विधिपूर्वक उपहार में देने वाले थे। आचार्य गौतम कैसा अभिनव उपहार मुझे देंगे, उसे देखने के लिए प्रथा के साथ उपस्थित नारियाँ जिज्ञासु हो उठीं। उपस्थित दर्शक मंडली को वर पक्ष का विवाह उपहार हमेशा रोमांचित करता है।


विवाह के समय वर पक्ष से कन्या के लिए यही प्रथम उपहार होता है। इसलिए कन्या के रूप-रंग एवं उसकी रुचि के अनुसार उसे पसन्द आने और उसे अधिक आकर्षक बनाने जैसे सोने के सलमा-सितारों से जड़े चित्र-विचित्र सुन्दर अधोवास और अधिवास उपहार में देना सम्भ्रान्त आर्य परिवार की परम्परा थी। ऊनी कपड़ों की किनारी में सोने के जरदोजी का काम करने में वैदिक नारियाँ निपुण थीं। इसलिए विवाह में उपहार देने के लिए वर पक्ष की ओर से बहुत पहले से ही सोने के सलमा-सितारे जड़े वस्त्र 'पेशस' आदेश देकर बनवाए जाते थे।

उसके साथ अत्यन्त आकर्षक कसीदाकारी से पूर्ण वक्षोवास 'प्रतिधि' आकर्षण का केन्द्र बन जाया करता था। लेकिन मेरे लिए गौतमजी का उपहार था 'मृगाजिन' (मृगछाल) मृगाजिन की गिनती एक दिव्य परिधान के रूप में होती थी। यज्ञ के समय याज्ञिकों की पत्नियों द्वारा मृगाजिन धारण करने की प्रथा थी और मृगाजिन सहजता से एवं हर समय न मिलने के कारण याज्ञिक परिवार में दुर्लभ वस्त्र के रूप में गिनी जाती थी । दीक्षा ग्रहण करते समय 'मृगाजिन' अपरिहार्य था। इसलिए अपनी पत्नी के लिए सोने के सलमा-सितारे जड़े पेशस (ऊनी वख) न लाकर उपहार में 'मृगाजिन' देकर गौतम ने उचित कार्य किया है, यह चर्चा वयस्क नारियों के बीच चल रही थी, जबकि युवतियाँ बातें कर रही थीं, "इन्द्रयोग्या अहल्या ब्रह्मचारिणी जीवन में मृगाजिन पहना करती थी, इस बारे में किसी को कुछ नहीं कहना। किन्तु मधुशय्या वाले गृह में संन्यासिन के वेश में मृगाजिन पहनकर जाना क्या सही होगा ? क्या आचार्य गौतम अहल्या को मधुशय्या की रात्रि में भी उनसे दीक्षा ग्रहण करने को बाध्य करेंगे ?" मुझ पर दृष्टि डालते हुए किसी-किसी को ऐसा कहते हुए मैंने सुना था ।


अंगराग की पेटिका खोलते ही प्रथा चौंक उठी। उसमें सुरभित अगरु, चन्दन, हल्दी, गोरचना, कुंकुम आदि होना चाहिए था। पर उसमें थी यज्ञ की राख ! और दर्पण के बदले थी एक कृष्ण-शिला। इन पदार्थों के पीछे गूढ़ दार्शनिक तत्त्व छुपे हैं, ऐसा वहाँ उपस्थित ऋषि-मुनियों एवं देवगणों को कहते सुन मैं आयास ही उदास हो गई।


प्रथा मेरे उदास भाव को देखकर धीरे-धीरे बोल रही थी, "पति सत्य हो तो पत्नी श्रद्धा है, पति भाव हो तो पत्नी वाणी है, सत्य के साथ श्रद्धा के सम्बन्ध की तरह, पति के साथ पत्नी का सम्बन्ध नित्य है । पति और पत्नी का आपसी प्रेम ही दाम्पत्य जीवन को मधुमय बनाता है। इसलिए इन उपहारों की औपचारिकता पर ध्यान मत दो। आचार्य गौतम एक नीतिनिष्ठ दार्शनिक हैं। इसलिए उनका प्रत्येक आचार-व्यवहार, विचारों का गूढ़ अर्थ समझने की चेष्टा करोगी तो तुम सुखी रहोगी। अर्थ समझे बिना उन पर दोषारोपण करने से तुम अकारण ही दुखी हो जाओगी अहल्या ! दाम्पत्य जीवन में पति-पत्नी के बीच इसी कारण दूरियाँ बन जाती हैं।


"नारी होती है मंगलमयी। तुम एक सुन्दर नारी हो और आज वधू हो। 'व' अर्थात् आनन्द को प्रकम्पित


करते हुए यदि तुम गौतम के हृदय की प्रेम तरंगों को उद्वेलित कर सर्की तो समझ लो कि 'वधू' का सही कर्त्तव्य निभा लोगी।" प्रथा मेरे कान के पास एक-एक करके सारे विधि-विधान, उचित-अनुचित, करणीय वर्जनीय बातों की


सूची बताती जा रही थी। मैं सुन रही हूँ या नहीं, उसकी ओर उसका ध्यान नहीं था ।


कन्यादान का समय आ पहुँचा। पिताजी ने मेरे मधुमय दाम्पत्य जीवन की कामना करते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे सर्वमंगलमय परमेश्वर ! मेरी इस कन्या अहल्या को मैंने जगत् की श्रेष्ठ नारी के रूप में गढ़ा है। न केवल शरीर से मैंने उसे अहल्या रूप दिया है, बल्कि नीति-नियम एवं संस्कार प्रदान करके अति यत्न से उसे विदुषी और ब्रह्मवादिनी बनाया है। उसने उपयुक्त गुरु से शिक्षा प्राप्त करके पूरी निष्ठा से ब्रह्मचारिणी जीवन का संयमपूर्वक निर्वाह किया है। उसने मन, वचन और कर्म से आज तक शुद्धपूत यज्ञमय जीवन बिताया है। गौतम जैसे तपोनिष्ठ जितेन्द्रिय महर्षि की वह उपयुक्त पत्नी बन सकती है। मेरी कन्या अहल्या का हृदय मधुमय और उसकी भावना प्रेममय है। उसके अन्तःकारण में माधुर्य का ही वास है। बचपन से मैंने उसे वेदों से मधुविद्या की ही शिक्षा दी है। गन्ने को पेरने से जिस तरह प्रतिदान में वह मधुर रस प्रदान करता है, मेरी मधुमती कन्या अहल्या भी चाहे जितना दुःख, विघ्न, विपदा एवं अश्रद्धा भोग करे, वह रुक्ष, प्रतिशोध परायण एवं हिंसक न होकर माधुर्य की धारा ही बहाएगी। यदि कभी उसे अन्याय या गलत फैसले का सामना करना पड़ा तो भी वह कटु-व्यवहार न करके अपनी देह, मन, आत्मा से मधुर प्रवाह की मन्दाकिनी प्रवाहित कर अन्याय को न्याय और विपदा को सम्पदा में बदल देगी।


"हे प्रभो ! आज मेरा परम सौभाग्य है कि सुशील, कर्मठ, जितेन्द्रिय एवं ब्रह्मवादी पुरुष महर्षि गौतम के हाथों में मैं अपनी कन्या सौंप रहा हूँ। मैं गौतम के प्रति कृतज्ञ हूँ कि उन्होंने इस दुर्लभ दान को सहृदयता से स्वीकार किया। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की आशा में आज यह नवदम्पति पवित्र गृहयज्ञ का शुभारम्भ करने जा रहा है। हे विश्वविधाता ! उनके मंगलमय दाम्पत्य जीवन में सहायक बनें। हे परमात्मा ! उनसे मेधावी, परोपकारी, दीर्घायु पुत्र पैदा होकर पृथ्वी का अशेष कल्याण करें।" इतनी प्रार्थना करके पिताजी ने नवदम्पति को पवित्र जल से अभिषिक्त किया।


न जाने किस भावना से अभिषेक कलश की जलधार से मेरी अश्रुधार अनायास मिल गई।


पिता का घर छोड़कर जाते समय कन्या की आँखों से आँसू बहना स्वाभाविक है। आँसू न बहाना नारी सुलभ आचरण नहीं। इसलिए मेरे आँसू अन्य लोगों के आनन्द उल्लास में बाधक नहीं हुए । किन्तु गौतम निर्विकार थे क्योंकि वे यतिश्रेष्ठ और जितेन्द्रिय पुरुष हैं। निर्विकार रहना यतिसुलभ आचरण है। सात्त्विक, निराडम्बर वातावरण में पाणिग्रहण की घड़ी आ पहुँची।

आचार्य गौतम ने मेरा दाहिना हाथ पकड़ा और भाव-गम्भीर स्वर में बोले, "देवि ! मैं स्वयं को सौभाग्यशाली और तुम्हें सौभाग्यवती बनाने के लिए तुम्हारा पाणिग्रहण कर रहा हूँ। देवि! तुम मेरे यौवन, बुढ़ापा और व्याधि की सहचरी बनकर रहोगी, इसलिए मैं तुम्हारा पाणिग्रहण कर रहा हूँ। यौवनकाल में पति-पत्नी के बीच भोग ही व्यवधान बना रहता है, लेकिन बुढ़ापे में पति-पत्नी के बीच निर्मल सात्विकता दोनों की आत्माओं को एकाकार करती है। आकाश और धरती की तरह हमारा सम्बन्ध चिरन्तन रहे । देवि ! तुम्हारे भाग्यशाली, न्यायशील, वेदज्ञ पिता ने तुम्हारा ब्रह्मचारिणी जीवन निर्वाह करने के लिए तुमको मुझे सौंपा था। आज गृहस्थाश्रम निर्वाह करने के लिए वे तुमको मुझे सौंप रहे हैं।


"भग, आर्यमा, सविता, पुरन्धि आदि देवगण तुमको मुझे सौंप रहे हैं। अतः मैं सभी के प्रति कृतज्ञ हूँ । है देवि ! तुम अनेक सद्गुणों से विभूषित हो। मैं ऋक् मन्त्र हूँ तो तुम हो साम् मन्त्र । हे देवि ! तुम मेरे गृह को सुशोभित करो। अपने कमनीय- रमणीय स्पर्श से मुझे दिव्य करो।"


आचार्य गौतम के ज्ञानपूर्ण मधुरवाणी में न जाने कैसा दिव्य सम्मोहन था कि उनके प्रति मेरे मन का विरोध सहसा मिट गया । सम्भवतः पवित्र विवाह संस्कार के प्रभाव ने मेरे मन के अवचेतन में स्वीकृति माँग ली थी। किन्तु गौतम का स्पर्श मेरे रक्त में उदग्र उष्णता उत्पन्न नहीं कर सका था। मैं स्निग्ध शीतल चाँदनी रात्रि-सी शान्त पड़ गई थी। ऋत्विजों द्वारा उच्चरित विवाह मन्त्र को वर-वधू द्वारा एक स्वर में उच्चारण करना विवाह-विधि है परन्तु गौतम जैसे वेदज्ञ के सामने ऐसा कौन ऋत्विज् होगा जो मन्त्रपाठ करेगा। इसलिए गौतम ने स्वयं ही मन्त्रपाठ करना प्रारम्भ कर दिया। मैं यंत्रवत् उनके स्वर में स्वर मिलाने लगी।


"जिस तरह प्राणवायु देह का निःस्वार्थ सेवक हैं, उसी तरह हम दोनों एक-दूसरे की निःस्वार्थ, निष्काम सेवा करके एक-दूसरे के विकास में सहायक होंगे। सैकड़ों विघ्न बाधाओं के बावजूद कोई किसी का परित्याग नहीं करेगा। वृक्ष जैसे धरती को आश्रय बनाता है उसी तरह हम एक-दूसरे पर आश्रित रहकर प्रीतिपूर्वक जीएँगे। यह संसार विघ्न-बाधाओं भरी पथरीली नदी के समान है। पहाड़ी नदी के प्रखर प्रवाह में अकेले नदी पार करना अत्यन्त कष्टदायी है इसलिए पथिक एक-दूसरे का हाथ पकड़कर निर्विघ्न नदी पार करते हैं। संसार रूपी नदी को पार करने के लिए हम दोनों एक-मन, एक प्राण हों। काम-क्रोधादि आवेग रूपी बोझ ढोते हुए संसाररूपी नदी के तेज प्रवाह को पार करना कष्टसाध्य होने के कारण पहले इस क्षतिकारक आवेगों का त्याग करेंगे...।"


किसी ने ठिठोली करते हुए कहा, "आचार्य गौतम भूल रहे हैं कि अब वे अहल्या के गुरु नहीं पति हैं । किन्तु पाणिग्रहण करते समय वे वेदमन्त्र ऐसे बोलते चले जा रहे हैं कि बेचारी अहल्या इस चिन्ता में डूब गई हैं कि मधुशय्या रात्रि की परिणति क्या होगी।"


गौतम यह सुन कुछ मुस्कराकर चुप हो गए।


'हस्तग्राह' के बाद सप्तपदी शुरू हो गई। आचार्य गौतम ने मेरा हाथ थामे हुए यज्ञाग्नि के चारों ओर सात फेरे लिए। दोनों पत्थर के टुकड़ों पर चले और अग्नि की प्रदक्षिणा की। अग्नि में धान की लइया और शस्य अर्पित किया। सांसारिक जीवन में पत्थरों पर चलना पड़ता है और अनेक प्रिय पदार्थ दूसरों को सन्तुष्ट करने के लिए अर्पित करने पड़ते हैं, इतना संकेत करने के बाद विवाह कार्य सम्पन्न हुआ। गौतम गुरुकुल के आचार्य गौतम ही रहे। किन्तु अब मैं रम्यवन की मुक्त विहगिनी अहल्या नहीं रही। अब मैं गौतम-पत्नी अहल्या थी। मेरा आवास अब रम्यवन नहीं गौतम आश्रम है। -


विदाई से पहले पिताजी ने हम दोनों को सीने लगाकर कहा, “हे दम्पति ! गृह होता है पति-पत्नी के सामूहिक सपने का उद्यान । गृह होता है दोनों का साधना क्षेत्र। हृदय में एक-दूसरे के प्रति प्रेम की आहुति देकर गृह यज्ञ को प्रज्वलित करो। जीवन में मिठास भरने के लिए एक-दूसरे के प्रति रुचिकर व्यवहार करो और आकर्षक व्यक्ति तत्त्व धारण करके गृह-आँगन को शोभामय करो। हे दम्पति ! आदर्श प्रेम से तुम्हारा दाम्पत्य जीवन पवित्र और मिठासपूर्ण हो। तुम दोनों एक-दूसरे का आभूषण बनकर गृह की शोभा बढ़ाओ। दाम्पत्य प्रेम के रहस्य का पता लगाकर उसे महत्त्व दो। तुम्हारा घर और परिवार स्वर्ग में परिणत हो।"


एक-एक करके सभी देवताओं और ऋषियों ने 'यशस्विनी भव', 'पतिव्रता भव', 'सौभाग्यवती भव' आदि आशीर्वचन मेरे भविष्य पर उड़ेल दिए। किन्तु देव देव इन्द्र अभी तक नहीं दिखे। पिताजी ने उन्हें विवाह का निमन्त्रण दिया था । गौतम के साथ बचपन से कलह और मतभेद के कारण इन्द्रदेव द्वारा ब्रह्मापुत्री अहल्या के विवाह के निमन्त्रण की उपेक्षा करने का अर्थ था ब्रह्माजी की उपेक्षा करना। इन्द्रदेव द्वारा कभी ऐसा असौजन्य - व्यवहार करने का उदाहरण नहीं था। इन्द्रदेव भी अहल्या के आकांक्षी थे, यह बात किसी से छिपी नहीं थी। ब्रह्मा द्वारा इन्द्रदेव का प्रस्ताव ठुकराकर गौतम के साथ विवाह सम्पन्न कर देने के कारण इन्द्रदेव के अहं को ठेस पहुँची है। इन्द्रदेव चाहें तो वज्रपात करके गौतम को ध्वंस कर सकते हैं किन्तु वज्राघात सुकुमारी अहल्या को भी लग सकता है। इसी डर से सम्भवतः इन्द्रदेव शान्त हैं। ऐसी अनेक सम्भावनाओं पर अभी चर्चा हो ही रही थी कि इन्द्रदेव अपनी सम्भ्रान्त मुद्रा में सभास्थल में आ पहुँचे। वे उपहार में लाए थे स्वर्ग के पारिजातों की माला और तरह-तरह के आभूषण । उनका सौम्यभाव अक्षुण्ण था।


पहले उन्होंने पिताजी से विलम्ब से आने के लिए क्षमा माँगी, "पितामह ब्रह्मा ! मैं बहुत पहले आ चुका होता । किन्तु जल वितरण व्यवस्था को लेकर पृथ्वी, अन्तरिक्ष और स्वर्ग के बीच तर्क-वितर्क होकर एक विषम स्थिति पैदा हो गई थी। यदि मैं उस समस्या का समाधान किए बिना चला आता तो आज दास-आर्य के संघर्ष में रक्तपात हो सकता था। यह घटना एक गम्भीर रूप धारण कर लेती तो आज विवाह में खलल भी पड़ सकता था, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता।

"दासवर्ग के लोगों द्वारा अधिक जल व्यय किया जाता है, कहकर उन पर आरोप लगाया गया है। वे लोग मेरे द्वारा वितरित पुण्य जलधारा आर्यों के साथ बराबर-बराबर पाने के हक़दार हैं या नहीं, उस पर विचार करने के लिए मैंने एक ज़रूरी बैठक बुलाई थी। बैठक में काफी तर्क-वितर्क हुए। अन्ततः उस समस्या का समाधान होने के बाद ही मेरा यहाँ आना सम्भव हुआ। इसलिए इस अनचाहे विलम्ब के लिए मैं आपसे, मित्र गौतम से और देवी अहल्या से क्षमा माँगता हूँ।"


नारद भैया ने मुस्कराते हुए कहा, "देवराज! आपके शीघ्र आने से जो फल मिलता है- विलम्ब से आने पर भी वही फल मिलता है। 'शुभस्य शीघ्रम् ... विलम्बे अभीष्टसिद्धि:' ये दोनों वाक्य केवल आपके लिए ही लागू होते हैं। कुल मिलाकर मेरी बहन के प्रति आपकी करुणा एवं आशीर्वाद होने पर ही वह सुखी होगी । आपको तो मालूम ही है कि वैदिक विवाह के दो लक्ष्य होते हैं। पहला है, पुत्रवती होकर पति के वंश की रक्षा करना और दूसरा, 'सु-रत' अर्थात् दाम्पत्य सुख प्राप्त करना। परन्तु वंश बचाने के लिए सन्तान पैदा करना मुख्य है और सु-रत उसके बाद । 'पुत्राय क्रियते भार्या', 'पुत्रः पिण्डप्रयोजनम्' अर्थात् पुत्र प्राप्ति के लिए भार्या लाई जाती है और पिण्डदान करने के लिए पुत्र की आवश्यकता होती है। ये बातें मुझसे पहले भी कही जा चुकी हैं। आज मैं कह रहा हूँ और मेरे बाद अनेक महर्षि ये ही बातें कहेंगे।


"अनेक आर्यऋषि यौनकामना का दमन करके यौवन में ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वृद्धावस्था में पहुँचते हैं पर वंश बचाने की उदग्र कामना ऊपर न उठ पाकर बुढ़ापे में भी विवाह करने से नहीं झिझकते । ऋषि अगस्त्य के बारे में तो आप जानते ही हैं सारा जीवन ब्रह्मचर्य का पालन करके उन्होंने महर्षि पद प्राप्त किया, किन्तु वृद्धावस्था में पितृपुरुषों को नरक से उद्धार करने की कामना से विदर्भ की सुन्दर राजकुमारी षोडशी लोपामुद्रा से विवाह किया था। वृद्धावस्था में ऋषि च्यवन ने पश्चिम आर्यावर्त के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से विवाह किया था । वृद्ध ऋषियों द्वारा सोलह वर्ष की सुन्दर कन्याओं से विवाह करने के अनेक उदाहरण हैं । आचार्य गौतम वृद्ध भले ही न हों, पर उनकी उम्र काफी हो चुकी है। उन्होंने मेरी सोलह वर्ष की अनिन्द्या सुन्दरी बहन से विवाह किया है। उसे दाम्पत्य सुख प्रदान करना गौतमजी का व्यक्तिगत मामला है किन्तु वंश चलाने के लिए मेरी बहन का कम से कम दस पुत्रों की जननी होना अन्य आर्यविज्ञों की तरह ऋषि गौतम का भी लक्ष्य होगा। इसलिए आज विवाह वेदी से उठकर आये इस नवदम्पति को आप यही आशीर्वाद दें, 'दश अस्यां पुत्रान् आधेहि ।' 'हे इन्द्र ! इस कन्या को दस पुत्र प्रदान करें।' पर आप केवल आशीर्वाद ही देंगे। महर्षि गौतम कितने पुत्र सन्तान के जनक बनेंगे, यह उन पर निर्भर करता है। आशीर्वाद देने के अलावा उनके जीवन के किसी अन्य मामले में भला आप क्यों हस्तक्षेप करेंगे ! आखिरकार गौतम आपके मित्र और गुरुभाई हैं और अहल्या आपकी गुरुकन्या ।" इतना कहकर भैया नारद ने मृदुमुस्कान के साथ इन्द्र और गौतम की ओर बारी-बारी से देखा ।


नारद भैया ने इस परिहास से गौतम आमोदित नहीं हुए, मन-ही-मन खीजे, किन्तु इन्द्रदेव आमोदित हुए।


इन्द्र ने हाथ उठाकर मुझे आशीर्वाद दिया। उनका आशीर्वचन किसी को सुनाई देनेसा नहीं था इसलिए मैं भी नहीं सुन पाई। सिर्फ़ चुपचाप स्वीकार करके इन्द्रदेव के चरण-स्पर्श करते समय उन्होंने कहा, "देवि अहल्या ! आज के आशीर्वाद का उस 'वर' से कोई सम्बन्ध नहीं है जो मैंने तुम्हें समावर्तन उत्सव के दिन दिया था। वह वर तुम्हारे लिए यथावत् हैं। वह वर तुम अपने जीवनकाल में जब भी चाहो, बेझिझक माँग सकती हो। हाँ, मेरा 'इन्द्रपद' रहने तक ही माँग लेना। नहीं तो तुम जो माँगोगी, हो सकता है, मैं तुम्हें देने की स्थिति में न रहूँ। मेरे सुनने में आया है कि अनेक ऋषिगण इस समय 'इन्द्रपद' की प्राप्ति के लिए कठिन साधना कर रहे हैं। इन्द्रपद मेरी पैतृक सम्पत्ति नहीं है, मुझे इसके प्रति विशेष प्रलोभन भी नहीं है, क्योंकि यह एक ऐसा पद है, जिस पर बैठने के बाद तुम सबकी भ्रान्ति का शिकार होने को बाध्य हो। इसका एकमात्र कारण है इन्द्रपद की क्षमता और इसके प्रति दूसरों - की तुम्हारे प्रति ईर्ष्या । उस दिन तुमने रत्नहार स्वीकार नहीं किया था। इसलिए आज तुम्हारे विवाह के अवसर पर पारिजात पुष्पों की यह माला उपहारस्वरूप प्रदान करता हूँ। ये पुष्प दिव्य भावनाओं से इस तरह सुगन्ध बिखेरते हैं। कि स्वर्ग से बाहर आकर भी नहीं मुरझाएँगे। प्रेमीयुगल यदि एक-दूसरे से पार्थिव नीति-नियमों से अलग हो जाएँ तो क्या उनके भीतर का अपार्थिव प्रेम मर जाता है !" इतना कहकर इन्द्रदेव मेरी ओर एक ऐसी मनमोहक दृष्टि से देखते रहे कि मैं सम्मोहित हो उठी।


इन्द्रदेव की मोहक दृष्टि से अपनी दृष्टि मिलाते ही मैं सब कुछ भूल गई। इतने में प्रथा ने मेरे कान के पास धीरे से कहा, "इन्द्रजाल ! अहल्या ! इन्द्रदेव के इन्द्रजाल में फँसना बहुत आसान है... किन्तु उस जाल से बाहर निकलना बहुत कठिन ।"


इतना सुनते ही मैं सँभल गई। मैंने इन्द्रदेव से सहसा प्रश्न किया, "आर्य और अनार्य के बीच जल विवाद का आपने क्या हल निकाला ? अनार्यों को कृषि और व्यापार के लिए पर्याप्त जल-सम्पदा मिलेगी न ?"


मेरे इस अप्रासंगिक प्रश्न से सभी हतप्रभ रह गए। भैया नारद ने अपनी स्वभाव-सुलभ रसिकतापूर्ण भाषा में कहा, "आश्चर्य होता है तुम्हारा आचरण देखकर अहल्या ! अब तुम ऋषिपत्नी हो। तुम्हें बल्कि यह पूछना चाहिए कि आर्य ऋषिगण अपने आश्रम में जिस परिमाण में जल सम्पदा व्यय कर रहे हैं, भविष्य में उन्हें उस परिणाम में जल सम्पदा मिलेगी या नहीं ? गौतम आश्रम इन्द्रदेव के करुणा-जल से वंचित तो नहीं रहेगा ! पर तुम विवाह लग्न में उन उपद्रवी अनार्य लोगों के बारे में सोच रही हो? मुझे तो लगता है कि तुम्हारे हृदय का अधिक हिस्सा तुम्हारे अनार्य सखा सहेली रुद्राक्ष और ऋचा आदि ने घेर रखा है। बेचारे आर्य ऋषि गौतम की हालत तो अनार्यों से भी बुरी हो जाएगी !"


नारद भैया के इस व्यंग्य को अन्य लोग उनका स्वाभाविक मजाक मानकर हँसने लगे परन्तु गौतम रुक्ष और कठोर लगे। गौतम आश्रम के अन्य ऋषिगण त्रस्त लगे। लेकिन इन्द्रदेव मार्तण्ड की तरह चिरप्रसन्न लग रहे थे । इन्द्र के संकेत पर उर्वशी, मेनका, रम्भा आदि पारिजात की माला मेरे गले में डालने को आगे बढ़ ही रही थीं कि गौतम ने गम्भीर स्वर में कहा, "धन्यवाद इन्द्र ! मैं तुम्हारे प्रति कृतज्ञ हूँ। किन्तु तुम्हारी यह पारिजात की माला स्वीकार करने के लिए मैं अपनी पत्नी अहल्या को अनुमति नहीं दूंगा, क्योंकि मरणशील पृथ्वी पर जहाँ प्रतिदिन असंख्य फूल मुरझा जाते हैं यदि वहाँ अहल्या न मुरझाने वाले पारिजात की माला की अधिकारी हुई तो उनमें अहंकार भर जाएगा। वे स्वयं को दूसरों से अलग और श्रेष्ठ समझने लगीं तो उनके अन्दर के सद्गुण मुरझा जाएँगे । वे आत्मज्ञान से दूर चली जाएँगी। यह उनके लिए अति क्षतिकारक होगा। इसलिए उन्होंने आपका आशीर्वाद स्वीकार कर लिया... पारिजात की माला विनम्रतापूर्वक लौटा रही हैं। अहल्या अनन्या नहीं हैं... वे भी रक्त-मांस से बनी एक साधारण नारी हैं। उनके लिए पारिजात की माला क्यों ?"


गौतम की इस अनुदार चिन्ता एवं असौजन्य व्यवहार से न केवल इन्द्र व्यथित हुए, बल्कि मैं भी व्यथित हुई । अन्य सभी व्यथित हुए। ऐसा करके इन्द्रदेव को अपमानित किया गया, कुछ लोगों को ऐसा लगा। मैंने सोचा- गौतम ने रत्नहार और पारिजात की माला, दोनों से मुझे वंचित कर दिया। क्या उन्होंने मेरे लिए सर्पहार रखा है? इसका मतलब यह है कि मैं गौतम की दृष्टि में अनन्या, असाधारण श्रेष्ठ नारी नहीं हूँ ! रक्त-मांस से बनी एक साधारण नारी हूँ ! हाँ जब बिना चेष्टा के दुर्लभ वस्तु प्राप्त होती है, तब उसका मूल्य घट जाता है। पिताजी ने - गौतम के समक्ष मेरा मूल्य घटा दिया है। गौतम ने मेरे लिए पिताजी से निवेदन नहीं किया था, बल्कि स्वयं पिताजी ने अपनी कन्या के लिए गौतम से प्रार्थना की थी। ब्रह्मा जिसके समक्ष प्रार्थी होंगे, उसका स्वयं को सर्वश्रेष्ठ और मुझे साधारण समझना अस्वाभाविक नहीं। कल सुबह भला वे कैसे नहीं कहेंगे कि तुम्हारे पिता स्वयं ही तुम्हें सौंप गए? मुझे तुम्हारी आकांक्षा नहीं थी। केवल ब्रह्माजी का अनुरोध नहीं टाल सका... ओह ! क्यों किया पिताजी ने ऐसा ? मेरे भीतर की असामान्य नारी के अहंकार को चकनाचूर करने की कहीं पिताजी की यह कोई सुनियोजित योजना तो नहीं है ?


इन्द्रदेव निर्विकार रूप से पुनः आशीर्वाद देकर दास, दासी और परिचारिकाओं के साथ लौट गए। पिताजी के पास छोड़ गए केवल एक सुसज्जित रथ वह रथ वे पिताजी को समर्पित कर गए थे परन्तु उनका उद्देश्य था कि वर-कन्या उसी रथ पर बैठकर अपने घर लौटेंगे। सम्भवतः पिताजी ने पहले से ही ऐसी इच्छा प्रकट करके एक 'रथ' मँगवाया था। पिताजी ने बनवाया था एक दिव्य तल्प (पलंग) । मधुवास के शुभारम्भ के लिए पिताजी ने उदुम्बर (गूलर) वृक्ष की सूखी लकड़ियों से वह पलंग शुभ संकल्प के साथ सुदक्ष कारीगरों से बड़े प्रेम से बनवाया था। पितृ-गृह से कोई और उपहार पति-गृह जाए या न जाए, शुभ संकल्पपूर्वक बनवाया गया एक सुसज्जित पलंग प्रत्येक पिता वर-कन्या को उपहार में देता है। सुहागरात को इस पलंग पर शयन करके वर-कन्या द्वारा मधुर दाम्पत्य जीवन के आरम्भ करने की विधि है। इससे उदुम्बर की मणि के समान मेधावी सन्तान पैदा होती है, ऐसा विश्वास है


गौतम ने इन्द्रदेव द्वारा दिया गया रथ और पिताजी का पलंग दृढतापूर्वक लौटा दिए। बोले, "मैं एक आदर्श शिक्षक हूँ। कन्यापक्ष द्वारा दिया गया कोई भी उपहार ग्रहण करना मेरे लिए सम्भव नहीं है। भविष्य में यही उपहार एक सामाजिक व्याधि बनकर कन्या के पिता के लिए बोझ बन सकता है। इसके अलावा अहल्या ऋषिपत्नी हैं। वे गुरुकुल आश्रम के अध्यक्ष की पत्नी हैं। वह विलास व्यसन से छू रहने की आदत डालेंगी। इसलिए वे मेरे साथ आश्रम तक पैदल चलकर जाएँगी और वहाँ ज़मीन पर तृण शय्या में सुहागरात बिताएँगी । यदि वे इससे सुखी न हुई तो उनका मेरे साथ दाम्पत्य जीवन में भी सुखी होना सम्भव नहीं। सुख वस्तुगत नहीं है, आत्मगत हैं। मेरी पत्नी के रूप में अहल्या का कम-से-कम इस बात पर ध्यान देना उचित होगा।"


मेरी तापदग्ध यात्रा उसी क्षण प्रारम्भ हो गई जिस क्षण तेज धूप में तपती हुई गौतम का अनुसरण करते - हुए मैंने काँटोंभरे जंगली रास्तों से होकर अपनी कर्मभूमि गौतम आश्रम की ओर पग बढ़ाया था।


विदा के समय पिताजी ने मुझे गले से लगाकर कहा था, "जाओ पुत्री ! प्रसन्नचित हो परीक्षाओं का सामना करो। अपने अहल्या नाम को सार्थक करो। स्वयं यज्ञ स्वयं ही स्वाहा बनकर मेरी सार्थक सृष्टि के रूप में स्वयं को प्रमाणित करो।"


मेरा हृदय खण्ड - विखण्ड हो गया पिताजी की बातों से राख पोतकर तृणशय्या में मधुयामिनी बिताकर गौतम पत्नी के रूप में स्वयं को प्रमाणित करूँ मैं या यज्ञ और स्वाहा बनकर ब्रह्मापुत्री के रूप में स्वयं को प्रमाणित करूँ मैं ! किन्तु यह 'मैं' कौन है ? किसके अधीन है यह 'मैं' ? गौतमजी के या ब्रह्माजी के ? क्या इस 'मैं' ने एक नारी देह को धारण किया है। उसी क्षण से मेरा स्वाध्याय प्रारम्भ हो गया। मैं स्वयं को अपने ही अन्दर ढूंढने लगी। पिताजी के चरणों की धूल लेते ही उन्होंने पहली बार मुझे गोद में उठा लिया। मैंने रुंधे हुए गले से कहा, " इस बिन माँ की सन्तान के प्रति आपने इतना कठोर दण्डविधान क्यों किया पिताजी ? मैं इस परीक्षा में कैसे उत्तीर्ण होऊँगी ? क्या गौतम आश्रम में मैं अपने 'स्व' को ढूंढ़ पाऊँगी ?"


पिताजी की आँखें अनायास भर आई। उन्होंने संयत स्वर में कहा, "पितृकेन्द्रित आर्य सभ्यता में सिर्फ तुम ही नहीं हो हर लड़की तुम्हारी तरह परीक्षाओं का सामना करती है। उत्तीर्ण भी होती है। गौतम न्यायपूर्ण हैं। वे तुम्हारे प्रति अन्याय नहीं करेंगे। तुम्हारे अहल्यात्व को स्थापित करने के लिए यदि कभी वे रुक्ष और कठोर हो जाएँ, तो समझ लेना कि वह केवल सुधारने का एक बहाना है। बाहर से गौतम एक सुन्दर युवा-पुरुष भले ही न हों, लेकिन वे कामुक, दुश्चरित्र, विलासी या भ्रष्टाचारी नहीं हैं। उनके साथ सुखी रहने की चेष्टा करना। एक पतिव्रता नारी को जो कुछ करना चाहिए, वही करना।"


विदाई यात्रा आरम्भ करने से पहले पिताजी ने पुनः मुझे उपदेश देते हुए कहा था, "हे अशेष गुणवती दुहिता ! तू आज सुमंगलमयी वधु है। गृहस्थ जीवन एक महायज्ञ हैं। गृहयज्ञ की मुख्य यजमान नारी है। विवाहयज्ञ से अग्नि ले जाकर तुम नए गृह में स्थापित करना। प्रातः एवं सायंकाल अग्निहोत्र अनुष्ठान करके आत्म सौरभ को यज्ञ-सौरभ में बदलकर अपना गृह सुरभित करना। तुम बनोगी विश्व की यज्ञवेदी । उसी यज्ञवेदी से उत्पन्न होंगे लोग- कल्याणमय, शुभ-संकल्पवान् प्रजागण । इसलिए तुम्हारे स्नेह और पवित्रता के बिना गृहयज्ञ पूरा नहीं होगा, यह स्मरण रखना । महर्षि गौतम ब्रह्मचर्य की शक्ति से शक्तिवान् हैं। लेकिन महर्षि से देवर्षि और देवर्षि से ब्रह्मर्षि बनने के लिए उनमें जो संकल्प है, वह तुम्हारे धर्म, कर्म, प्रेम और सहयोग के बिना सम्भव नहीं होगा, क्योंकि तुम हो गौतम की अर्धांगिनी ।


"हे मानमयी अहल्या ! तुम आज अतिथि बनकर गौतम आश्रम नहीं जा रही हो, शिक्षार्थिनी बनकर नहीं जा रही हो, गृहरूपी विशाल साम्राज्य की साम्राज्ञी बनकर जा रही हो। तुम महर्षि गौतम की सदाचारी सचिव के बनकर त्याग और प्रेम के अनुशासन से गृह राज्य पर शासन करना। तुम्हारा गृह कोई साधारण साम्राज्य नहीं है। तुम्हारा गृह एक गुरुकुल आश्रम है। इसलिए वह एक अभिनव साम्राज्य है। उस साम्राज्य में प्रजाओं का चरित्र और व्यक्तित्व निर्माण किया जाता है और उसी पर राष्ट्र का भविष्य निर्भर करता है। इसलिए गृह-सम्राज्ञी को विश्राम, विलास और आलस्य करने के लिए समय कहाँ है ? अपने गृह साम्राज्य में तुम स्वयं शासक सेविका और परिचारिका हो । निरपेक्ष, नम्र, मेधायुक्त, मधुमयी एवं आत्मीय भावनायुक्त हो सबकी सेवा करना तुम्हारा कर्त्तव्य है। बड़े के प्रति सम्मान, भक्ति और श्रद्धा, छोटे के प्रति अनुराग, अतिथि के प्रति कोमल, करुणा, पशु- पक्षी के प्रति अहिंसक भावना, वनस्पति के प्रति प्रीतिपूर्ण यत्नशीलता, उपद्रवी के प्रति कल्याणकारी दण्ड एवं मधुसिक्त कड़ाई, मातृभूमि के प्रति राष्ट्रभाव, समाज के प्रति गहरी आस्था, संस्कृति के प्रति ममता, संस्कार के प्रति निष्ठा, विश्व ब्रह्माण्ड के प्रति हितसाधन का संकल्प और इन सबसे पहले पति के प्रति विश्वास और सहयोग तुम्हारे गृहयज्ञ का संकल्प हो। परन्तु जो तुम्हारी इन भावनाओं में तुम्हारे हृदय को पवित्र, मंत्रित और मधुसिक्त करने में सहायक होगा, उस परमात्मा के प्रति पूरी तरह समर्पित होगा तुम्हारे गृहयज्ञ और जीवनयज्ञ का महामन्त्र । उसकी इच्छा के बिना यज्ञ का स्वाहा या सिद्धि, कुछ भी सम्भव नहीं। अतः उसी परमात्मा को ध्यान करके गृहयज्ञ प्रारम्भ करो।"


अग्न्याध्यान न होने के कारण पिछली रात गौतम मेरे पास नहीं आए, यह जानने के बाद मेरा मान दूर हो गया । गौतम वैदिक विधान तोड़कर रतिसुख में लीन हो गए होते तो शायद उनके प्रति मेरा सम्मान कम हो गया होता। आज वे मेरी दृष्टि में एक आदर्श पुरुष के रूप में विद्यमान हैं। उनकी पत्नी होने का गर्व है मुझे।


सायंकाल में अग्निहोत्र और दुधहोम इत्यादि सम्पन्न होने के बाद मैं फिर से गौतम को जीतने की कामना से आत्ममग्न हो गई।


उस दिन वसन्त की गोधूलि लेकर मैंने अपने सर्वांग में पोत ली। मलय की चंचलता को हृदय के प्रत्येक तन्तु में स्वर दे दिया । कोयल की सांध्य कूक की समस्त मधुरिमा को मैंने कण्ठस्वर के एक-एक छन्द में, मधुर रागिनी में बदल दिया। सांध्य कुसुम की उत्तेजक सुरभि से जूड़ा महका लिया। खुले गले में पहन ली झरते बकुल की माला । उस दिन गौतम को लुभाने के लिए मैंने क्या कुछ नहीं किया !


युगों से नारी की देह की सुगन्ध से पुरुषों का तपोभंग हुआ है। तपोभंग करके ऋषि के शाप को वरण कर लेना ही नारी का गौरव है। वहीं उसकी जीत है। यदि आज मैं गौतम का तपोभंग करके अभिशप्त हुई तो वही मेरे देह-सौन्दर्य की श्रेष्ठता साबित करेगा। यदि मेरे सौन्दर्य और यौवन ने गौतम का तपोभंग नहीं किया, तो फिर मेरे सौन्दर्य और नारीत्व का मूल्य ही क्या ?


आज गौतम भी चित्त-चंचलता अनुभव कर रहे हैं। यह बात व्यक्त करने में आज उन्हें झिझक नहीं है। इसलिए आश्रम की मुनिकुमारियों और ऋषिपत्नियों को संकेत किया है, मुझे विश्वमोहिनी की तरह सजाकर हमारे लिए मधुचन्द्रिका बनाने के लिए।


आज गौतम ने इन्द्र को सोम अर्पित करके स्वयं भी सोमपान किया है। सोम के मोदमय प्रभाव से वे प्रफुल्लित हो उठते हैं रह-रहकर । चन्द्रिका के कोमल स्वर्णलोक में वे उतने वयस्क नहीं लग रहे । वे कामुक, मनोहर, ईप्सित पुरुष लग रहे हैं।


इसका अर्थ यह हुआ कि मेरा दाम्पत्य व्यर्थ नहीं है। गौतम कठोर, संयमी होते हुए भी एक स्वाभाविक पुरुष हैं। अतः मेरा दाम्पत्य जीवन अस्वाभाविकता के शाप से ध्वस्त नहीं होगा, आज यह विश्वास मेरे मन में अंकुरित हुआ है।


तपोवन का वह एकान्त केलिकुंज किसके लिए बनाया गया था ? मैं पहले कभी उस कुंज में नहीं गई। वह गौतम के कुटीर से जुड़े सुन्दर उपवन का एक मनोरम हिस्सा था। ब्रह्मचारियों का वहाँ जाना मना था। इसलिए मेरे लिए भी मना था। आज मैं गौतम-पत्नी हूँ। इस विशेष केलिकुंज में प्रवेश करने का अधिकार मुझे मिल चुका है। इतने दिनों से यह कुंज सम्भवतः मेरे लिए ही बनाते रहे हैं एकाग्रचित्त हो मेरे आदर्श पति गौतम । इसी केलिकुंज में हमारी मधुचन्द्रिका सम्पन्न होगी। एक पवित्र शाखा नदी घाट नहीं था बिना घाट के घाट न हो तो भी संगीत की कल-कल ध्वनि का अभाव नहीं होता नदी जल में ऋषि आश्रम होने पर भी मालतीकुंज को केलिकुंज बनाने में कोई रोक-टोक नहीं थी। इससे किसी वैदिक विधान का उल्लंघन नहीं होता। पितृऋण चुकाने के लिए पति- पत्नी का मिलन अवश्यम्भावी है।


गौतम आगे-आगे बढ़ते चले जा रहे हैं मालतीकुंज की ओर। उनके पीछे-पीछे मैं। मेरे पैरों में मधुर कम्पन है। आज गौतम आचार्य की तरह गम्भीर नहीं लग रहे थे किसी प्रेमी की तरह मदविह्वल लग रहे थे।


उन्होंने मुझे लताकुंज में बिठाया। गहरी मधुर दृष्टि से मेरे सर्वांग का अवलोकन किया। धीरे-धीरे वे मेरे निकट आने लगे। मुझे लगा कि मैं लाज से मूर्च्छित हो जाऊँगी। जिन्हें गुरु माना था, उन्हें प्रेमी मानकर कैसे समर्पित कर दूँ अपनी समग्रता ?


मुझे पूरी तरह उत्तेजित करके गौतम सहसा योगमग्न हो गए। योगमुद्रा में भी मेरी ओर खुली आँखों से निहार रहे थे। धीरे-धीरे बोले, "सुभ्रू! सुनयना-सुकेशी अहल्या! तुम मधुसेवी बनो, पुष्प की मधुरिमा, स्निग्धता, सुगन्ध, सौम्यता, सुन्दरता, प्रसन्नता और सतेज कोमलता तुम्हारे स्वभाव और आचरण में घुल मिल जाए, जैसे पानी में मिल जाता है दूध, जैसे मरुत में समा जाता है मलय आम्रवन की मंजरियों की सुगन्ध, जैसे गोधूलि में समा जाती हैं साँझ की होमशिखाएँ, जैसे दृष्टि में समा जाती है दृष्टि और हृदय में हृदय अहल्या ! तुम्हारी दृष्टि बने मधुदृष्टि तुम्हारी वाणी बने मधुवाणी, तुम बनो मधु के समान सारग्राही, सुमिष्ट सुगन्धित और मधुमती । मधुरता न केवल तुम्हारे रूप का विशेषण बने तुम्हारा स्वभाव भी बन जाए।"


प्रारम्भ में गौतम की मधुवाणी प्रशंसा की तरह अत्यन्तमधुर लगा करती थी। रोमांच जाग उठता था त मन में। किन्तु धीरे-धीरे मधुवाणी गुरुकुल आश्रम की नीतिवाणी-सी लगने लगी गौतम याज्ञिक की तरह लक्ष्यबद्ध और योगनिष्ठ लगने लगे। पर वे बार-बार कहा करते, "आओ-आओ अहल्या, मेरा स्पर्श करो, मुझे उन्मत्त करो, मेरा आलिंगन करो, मुझे योगभ्रष्ट करो..."


गौतम की वाणी, आचरण और हाव-भाव में इतना विरोधाभास दिखाई देता कि बीच-बीच में मैं विचलित हो उठती । लज्जा त्यागकर मैंने गौतम को अपनी बाँहों में भर लिया और उन्हें योगभ्रष्ट करने के लिए उत्तेजित हो उठी। गौतम हेमवन्त पर्वत की तरह अचल, अटल एवं चिर तुषाराछन्नशृंग की तरह हिमशीतल बन गए।


मैं अपनी आकर्षण शक्ति को लेकर दृढ़-निश्चिन्त थी। मैं जानती थी कि 'ध्यान' के आकर्षण से मेरे यौवन का आकर्षण कई गुना अधिक है। जानती थी कि पृथ्वी पर ऐसा कोई पुरुष नहीं है, जो मेरे आकर्षण को अनदेखा कर सके। भले ही यह मेरा रूपगर्व हो, पर अपने इस रूपगर्व के लिए मैं स्वयं उत्तरदायी नहीं थी। आज गौतम की योगनिष्ठा मेरे उसी अनादिकाल के अहंकार पर कुठाराघात करती जा रही थी। यदि आज भी गौतम ने योग में बैठना तय किया था तो मुझे उत्तेजित करने का यह खिलवाड़ क्यों किया? क्या वे मेरे समक्ष अपना पौरुष इस तरह प्रमाणित करना चाहते हैं ? क्या यह भी मिथ्याचरण नहीं है ? क्या यह मुझसे प्रताड़ना नहीं है ? गौतम के इस छलपूर्ण आचरण ने मेरे नारीत्व को अपमानित किया था। क्या गौतम मेरी संयमशक्ति की परीक्षा ले रहे थे या अपनी आत्मशक्ति की पराकाष्ठा प्रमाणित करने के लिए उन्होंने मुझे कसौटी मान लिया है?


गौतम के साथ मेरा पाँच वर्षों का घनिष्ठ गुरुछात्रा सम्बन्ध रहा है। मेरी संयमशक्ति और अपनी आत्मशक्ति परखने के लिए क्या वे स्वयं काफी नहीं है? यदि आज में पत्नी के रूप में गौतम से संकेत द्वारा रतिभिक्षा करूँ तो क्या वह मेरे चित्तविकार का परिचय होगा ? किन्तु यह बात सच है कि भले ही में सचमुच की पत्थर बन जाऊँ, पति से रति की भीख नहीं माँगूँगी। पति भी एक पुरुष ही तो है। क्या नारी कभी पुरुष से रति की भीख माँग सकती है ? भले ही वह पुरुष उसका पति ही क्यों न हो। बने रहें गौतम निर्विकार पुरुष । किन्तु पत्नीको सजा - सँवारकर, पूर्वराग की वर्णछटा से उसके देह-मन में रंग बिखेरकर योगाविष्ट हो जाना भला कैसा पौरुष है ?


मैं रात भर अन्तर्दाह से जलती रही और गौतम कठिन योगसाधना में लीन रहे। मैं समिध की तरह धधकती रही सारी रात गौतम याज्ञिक की तरह पुण्य की पूर्णाहुति डालते चले जा रहे थे। इसी तरह बीतती चली - जाती मेरी रात्रि प्रति रात्रि ।


मैंने सोचा, सम्भवतः यह गौतम का कोई व्रत हो। इसलिए मुझे पाकर भी प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। किन्तु एकाध दिन नहीं रात-रात भर जब वे मुझे अपने सामने बिठाकर योगाविष्ट होने लगे, मैं समझ गई कि गौतम ने अपनी साधना की सिद्धि के लिए मुझे निमित्त बना रखा है।


प्रतिदिन सुबह जब प्रथा मेरे आहत नारीत्व को ध्यान से देखती, तब वह भी गौतम के आचरण से दुखी हो उठती। पिछले छह महीने से पति-पत्नी के रूप में हम आश्रम का सारा कर्मकाण्ड कर रहे थे, पर अभी तक मैं कुँआरी थी पति के संग-सुख की अनुभूति अभी तक नहीं हुई थी। प्रथा ने हर रात मुझे बढ़-चढ़कर सजाया था- - गौतम के संयम का बाँध तोड़ने के लिए उसने पूर्वराग के समस्त कला कौशल मुझे सिखाए थे किन्तु सब व्यर्थ चले गए गौतम के आगे गौतम दिनों-दिन मेरी आकर्षण शक्ति से ऊपर उठते चले जा रहे हैं। तो क्या पिताजी के अनुरोध को ठुकरा न पाकर गौतम ने मुझसे नाममात्र के लिए विवाह किया है? क्या फिर कोई दूसरी नारी है उनके जीवन में ? कौन है वह नारी, जो अहल्या की आकर्षण शक्ति को छिन्न करके गौतम को अहल्या के सामने हिमशीतल बना देती है ? ऐसे अनेक प्रश्न उठा करते थे मेरे मन में प्रथा के मन में काम ज्वाला से मैं जितना - 1 पीड़ित नहीं थी, पीड़ित थी अस्वीकार किए जाने के अपमान से कामसुख क्या है, मैं नहीं जानती थी। इसलिए उसकी ज्वाला उतनी तीव्र नहीं थी मेरे अन्दर पराजय की ग्लानि ही मुझे क्षुब्ध करती रहती हर रात ।


मेरी प्रतिक्रिया जानने के बाद एक दिन प्रथा ने सीधे-सीधे पूछ ही लिया गौतम से पूछने का अधिकार है। प्रथा को । वह जिससे चाहे, जब चाहे जवाब माँग सकती है। उस दिन गौतम को मालतीकुंज की ओर जाते देख प्रथा ने उन्हें रोका। दृढ़स्वर में बोली, "महर्षि गौतम ! अहल्या का अपराध क्या है? आप उसे स्वीकार क्यों नहीं कर रहे ? यदि आप उसे पत्नी के रूप में पसन्द नहीं करते हैं, तो फिर आपने विवाह का स्वांग क्यों किया ? आपका उद्देश्य क्या है ?"


"बन्धन- मुक्ति ।" गौतम ने उत्तर दिया।


"कैसा बन्धन ? किससे मुक्ति ?" प्रथा ने जिरह की ।


"अहल्या का आकर्षण ही सबसे बड़ा बन्धन है। उससे मुक्ति ही मेरी श्रेष्ठ साधना है। "


आश्चर्यचकित प्रथा ने रुष्ट होते हुए प्रश्न किया, "क्या आप अहल्या से मुक्ति चाहते हैं ? तो फिर स्वांग रचाकर उसके जीवन को आपने तापदग्ध क्यों किया ? आप द्वारा उसे मुक्त करने के बाद उसके जीवन में भला और क्या सम्भावनाएँ रह जाएँगी ?"


गौतम ने अविचलित स्वर में कहा, "अहल्या को मुक्ति देने वाला मैं कौन होता हूँ ? मैं तो अपनी ही मुक्ति का द्वार ढूँढ रहा हूँ । अहल्या मेरे 'ब्रह्मर्षि' बनने के लक्ष्य पथ पर प्राचीर-सी खड़ी है। अहल्या का आकर्षण अतिक्रम न किया तो मैं महर्षि से देवर्षि भी नहीं बन पाऊँगा। ब्रह्मर्षि बनना तो दूर की बात है। "


प्रथा क्रुध हुई गौतम की स्पष्टोक्ति से उसने कहा, "अहल्या का आकर्षण दुर्निवार्य, अलंघ्य, अनतिक्रमणीय है, यह अच्छी तरह जानते हुए भी अहल्या से विवाह करने के पीछे आपका क्या उद्देश्य था क्या - अहल्या को कष्ट देने के लिए ?"


"जानता हूँ कि अहल्या का आकर्षण दुर्निवार्य है, तभी तो मैंने उससे विवाह किया है। अग्नि से दूर रहकर यदि कोई कहे कि वह दहनीय नहीं है तो समझ लेना चाहिए कि वह दहनीय है। अग्नि के बीच रहकर अदहनीय बने रहना ही तो वास्तविक परीक्षा है। अहल्या किसी भी पुरुष के लिए केवल अग्नि नहीं है बड़वाग्नि है। अतः - अहल्या-रूपी बड़वाग्नि के वलय में रहकर मैं कामरूपी शत्रु का दमन करना चाहता हूँ अहल्या मेरी परीक्षा है। उस परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद ही मेरी साधना की सिद्धि सम्भव है। मेरे ब्रह्मर्षि होने के लक्ष्यपथ पर अहल्या-रूपी अवरुद्धक स्थापित करके गुरुदेव ब्रह्मा मेरी परीक्षा लेना चाहते हैं। मैं अहल्या के पतित्व से मुक्ति नहीं चाहता - मैं कामेच्छा से मुक्ति चाहता हूँ।"


गौतम ने अब तक मेरी देहसत्ता को स्वीकृति नहीं दी है। कामभोग के लिए शरीर सुख पाप है। अतः पुत्र उत्पत्ति के सही समय की वे प्रतीक्षा कर रहे थे। अब उनकी पुत्र पैदा करने की इच्छा जागी है। इसलिए उन्होंने गर्भभूमि को पुत्र सन्तान उत्पत्ति के योग्य बनाने की ठान ली है। मेरे अन्दर दो कारणों से विद्रोह जाग रहा है। प्रथमतः जननी बनने के लिए मेरी मानसिकता अनुकूल अवस्था में है या नहीं, उन्होंने मुझसे नहीं पूछा। द्वितीयतः मैं पुत्र चाहती हूँ या कन्या चाहती हूँ, उस बारे में उन्होंने मुझसे प्रेमपूर्वक कुछ नहीं पूछा मानो मैं कोई बंजर भूमि हूँ । ओषधि का प्रयोग करके वे मुझे उर्वर बनाएँगे और अपनी इच्छा के अनुसार कोई भी शस्य उपजाएँगे। किन्तु ये सब मेरे मूक विद्रोह थे। मैं खुलकर किसी भी तरह का विरोध नहीं कर पा रही थी। ऐसा ही था हमारे समय और समाज का चलन। भला कौन राजा, ऋषि, देवता अपनी पत्नी से विचार-विमर्श करके सन्तान उत्पत्ति की योजना बनाते थे, जो मेरे ब्रह्मापुत्री अहल्या होने के कारण गौतम मेरे लिए अलग से नियम बनाएँगे ?


मेरे लिए आश्रम से बाहर जाना मना था, क्योंकि मैं पुत्र सन्तान धारण करने के लिए चिकित्साधीन थी । शमीवृक्ष में बढ़े पीपल के पेड़ के पत्ते और छाल के रस का मुझे नियमित सेवन करना पड़ता था। अत्यन्त बुरा स्वाद होने पर भी मुझे उस रस को पीने के लिए बाध्य किया जाता था। उससे गर्भधारण की शक्ति बढ़ेगी। कुछ दिनों तक छाल और पत्तों का रस पीने के बाद उसी वृक्ष के पंचांग अर्थात् जड़, छाल, पत्ता, फूल और फल को सुखाकर उसके चूर्ण से तैयार किए गए एक मोदक को दूध और शहद में मिलाकर प्रतिदिन दो बार मुझे सेवन कराया जाता था। उस मोदक के सेवन से कन्या सन्तान धारण करने की आशंका दूर होकर पुत्र सन्तान धारण करना निश्चित है, यह आश्वासन प्रथा मुझे दिया करती थी। किन्तु मैं उस समय जननी बनने के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी... और फिर पुत्र या कन्या का भेद मेरे मन में नहीं था। बल्कि गौतम और समाज का कन्या विरोधी विचार मुझे क्षुब्ध करता था। मेरे भीतर विद्रोह पैदा हो रहा था। मैं ईश्वर से प्रार्थना किया करती थी कि गौतम के पुत्र लाभ करने के समस्त उद्यम के बावजूद मैं कन्या सन्तान धारण करूँ। गौतम का विरोध करने की यह एक तरह की दृढ़ भावना मेरे अन्दर उत्पन्न हो रही थीं। प्रतिदिन ओषधि का सेवन करते-करते मैं चिड़चिड़ी भी हो गई थी। ऋचा, रुद्राक्ष आदि से अब मेरी मुलाकात नहीं होती थी। उनके लिए आश्रम निषिद्ध था और मेरे लिए अरण्य । इसलिए उस दिन की घटना के बाद उनके मनोभाव मेरे प्रति क्या हैं, उस बारे में जानने का कोई उपाय नहीं था। अतः मेरे मन में नाना कारणों से प्रसन्नता नहीं थी।


ऐसी ही एक अप्रसन्न ऋतु में गौतम ने मुझे ग्रहण किया। हाँ मुझे उन्होंने ग्रहण किया एक तरह से बलात्कार करके। मेरी इच्छा के विरुद्ध मुझे गर्भधारण कराने के उद्देश्य से मेरे साथ शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करने का अर्थ बलात्कार नहीं तो और क्या था ?



जब शुरू-शुरू में गौतम से एकान्त में मिलने के लिए मैं स्वयं को तरह-तरह से सजाया-सँवारा करती थी, तब गौतम मेरे शयन कक्ष में प्रेमी के रूप में न आकर आया करते थे कठोर नीति-नियमों से भरे एक रूढ़िवादी समाज के रक्षक के रूप में। अब मुझमें कोई रोमांच नहीं बचा था। मेरी नसों में शीतल अस्वीकृति का हिमरक्त जमने लगा था। गौतम के भस्म पुते बदन और वैराग्यरंजित मुख देखने से मेरी नसों में हिमलहरी फैल जाती - जी करता, सारे बन्धनों और बेड़ियों को तोड़कर उसी क्षण गौतम के स्वामित्व के चंगुल से मुक्त हो जाऊँ। यह घोषणा करूँ कि केवल स्वामी की इच्छा से स्त्री का गर्भधारण करना पाप है ! अवैध है ! किन्तु दुनिया की असंख्य सन्तानें जननी के गर्भ में पति के बलात्कार के कारण आश्रय लेती हैं। विवाह नामक सामाजिक स्वीकृति हो तो बलात्कार से जन्मी सन्तान को अवैध घोषित करने का अधिकार समाज को नहीं है। इसलिए मैं कौन होती हूँ विरोध करनेवाली ?


सोचा था कि पहले गौतम से कुछ प्रेम सम्भाषण होगा। सम्भवतः गौतम के दो प्रेममय बोल से मेरी देह और मन की सारी बेड़ियाँ टूट जाएँगी। एक-एक करके अनायास ही... मैं गौतम के पवित्र पौरुष के आगे अपने सुकोमल नारीत्व को स्वतः निछावर कर दूँगी। अपनी सन्तान आगमन के मांगलिक क्षण का पूर्णप्राण से स्वागत करूँगी।


लेकिन 'प्रेम' जैसे लघु आवेग को मेरे सम्मुख प्रकट करने में गौतम के कठोर स्वामित्व का अहंकार बाधक बन गया। वे मुझसे बातचीत करने के बदले मेरी कोख को अभिमन्त्रित कर मन्त्रपाठ करने के तुरन्त बाद मुझसे उग्रभाव से लिपट गए। मैं सहसा दो भागों में बँट गई अपने तन और अपार्थिव आत्मा में। मेरे तन ने तो जडवत् पति के समस्त उत्पीड़न को चुपचाप सह लिया । किन्तु मेरी सुकोमल प्रेमाकांक्षी आत्मा न जाने किस अदृश्य मधुवन में मेरे जीवन के कल्पित प्रेमी गौतम को ढूँढ़ते हुए आँसू बहा रही थी।


मैं कायमनोवाक्य से स्वयं को पति को अर्पित नहीं कर पाई। क्या यह मेरा पाप है? मेरी सुहागरात बीत गई परन्तु सुख के स्वाद की अनुभूति नहीं हो पाई। ऐसा अनेक नारियों के भाग्य में होता है। तो फिर मैं तिल का ताड़ क्यों बना रही हूँ? मुझसे सब कुछ सुनने के बाद मेरी मृदु भर्त्सना करते हुए प्रथा के इतना कहते ही मैं अपने भीतर की अहल्या की भर्त्सना करते हुए अनेक नारियों में से एक हो जाने की चेष्टा करने लगी।


जिस तरह मातृस्तन में अमृतरस अनायास ही भर जाता है, उसी तरह गर्भवती नारी के हृदय में वात्सल्य का अमृत आवेग उद्वेलित हो उठता है। कितना विचित्र होता है नारी मन !


मुझमें गर्भ-संचार हुआ है, जानने के बाद मेरे अन्दर की सारी विरोधी भावनाएँ शान्त पड़ गई । मेरा हृदय


वात्सल्य रस से सुकोमल हो गया। सारा संसार मुझे मधुमय दिखने लगा। सन्तान धारण करने के क्षण का मैंने क्यों दिल खोलकर स्वागत नहीं किया, यह सोचकर मैं स्वयं को धिक्कारने लगी। प्रायश्चित्तस्वरूप अपने पति की तमाम ज्यादतियों को मैं सन्तान के लिए कल्याणकारी मानकर सहर्ष सह गई भूमि कितनी ही कठोर क्यों न हो, कोई बीज बो देने से उसे अंकुरित करने के लिए स्वयं को विदीर्ण करने में क्या भूमि कभी झिझकती है ?



मैंने भी गर्भधारण के बाद के आचार-विचार, विधि-विधानों को स्वीकार कर लिया। स्वयं को विदीर्ण करने को तैयार हो गई। गर्भधारण के दो महीने बाद बरगद के कोमल पत्तों का रस मुझे नाक से प्रतिदिन सेवन करना पड़ता था । यह मेरे लिए अत्यन्त कष्टदायी होने पर भी समाज द्वारा निर्धारित 'पुंसवन संस्कार' था, जिसे मैं कैसे नहीं मानती ? इससे गर्भ के सन्तान को पुत्र में बदला जा सकता है, यह बात मुझे प्रथा ने समझाई। 'पुत्र' के लिए मेरे मन में कोई विरोध नहीं है परन्तु मैं स्वयं पुत्रवती होना चाहती थी। स्वर्ग, मर्त्य और पाताल में ऐसी कौन- सी रमणी है जो पुत्रवती नहीं होना चाहती, किन्तु मैं 'कन्यावती' भी होना चाहती थी। इसलिए समाज के कन्या- विरोधी विचारों का मैं विरोध करती हूँ। किन्तु आज मैं पुत्र- प्रसव के लिए तैयार हूँ। यह तो मात्र प्रारम्भ है। दो- तीन पुत्र सन्तान प्राप्त करने के बाद गौतम सन्तुष्ट हो जाएँगे और उसके बाद मैं कन्यावती होने का सौभाग्य प्राप्त करूँगी। यदि उस समय गौतम कन्या सन्तान का विरोध करेंगे तो मैं भी उनका विरोध करूंगी, मैंने मन-ही-मन यह ठान ली थी।


मैं चुप थी। मैंने स्थिर किया, गौतम की इच्छा से मन्त्रित पुत्रेष्टि महौषधि का सेवन अब मैं नहीं करूंगी। सब छोड़ दूँगी ईश्वर की इच्छा पर यदि ईश्वर मुझे कन्या प्रदान करेंगे, तो मैं स्वयं को सौभाग्यवती समझेंगी। कन्या प्राप्ति की कामना पर भी अपने गर्भस्थ पुत्र सन्तान की अवहेलना भला मैं कैसे कर सकती हूँ?


मैंने जिद में आकर वही किया। गौतम द्वारा दी गई ओषधि का सेवन नहीं किया। मैंने प्रकृति के प्रवाह में स्वयं को मुक्तप्राण से बहा दिया और गौतम के अनजाने सारी ओषधि ग्रहण किए बिना गर्भवती हुई। मेरा यह भेद एक दिन गौतम के समक्ष खुल गया। मेरा गर्भस्थ शिशु पुत्र नहीं कन्या है, यह बात मेरे बाहरी लक्षण से वैद्यगण जान गए । उन्हें आश्चर्य था कि यह कैसे हो गया ? गौतम भी चिन्तित हो उठे। अन्त में प्रथा ने मेरे द्वारा ओषधि वर्जन का भेद गौतमजी के समक्ष खोल दिया। गौतम न केवल क्षुब्ध हुए, बल्कि चिन्तित और सन्दिग्ध भी हो उठे मेरे आचरण से उन्हें लगा कि उनसे छिपाकर कोई गम्भीर अपराध भी मैं पत्नी के रूप में कर सकती हूँ। उन्हें यह भी लगा कि मेरे अन्दर एक स्वतन्त्र सत्ता है, जो उनकी इच्छा और स्वामित्व को निर्विरोध स्वीकार कर लेने के बदले प्रश्न करने का दुस्साहस भी कर सकती है।


हालाँकि पुरुष- वीर्य में कमी और स्त्री-रज की अधिकता से कन्या सन्तान का जन्म होता है। वीर्यदानी कहलाना पुरुष का एक अहंकार है । सम्भवतः इसी कारण कन्या सन्तान की प्राप्ति से पुरुष का अहंकार बाधित होता होगा । पुत्र सन्तान में पुरुषवीर्य की अधिकता और स्त्री-रज की कमी होते हुए भी 'पुत्रवती' होकर नारी स्वयं को परम सौभाग्यवती और गौरवमयी कैसे समझ लेती है ?


हाय ! कन्यामुख दर्शन का अवकाश ही नहीं दिया मुझे गौतम ने मुझे गर्भभंग ओषधि पिला देने के कारण मेरा 'गर्भभंग' हो गया। उस समय मैं समझ नहीं सकी कि जो ओषधि मैं सुखकर प्रसव के नाम पर पी रही थी, उससे 'गर्भभंग' हो जाएगा। कन्या सन्तान की भनक लगते ही पिता-माता और वेदज्ञ वैद्यगणों द्वारा 'गर्भभंग' कराने जैसा पाप करना विरल है। परन्तु यह भी मेरे ही भाग्य में लिखा था।


ईश्वर की सृष्टिप्रक्रिया के विरुद्ध जाना 'पाप' है। इसलिए मैं कैसे सोच सकती थी कि वेदज्ञ वैद्यगण ऐसा घिनौना पाप करेंगे। जो वस्तु जीवनदान दे, वह ओषधि है। जो जीवन विनाशकारी हो, वह विष है। इसलिए प्रकारान्तर से मेरे प्रति, समाज के एक दण्डधारी प्रतिनिधि ने मुझे विषपान कराया है। मेरे मातृत्व पर हस्तक्षेप किया है। ओषधि है अरुन्धती जबकि गौतम द्वारा प्रदत्त ओषधि (विष) पीने से मेरा शरीर, मन, प्राण, आत्मा एवं एक एक भाव-कोष रुद्ध होने लगा है। मैं वह जाना चाहती थी... बंध गई अपने पति की निषेधाज्ञा से यदि इस बन्धन से मुक्ति सम्भव नहीं- मृत्यु तो सम्भव है ! मैं गर्भभंग की शारीरिक और मानसिक पीड़ा के कारण मृत्यु - यंत्रणा से कराहती रही। दिन-प्रतिदिन क्षीण होने लगी। शय्याशायी हो गई। अन्न, जल-स्पर्श नहीं कर पाई। एक अस्पष्ट-सी किलकारी मेरी छाती को लगातार चीरती जा रही थी। मैं अपनी कन्या सन्तान के हत्यारे अपने पति गौतम को बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी। वे केवल मेरे कन्याभ्रूण के हत्यारे ही नहीं, वे मेरे समस्त सुकोमल सपनों के व्याध हैं!


अन्त में मुझे इन्द्रदेव की शरण में जाना पड़ा। यह सच है कि विषाक्त जड़ी-बूटियों के सेवन से मेरा गर्भभंग हो गया, किन्तु गर्भ का भ्रूण पूर्ण अवयव शिशु में परिणत हो जाने के कारण गर्भपात नहीं हो सका। गर्भयंत्रणा से अधीर होने के बावजूद मेरी मृत सन्तान के बाहर आने का कोई लक्षण दिखाई नहीं दे रहा था। रक्तस्राव रुक ही नहीं रहा था। मैं क्रमशः कमजोर हो गई। अब केवल मृत्यु की प्रतीक्षा थी।


पिता ब्रह्मा, भैया नारद और अन्य ऋषि-मुनिगण अविलम्ब आ पहुँचे। गौतम निश्चित रूप से परेशान थे। वे मुझे इस तरह खोने को तैयार नहीं थे। क्योंकि इससे उन्हें सारा जीवन मेरी मृत्यु की ग्लानि भोगनी पड़ेगी। सबने मुझसे कहा कि इन्द्रदेव से प्रार्थना करके अश्विनीकुमारद्वय को मर्त्यलोक बुलवाया जाए। जब दिति का गर्भभंग हुआ था, तब अश्विनीकुमारद्वय ने ही गर्भ के विखण्डित भ्रूण को जीवन प्रदान किया था। उसी के फलस्वरूप सप्त- मरुत जन्मे थे। मेरे मन में भी एक क्षीण आशा का संचार हुआ कि मेरे गर्भस्थ विदीर्ण कन्या भ्रूण की जान बच सकती है और मैं भी एक कन्या के बदले सात कन्याओं की जननी बन सकती हूँ। किन्तु गौतम मेरी जान बचाने के लिए इन्द्रदेव से प्रार्थना करने के प्रति उतने आग्रही नहीं थे। मेरी जान बचाने के साथ-साथ सम्भवतः मेरे गर्भस्थ मृत कन्या भ्रूण की जान भी बच जाने की आशंका थी उन्हें इसलिए मर्त्यलोक के अनेक प्रख्यात वैद्यों से मेरा गर्भपात कराने की चेष्टा दो दिनों तक चलती रही। जब मेरी हालत अत्यन्त गम्भीर हो गई, तब सबने गौतम को एक तरह से बाध्य कर दिया इन्द्रदेव से प्रार्थना करने को। तब भी गौतम कुण्ठित थे ! वे आश्रम के लिए इन्द्रदेव की शरण में जा सकते हैं, किन्तु अपनी पत्नी की जान बचाने के लिए इन्द्रदेव की शरण में जाने से उनका अहंकारी स्वामित्व उन्हें रोक रहा था। मैं मन-ही-मन इन्द्रदेव का ध्यान करने लगी। अपनी कन्या की जान बचाने के लिए अन्तिम शय्या पर लेटे हुए उनसे विनम्र प्रार्थना करने लगी ।


मेरी मौन प्रार्थना शायद नारद भैया ने मेरी मौन प्रार्थना सुन ली। पलक झपकते ही वे इन्द्रदेव समेत अश्विनीकुमारद्वय को साथ लेकर आश्रम आ पहुँचे। इन्द्रदेव ने गौतम से अनुमति नहीं ली। मैं केवल गौतम पत्नी ही नहीं थी मैं ब्रह्मापुत्री भी थी। इसलिए इन्द्रदेव ने ब्रह्मा से अनुमति लेकर अश्विनीकुमारद्वय को मेरे गर्भस्थ भ्रूण - संहित मेरी जान बचाने का आदेश दिया।


गौतम ने कहा, "अहल्या की जान उसके गर्भस्थ शिशु की जान से अधिक मूल्यवान् है, इसलिए हालात के देखते हुए कन्या भ्रूण को बचाने के प्रयास में समय व्यय न करके अहल्या की जान बचायी जाए। *


गौतम के मन की बात अब किसी से छिपी नहीं थी। इसलिए इन्द्रदेव भी सब कुछ जानते थे । उन्होंने शान्त स्वर में कहा, मैं जानता हूँ कि अहल्या के गर्भस्थ शिशु के पिता तुम हो। इसलिए तुमने जिसका मृत्यु - विधान कर दिया है, भला उसे बचाने वाला मैं कौन होता हूँ, जैसी बात तुम्हारे मन में मेरे कार्य के प्रति विरोधी भाव उत्पन्न कर रही है। किन्तु गौतम ! तुम वेदज्ञ होते हुए भी दूरदर्शी हो। इसलिए सब कुछ जानते हुए भी कभी-कभी अज्ञानियों की तरह काम करते हो। पृथ्वी ओषधि की जन्मदात्री होते हुए भी द्युलोक है ओषधि का पिता या पालक । इसलिए मर्त्यमानव के रूप में तुमने जिस ओषधि का प्रयोग किया है, उसके विषम प्रभाव को काटने का अधिकार द्युलोकपति के रूप में मुझे है। इसके अलावा जान बचाने के लिए किसी से अनुमति लेने की प्रतीक्षा नहीं की जाती। यहाँ तक कि राजा भी प्रजा के जीवन का मनमाना उपयोग नहीं कर सकता। तुम अहल्या के पति भले ही हो, पर उसके जीवन और आत्मा के स्वामी नहीं हो। "


"तो फिर कौन है अहल्या की आत्मा का स्वामी ?" एक सन्दिग्ध स्वगतोक्ति से क्रोधित हो उठे गौतम, किन्तु उन्होंने स्वयं को यथासम्भव संयत करते हुए इन्द्रदेव की बात मान ली।


मेरी जान बच गई, लेकिन मेरी कन्या की जान नहीं बच पाई। चिकित्सा में काफी विलम्ब हो चुका था। विषाक्त ओषधि के विकट प्रभाव से न केवल मेरा गर्भस्थ शिशु नष्ट हो चुका था बल्कि मेरा जरायु (गर्भाशय) भी कमजोर हो गया था।


मैंने एक मृत सन्तान को जन्म दिया। मेरे जरायु ने सन्तान धारण करने की क्षमता खो दी है, स्वर्ग के वैद्यद्वय यह निष्ठुर घोषणा करके लौट गए। हाँ, सम्भवतः यही था एक जननी के जरायु का विद्रोह। जिस जरायु में मनुष्य के लिए इतने भेद हों, उस जरायु का बंध्या हो जाना ही बेहतर है।


जरायु बंध्या हो जाने से नारी का मन बंध्या नहीं हो जाता । मृतसन्तान को जन्म देने के बाद नारी वक्ष का अमृत सूख नहीं जाता। मैं मृत सन्तान को जन्म देने के बाद दुःख से उदास रहने लगी थी किन्तु मेरे वक्ष का अमृत-निर्झर सूखा नहीं था। अमृत-निर्झर भी विष जैसा काम करता है, यदि वह स्वार्थ की सीमा में बँधा रहे। यदि अमृत देवताओं के बीच सीमाबद्ध होकर न रहता, तो देवासुर संग्राम नहीं होता और न ही युग-युगान्तर तक आर्य- दास वर्ण विद्वेष से मानव जाति अथाह दुःखों से पीड़ित रहती ।



मेरी छाती का अमृत मेरी सन्तान के लिए सीमाबद्ध था। इसलिए मृत वत्सा हो मेरा वक्षामृत विषवत् मुझे यंत्रणा से बेचैन कर रहा था। यह मेरे मातृत्व का एक और विद्रोह था। मैं लगभग ज्वरग्रस्त रहने लगी।


प्रथा ने कहा, "घबराओ मत, ओषधि के प्रयोग से वक्ष का अमृत सुखाया जा सकता है।"


मैंने दृढतापूर्वक विरोध किया था, "गौतम द्वारा दी गई ओषधि मेरे शरीर में विषवत् कार्य करती है । इसलिए ओषधि सेवन करने की आवश्यकता नहीं। भले ही मृत्युवरण करूँगी, पर वक्ष से अमृत झरने का विरोध नहीं करूँगी।"


मेरे शरीर में प्रसूति दोष के रोग जीवाणु प्रवेश कर गए थे। मैं सूतिका रोग भोग रही थी। मुझे पिंग पेड़ के पत्तों और छाल का धुआँ सेवन करना पड़ता था। वह मेरे लिए अत्यन्त घुटन भरा था। फिर भी मेरे रोग के ठीक होने के लक्षण दिखाई नहीं दे रहे थे। वास्तव में मैं सूतिका-कक्ष में एक तरह से बँधकर रह गई थी। मेरे कक्ष में सूर्य का प्रकाश प्रचुर मात्रा में नहीं पड़ता था। स्वर्गराज्य से भैया नारद अश्विनीकुमारद्वय की सलाह लेकर आए थे। खुले स्थान पर पिंगलवर्ण का सूर्यकिरण मेरे शरीर पर पर्याप्त मात्रा में पड़ने से मैं रोगमुक्त हो जाऊँगी ऐसा उनका निर्देश था।


गौतम इसके लिए मना नहीं कर सके। सुबह-सुबह आश्रम से बाहर जाकर पिघलवर्णी सूर्यालोक पड़नेवाले खुले स्थान में भ्रमण करने की अनुमति मुझे मिल गई। प्रथा हमेशा मेरे साथ पहरेदार-सी रहा करती । धीरे-धीरे मुझमें शक्ति लौटने लगी। परन्तु प्रातः कालीन पक्षियों की चहचहाहट सुनते ही मेरा वक्षवास अमृतधारा से भीग जाता था और मैं मृतवत्सा होने के कारण अपने भाग्य को कोसने लगती ।


इस बीच मेरे शरीर का सौन्दर्य सौ गुना बढ़ गया था । इस बारे में आश्रमवासी नारियाँ और ब्रह्मचारीगण आपस में चर्चा करते थे। विवाह के समय भी मैं थी अर्धप्रस्फुटित एक कली- किशोरी। तब मेरे सौन्दर्य की आभा पूरी तरह फैली नहीं थी । विवाह के दस वर्षों के बीच मैं पूर्णयौवना युवती में बदल चुकी हूँ। मेरे शरीर की कान्ति आँखों की द्युति, केशों की नीलाभ सघनता और देह-सौष्ठव पूर्ण विकसित हो सबको मुग्ध - चकित कर रहे थे। गौतम मेरे सामने बहुत मुरझाए-मुरझाए से दिख रहे थे। कोई-कोई आश्रमवासिनी हम दोनों को देखकर अफसोस प्रकट करती 'हाय, ऐसे नारी रत्न के लिए गौतम जैसे वयस्क, नीरस और सौन्दर्यहीन पति ! यह कैसा विधान है विधाता का ? कैसा निर्णय है ब्रह्माजी का !' ऐसी बातों को भला कौन रोकेगा ? पेड़-पौधों का मर्मर और पशु- पक्षियों की नयन छटा भी तो यही कह रही है। गौतम के कानों में भी ये बातें पड़ी हैं। तो क्या उनमें हीनभावना पैदा हुई है? क्या इसीलिए वे स्वयं को मुझसे हर बात में श्रेष्ठ प्रमाणित करने के लिए मेरे प्रति क्रोधित और कठोर होने लगे हैं ? हालाँकि गौतम के मन में हीनभावना पैदा होने का एक और तर्कसंगत कारण भी है।



इन दस वर्षों में गौतम मुझसे उम्र में जितने बड़े थे, उतने ही बड़े हैं, किन्तु लम्बाई में मैं उनसे पाँच अँगुली बढ़ गई हूँ। वे मुझसे छोटे लग रहे हैं। अधिकांश महर्षियों की पत्नियाँ लम्बाई में बड़ी होने के उदाहरण हैं। उसका कारण स्पष्ट है। पूर्णावयव महर्षिगण परिपक्व आयु में बालिका वधू से विवाह करते समय यह नहीं सोचते कि बालिका वधू का शरीर पूर्ण विकसित होने पर सम्भवतः वे उनके समक्ष छोटे पड़ जाएँगे । गौतम लम्बे नहीं हैं इसलिए मैं पूर्ण यौवन प्राप्त करने पर गौतम से लम्बी हो गई गौतम को मेरे साथ खड़े होने में अटपटा लगता था । सम्भवतः अपने रूप और अवयव से मेरे सौन्दर्य और आकृति की तुलना करके हीनभावना के शिकार हो जाते थे। मैंने गौर किया है कि किसी दीर्घकाय, बलवान् एवं सुदर्शन पुरुष के साथ मुझे बातें करते हुए देखना गौतम बिलकुल सहन नहीं कर पाते थे। नाहक़ ही क्षुब्ध हो उठते हैं। मुझसे रूखा व्यवहार करते हैं। क्या सभी पुरुषों में ऐसी भावना उत्पन्न होती होगी ? पति को पत्नी से हर चीज में श्रेष्ठ होना विधेय है, यहाँ तक कि ऊँचाई में भी !


गौतम ने मुझसे आदेशसूचक गम्भीर स्वर में कहा, "इन्द्रदेव पहुँचने ही वाले हैं। वे हमारे परम अतिथि हैं। अतिथि देवता होते हैं। अतिथि की सेवा के लिए निष्ठा हो तो अस्वस्थता क्या मृत्यु को भी रोका जा सकता है। तुम्हारे अन्दर संकल्प का अभाव देख मैं अत्यन्त मर्माहत हुआ। उठो और मेरी पत्नी के रूप में अतिथि सत्कार का समस्त प्रबन्ध करो ताकि इन्द्रदेव किसी कारण से असन्तुष्ट न हो जाएँ। उनके असन्तुष्ट होने से न केवल मेरी या आश्रम की क्षति होगी - आर्य भूखण्ड की भी प्रचुर क्षति होगी। ऐसा हुआ तो मेरे ही यश की हानि होगी। गौतम आश्रम की प्रसिद्धि बाधित होगी। इसके लिए आरोप तुम्हीं पर लगेगा।"


गौतम के आदेश के बाद अब विरोध करने का प्रश्न ही नहीं था। वास्तव में आचार्य पत्नी का कर्त्तव्य मुझे ही निभाना पड़ेगा। इन्द्रदेव प्रसन्न हुए तो पंचनदी की जल सम्पदा में ज्वार उठेगा। गौतम आश्रम समेत यह समूच भूखण्ड भूख और अकाल से बच जाएगा। उसके बाद गौतम निश्चिन्त और निष्काम होकर तपस्या करेंगे देवर्षि - या फिर इन्द्रपद प्राप्त करने के लिए। पति की पदोन्नति में पत्नी को ही बलि चढ़ना पड़ता है।


गौतम का निर्देश मानकर मैं अभिमान और क्रोध त्यागकर उठी और इन्द्रदेव के आतिथ्य के प्रबन्ध में जुट गई।


किन्तु आज मैं अतिथि सेवा करने से झिझक रही थी, यह बात आश्रम में किसी से छिपी नहीं रहीं। मैं पति की इच्छाओं का विरोध कर रही हूँ एवं पति के साधना-पथ पर बाधक हो सकती हूँ, इन बातों पर चर्चाएँ होने लगीं। गौतम के पतित्व का अहंकार इससे बाधित होना स्वाभाविक था। पत्नी की भला कैसी अलग इच्छा और अलग विचार। पति की इच्छा से पत्नी नरक तक में कूद सकती है। कहते हैं, पति की सहायता से ही वह नरकलोक से स्वर्गलोक में जाती है, इसलिए स्वर्गप्राप्ति के लिए पत्नी को तपस्या या साधना करने की आवश्यकता नहीं। ऐसी चर्चाओं से मुझे सुख नहीं मिलता था। मेरे भीतर की स्वतन्त्र आत्मसत्ता उसका चुपचाप विरोध करके लहूलुहान होने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकती थी। सोचा, क्या सचमुच एक न एक दिन पति के यश-लाभ


और पदोन्नति के पथ पर मुझे असहाय हो नरकलोक में छलाँग लगानी होगी ? इसमें क्षति ही क्या है ? उसी पुण्य के बल पर क्या मुझे पुनः स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त नहीं होंगे ? नहीं सम्भवतः मैं नरकवास को ही श्रेय समझँगी । - नरक में ही सही, कम-से-कम अपनी इच्छा से कोई-न-कोई दण्ड भोगने का अवसर तो मिलेगा। सम्भवतः मेरी आत्मसत्ता का रक्तस्राव उसी से रुक जाए।


मैंने पति की इच्छा और उनके सिद्धि मार्ग पर स्वयं को स्वाहा कर डालने की प्रतिज्ञा की। इसके सिवाय कोई और गति नहीं थी । मैं तो गौतम द्वारा मेरे हाथ में बाँधे गए कृशतृण के वलय में क़ैद थी।


किन्तु इन्द्रदेव नहीं आए। आश्रम के लोगों ने बड़ी उत्कण्ठा के साथ प्रतीक्षा की थी। ऐसा नहीं था कि मुझमें भी उत्कण्ठा नहीं थी। सभी निराश हुए। गौतम की निराशा में आशंका, सन्देह और मेरे प्रति क्रोध एवं खीज साफ़ झलक रही थी।


उस दिन सांध्यहोम से पहले पति के पैर धोने के लिए अंजलि में जल भरते ही उसमें इन्द्रदेव का प्रतिबिम्ब देखकर मैं चौंक उठी। छाती की तेज धड़कन से अंजलि खुल गई। जल नीचे गिर गया। पति के पैर अनधुले रह गए। क्या यह मेरे मन का भ्रम था ?


उठो अहल्या ! इन्द्रदेव को भिक्षा प्रदान करने की घड़ी आ गई। इन्द्र समस्त ऐश्वर्य के अधिकारी होते हुए भी तुम्हारी श्रद्धा प्राप्त करने के लिए तुम्हारे द्वार पर भिक्षाबाल लिए खड़े हैं। हे अहल्या ! स्वार्थ को स्वाहा करके पृथ्वी को इन्द्र के अभिशाप से बचा लो। पृथ्वी माता तुमसे महान् बलिदान माँग रही हैं। देवी अहल्या ! आहुति की पुण्य घड़ी प्रमादवश टल गई तो स्वाहा के लिए तुम्हें दुबारा महार्घ लग्न नहीं मिलेगा। पृथ्वीमाता की भूख के लिए तुम जन्म-जन्मान्तर जिम्मेदार रहोगी। स्वयं को बलि चढ़ाने से पहले भोग-भावना छोड़कर त्याग भावना से उद्बुद्ध होओ । हे अहल्या ! अहंकार ही पृथ्वी पर अकाल पैदा करने वाला शत्रु है। इन्द्रदेव, गौतम और तुम स्वयं अपने-अपने अहंकार को लेकर एक-दूसरे से कटे हुए हो। जब तक तुम लोग एक-दूसरे से नहीं जुड़ते, तब तक सोमयाग की पूर्णाहुति सम्भव नहीं।


शैल, सरिता और सिन्धु । कोई एक-दूसरे से अलग रहकर सार्थक नहीं होता। सबकी महिमा और महत्त्व समान है। सिर्फ़ रूप अलग-अलग हैं। शैल ऊँचाई के कारण महान् है सरिता महान् है अपने लम्बे प्रवाह के - कारण और सिन्धु महान् है अपनी अकल्पनीय गहराई के कारण। ऊँचाई, व्याप्ति और गहराई, इनमें से कौन मुख्य है, कौन गौण ? तीनों अपने-अपने गुणों और स्थानों में गरिमामय हैं। तीनों एक-दूसरे से जुड़ने पर ही शैल बन जाता है जलकल्प, नदी बन जाती है चिरस्रोता, सिन्धु बन जाता है सरितापति अनन्त जलाधार। अतः आज पृथ्वी को प्रलय से बचाने के लिए निरभिमान हो एक-दूसरे से जुड़ जाओ। हे अहल्या ! तुम्हारे द्वार पर अतिथि इन्द्रदेव पधार चुके हैं। उठो! भिक्षा की घड़ी आ गई है, प्रतिश्रुति पूर्ण करने की घड़ी आ गई है।



शैल शिखर से सरिता की धारा में बहते बहते में सिन्धुतट तक पहुँच गई। मेरे सामने अनन्त अमृत भावसिन्धु है । सारी शून्यता दूर हो गई मेरी छाती से सारे घाव सूख चुके हैं। समुद्र मुझे पूर्णता का पथ दिखा रहा है। समुद्र जैसा पूर्ण कौन है ? भीतर, बाहर, तट, क्षितिज सब पूर्ण हैं, भरे हुए हैं।


समुद्र की छाती में गहरा दुःख उत्पन्न होने पर वहाँ भाव तरंगें सिर उठाकर अपना प्रभाव दिखाती हैं। फिर से समतल हो जाती है समुद्र की छाती मिट जाती है शून्यता की गहराई। फिर वहाँ तरंगें नहीं बची रहतीं, न ही बची रहती है गहराई।


हर जगह असीम निःस्पृहता है। हर जगह अखण्ड निर्लिप्त भाव है। आकाश और पृथ्वी पर समुद्र का आलिंगित छन्द है। कौन है दाता ? समुद्र, आकाश या पृथ्वी ? पूर्वाह्न आकाश जब समुद्र की छाती में उड़ेलता है। असंख्य हीरे के टुकड़े समुद्र उन्हें अपने विशाल अतल खजाने में सहेजकर रख सकता है अपनी सम्पत्ति बनाकर । लेकिन वह उन हीरों के टुकड़ों को नीले फेनिल धागे में पिरोकर दिगन्त व्यापी हार में गूँथकर पृथ्वी की छाती में पहना देता है प्रीति के गुरुगम्भीर सम्भाषण से पृथ्वी वह अपार्थिव हीरे का हार गले में पहने हुए हमेशा सम्भ्रान्त मुद्रा में मुस्करा सकती है। किन्तु हीरे का वह फेनिल हार पृथ्वी की छाती का स्पर्श करते ही क्यों उसकी पलकें भीग आती है ? कौन-सी अनकही अपूर्णता है पृथ्वी की ? कितना निर्लोभ निःस्पृह है पृथ्वी का मन !


पृथ्वी अपनी गीली छाती पर स्मृतियों के कुछेक घोंघे स्वीकार करके हीरे का हार सादर लौटा देती है समुद्र के विस्तीर्ण छाती को । किन्तु समुद्र तो दाता है। वह भला किसी की कहाँ सुनता है ? निरन्तर 'देने' की साधना से उमड़ती रहती हैं उसकी लहरें पृथ्वी, समुद्र, आकाश का सम्बन्ध सिर्फ़ 'प्रीति लो प्रीति लो' के मन्त्र से गूँजता रहता है।


दूर समुद्र के सीने में कुछ छोटी-छोटी ख़ाली नौकाएँ लहरों पर अठखेलियाँ कर रही हैं। नीले आकाश में काले-काले पक्षियों की तरह खाली नौकाएँ स्वच्छन्द हो खुले मन से, आनन्द से अठखेलियाँ कर रही हैं। चिन्ता, फिक्र, भय कुछ नहीं है। उन्हें देखनेवाली आँखें कितनी भाग्यवान् हैं !


नौकाएँ मेरे हाथ की पहुँच में लौटकर आ रही हैं। कुछ ख़ाली नौकाएँ बन जाती हैं ख़ाली पेट । चारों ओर


सुनाई दे रहा है भूख का आर्तनाद ।


सपना टूट गया। द्वार पर किसी की मृदुमधुर दस्तक सुनाई दे रही है। नींद से अलसायी देह किसी का सान्निध्य ढूंढ़ रही है। गौतम कहाँ चले गए? क्या इतनी जल्दी प्रातः स्नान के लिए निकल गए ? द्वार पर अतिथि खड़े हैं। सपने का स्वर सत्य का संगीत बनकर मुझे अधीर कर रहा है-


बलिदान की घड़ी आ पहुँची। मैं कौन हूँ? मैं ऊसर, वर्षातुर पृथ्वी हूँ ! मैं प्रतीक्षिता अहल्या हूँ - मैं


स्पर्शरहित अहल्या हूँ ....



मेरे पैरों में, हाथों में, स्वप्न और अभीप्सा की सख्त बेड़ियाँ पड़ी हैं। बाहर ताला बन्द है। गौतम चाबी लेकर नदी गए हैं । बन्द द्वार के उस ओर खड़े हैं परम अतिथि इन्द्रदेव । अपमान जर्जरित में अहल्या परम विद्रोही मैं अहल्या । अतिथि के सम्मुख मेरे प्रति पति के अविश्वास का प्रमाणपत्र लटक रहा है। कहाँ से आ गई इतनी शक्ति इतना दुस्साहस मुझमें ! मेरी एक ही गर्म साँस से टूट गया अनादिकाल से बन्द कारागृह । -


खुल गया कुटी का द्वार द्वार पर खड़े हैं परम मनोहर, परम काम्य, परमप्रिय अतिथि देवता इन्द्रदेव । - मेरी देह के एक-एक भावकोष में उनकी कान्ति झलक रही है।


यदि चाँद ढूँढते ढूँढते आकाश मिल जाए, पृथ्वी की मुट्ठीभर मिट्टी माँगने पर मिल जाए विश्व-ब्रह्माण्ड, मनुष्य ढूँढते ढूँढते मिल जाएँ ईश्वर, एक भीगा जलकण ढूँढते ढूँढ़ते मिल जाए रत्न-भरा सागर, जीवन ढूँढते ढूँढ़ते मिल जाए अमरत्व, एक नितान्त निजी क्षण ढूँढते ढूँढ़ते मुट्ठी में समा जाए महाकाल तो कैसी होगी मनुष्य की अः स्थिति ? मेरी स्थिति का वर्णन करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं थे। मैंने तो चाही थी अपने पति गौतम की मनः यज्ञसिद्धि मैंने चाही थी प्यासी पृथ्वी के लिए वर्षा की भीख, मैंने चाहा था अहल्या पृथ्वी के लिए अन्न-कण - - परन्तु इस सबके दाता इन्द्रदेव यदि स्वयं ही मुझे मिल गए हों तो मेरी स्थिति क्या हुई होगी? - -


मैंने कहा- "प्रियतम प्रभु ! वरदान देने की घड़ी आ गई। इस पृथ्वी को बचा लें। मैं भिक्षाप्रार्थी हूँ !"


"अहल्या ! प्रार्थी कभी भीख नहीं माँगता बिना दान के वह प्रतिदान नहीं माँगता। आज में भी प्रार्थी हूँ। वरदान दो देवि ! अपना दिया हुआ वचन पूरा करो। जीवन में मैंने कभी किसी से प्रार्थना नहीं की। कभी किसी से कुछ ग्रहण नहीं किया। केवल दाता का जीवन भोगा है। दाता का दुःख मेरे सिवा और कौन जान सकता है ? दाता को भी अभाव होता है, वह भी अपूर्ण होता है। उसी अपूर्णता के कारण आज मैं तुम्हारे द्वार पर पर खड़ा हूँ। मुझे पूर्ण करो देवि !"


मेरी चेतना में गौतम दुन्दुभित हुए। मैंने स्वप्न देखने-सा मन ही मन बुदबुदाया "जगत् मिथ्या, ब्रह्म सत्य। "


"यह नितान्त सच है अहल्या, किन्तु यह मिथ्या जगत् ही सत्य के लिए सिद्धिलोक है। इस मिथ्याजगत् में ही इच्छाएँ पूरी होती हैं। स्वर्गलोक में इच्छाएँ होती ही कहाँ हैं ! मिथ्याजगत् के सिवा तप करने का अवसर और किसी लोक में नहीं है। त्याग यहीं किया जाता है। मिध्याजगत् की मधुर भ्रान्तियाँ ही ब्रह्मसत्य की उपलब्धि कराती हैं। आओ अहल्या ! तुमने तो मुझे प्रतिश्रुति दी है। "


मेरी अपूर्ण, अनुर्वरक और शुष्क इच्छाओं की प्रतिश्रुति ने मुझे लाचार कर दिया। चरम त्याग के उस महान् क्षण में तर्क, वितर्क और वार्तालाप के लिए अवकाश नहीं रह जाता।



शय्या के निकट खड़ी थी मैं। मेरे केश खुले थे। शरीर में अंगराग नहीं थे मैं निरावरण थी। मैं गौतम पत्नी अहल्या थी ।


"क्या वरदान चाहिए प्रभु ?"


मैं हाथ जोड़े खड़ी थी। अपने मनोरम हाथ बढ़ाकर उन्होंने मेरी हथेली को स्पर्श किया। स्पर्श के अहसास से जड़ में भी जान आ जाती है। यह कैसा मधुकम्पन होने लगा मेरे भीतर ? अननुभूत सुख ढूँढते ढूँढते मानो मैं परमानन्द प्राप्त करने जा रही थी। अपने हाथ का स्पर्श देने से अधिक भला मैं और क्या कह सकती थी ? एक स्पर्श में ही अथाह शक्ति होती है ? मेरा लौहबन्धन तार-तार हो गया स्पर्श की शक्ति से स्वयं को धीरे-धीरे हविः बना डालने के पथ पर पृथ्वी की कोई भी शक्ति बाधा नहीं बनी।


महाकाल के वक्ष पर वे अभिलाषापूर्व घड़ियाँ थीं निःशर्त । वहाँ लाभ-हानि, यश-अपयश, अतीत- भविष्य, स्वर्ग-नरक, वरदान अभिशाप का द्वन्द्व नहीं था, जबकि प्रतिश्रुति, वरदान और प्रतिदान की कठोर शय्या पर पैर रखकर उतर आयी थीं वे घड़ियाँ देह से मनोभूमि में ।


मुझे यहीं अनुभूति हुई कि सारी सीमाएँ अनुशासित होते हुए भी मेरे भीतर ऐसा कोई था, जिसने मुझे अगम्य स्थान की ओर उड़ जाने को प्रेरित किया। उस शक्ति ने सारे बन्धन और बेड़ियाँ तोड़ डालीं। बेड़ियाँ तोड़ना मनुष्य का सहज स्वभाव है। रिश्ते जब बेड़ियाँ बन जाती हैं तभी वे रिश्ते टूटते हैं, बन्धन टूटते हैं। बन्धन टूटने की घड़ियाँ बड़ी दुर्वार होती हैं, प्रमत्त होती हैं। बन्धन टूटने के विषाद और मुक्ति के उद्घोष एवं विषाद- प्रफुल्लित भावावेग से वे घड़ियाँ थीं मधुर पीड़ादायी ।


तत्त्व और ज्ञान उस भावावेग के उच्छवास से निर्वासित हैं। दुविधा, द्वन्द्व, विचार उस घड़ी निर्वेद हैं। वह घड़ी, निष्कपट समर्पण की घड़ी है। स्वयं को दूसरे के लिए उड़ेल देने की घड़ी। वह घड़ी थी प्रेम की घड़ी, जिस प्रेम में दूसरा पक्ष नहीं होता। लेन-देन का हिसाब नहीं होता। उस घड़ी का आकर्षण इतना दुर्दम्य होता है कि वहाँ पाप-पुण्य, नीति-नियम अन्धे और बहरे हो जाते हैं।


उस घड़ी मेरे भीतर छल-कपट नहीं था। वह घड़ी निष्कपट, विशुद्ध प्रेम की घड़ी थी। उस समय मैं विभाजित नहीं थी। पूरी की पूरी इन्द्र की थी। वह घड़ी भ्रान्ति की घड़ी नहीं थी क्रान्ति की घड़ी थी। उस घड़ी ने प्रलय को स्तब्ध कर दिया था।


मैं नहीं जानती, प्रेम की वह घड़ी इन्द्र के लिए निःशर्त और निष्कपट थी या नहीं। किन्तु नारी के लिए प्रेम निःशर्त होता है। देहभोग की वासना उस प्रेम की शर्त नहीं होती किन्तु क्या पुरुष के लिए देहभोग प्रेम की शर्त है ? अतः प्रेम की उपलब्धि से इन्द्र की अपूर्णता पूर्ण हुई या नहीं, मैं नहीं जानती। किन्तु मैं पूर्ण, परिपूर्ण हो गई थी।



我 इन्द्रलुब्धा नहीं थी मैं थी इन्द्रमुग्धा में इन्द्र से होकर उत्तरण के सोपानों पर चढ़ती जा रही थी पृथ्वी से पृथ्वी की अतल में, आकाश से होते हुए आकाश से भी ऊँचा । इन्द्रिय आनन्द से इन्द्रानन्द में - परमानन्द की उपलब्धि में। इन्द्रानन्द सोमरस पान की तरह अपार्थिव है।


आत्ममुक्ति या जगत् की मुक्ति ? इस प्रश्न का उत्तर इन्द्र पा चुके थे। आत्म-मुक्ति के मार्ग पर इन्द्र सदा बाधा उत्पन्न करते हैं। क्या गौतम के यज्ञ का लक्ष्य आत्ममुक्ति था ? अपरिपक्व ज्ञान, साधना, उम्र और अनुभूति के बिना उत्तरण, मुक्ति और अमरत्व की कामना करना विडम्बना है। देवतागण मनुष्य की इस बुरी आकांक्षा का विरोध करते हैं । सम्भवतः इसीलिए इन्द्र ने गौतम का विरोध किया और मुझे प्रदान की सत्य की अन्तरंग अनुभूतियाँ।


स्वाहा है यज्ञ की आत्मा । यज्ञ के मन्त्र का अन्तिम और श्रेष्ठभाग है स्वाहा। सु-आहुति स्वाहा का श्रेष्ठ गुण है। मैंने इन्द्रदेव के लिए स्वयं को स्वाहा कर दिया ।


मेरी मिथ्या देह है सत्य की सिद्धिभूमि में थी कन्या, पत्नी, गृहिणी, किन्तु मैं 'नारी' नहीं बन पाई थी। इन्द्र के स्पर्श से मैं 'नारी' बन गई। मैं पूर्ण हो गई। पूर्ण से पूर्ण निकालने की शक्ति भला किसमें है? यदि किसी में हुई तो पूर्ण से पूर्ण निकल जाने पर भी मैं पूर्ण ही रहूँगी ।


"हे इन्द्रदेव ! मैं कृतज्ञ हूँ । आपने मुझे पूर्णता का अहसास कराया। आपने मेरे जड़ बन चुके नारीत्व में


फिर से प्राण फूँक दिए। "


मैंने इन्द्रदेव को प्रणाम किया। प्रभात हो चला था। क्या पक्षियों ने रात के महाप्रलय का सामना नहीं किया ? उनके कलरव में कहीं कोई अस्वाभाविकता नहीं थी। इन्द्रदेव प्रस्थान करने को उतावले थे। विदा की घड़ी आ गई । इन्द्रदेव निर्लिप्त-निराकार थे। किन्तु वे तृप्त थे, यह स्वीकारने में उनमें कोई झिझक नहीं थीं।


"अहल्या, मैं तृप्त हुआ। तुम्हारा दान अतुलनीय है। प्रेम की चिर-आराध्या देवी बनकर तुम मेरी अन्तरवेदी में सदैव पूजी जाओगी। आज के इस देह संगम की स्मृतियाँ, तुम्हारी देह की सारी सुरभित सुगन्ध मेरी देह की समस्त ग्रन्थियों में सदा भाव-तरंग बनाते रहेंगे। तुम्हारे पति के पदचाप सुनाई देने लगे हैं। मैं तुम्हारा मुक्तिदाता नहीं- मैं तुम्हारा भाग्य और नियति नहीं। मैं तुम्हारी परीक्षा भी नहीं। तुम स्वयं ही अपनी परीक्षा, भाग्य और नियति हो । साधना का द्वार अब तुम्हारे लिए खुल चुका है। मुझे विदा दो और अपनी रक्षा करो। "


इन्द्र के विदा होते समय मुझे ठेस नहीं पहुँच रही थी- क्योंकि मैं जानती थी, मैं मर्त्य की नारी हूँ। इन्द्र मेरे भाग्यविधाता नहीं बन सकते। यह विदाई तय थी। किन्तु मुझे ऐसी अवस्था में छोड़कर, गौतम के पहुँचने से पहले किसी लम्पट पुरुष की तरह जल्दी-जल्दी वहाँ से भागने लगना मुझे बहुत कष्ट दे रहा था। तो क्या इन्द्रदेव भाव के सम्राट् नहीं हैं क्या वे भोग-लम्पट हैं, एक सामान्य पुरुष ? क्या मेरे क्षणभंगुर सुन्दर देहभूमि पर विजय पताका फहराकर गौतम को नीचा दिखाना था इस प्रेम का लक्ष्य ? तब तो यह प्रेम नहीं था, एक भ्रान्ति थी। क्या मैं इन्द्रयोग्या नहीं थी, इन्द्रभोग्या थी ? यह सोचकर दुःख और आत्मग्लानि से उदास हो उठी। इन्द्र ने गर्व के साथ गौतम का सामना किया होता तो मैं इन्द्र को परम प्रेम के स्थान पर रखकर बाक़ी का जीवन पूर्णता से रँग लेती। प्रेम निर्भीक होता है, प्रेम निरहंकार होता है प्रेम निःस्वार्थ होता है। जबकि एक कामुक पुरुष की तरह अपने स्वार्थ को बड़ा करके ऋषि के कोप के भय से मुझे असहाय अवस्था में छोड़ कर वहाँ से खिसक लेने के कारण मेरे सच्चे अहसास पर एक काली रेखा खींच दी उन्होंने यह प्रेम है या भ्रम, पाप है या पुण्य ? उचित है या अनुचित ?


किन्तु मैंने जो कुछ किया, जान-बूझकर किया। जब आत्मा प्रेम के लिए समर्पित हो जाती है, तब देह अपनी सत्ता खो देती है और आत्मा के साथ देह भी समर्पित हो जाती है। इसलिए उस क्षण मुझमें ग्लानि या पापबोध नहीं हुआ। मिलन के सुख और विरह के दुःख दोनों से आज मेरा नारीत्व परिपूर्ण था ।


मनुष्य एकान्त में ही पाप कर्म करता है। परन्तु एकान्त होता कहाँ है ? अन्तर्यामी विश्वकर्त्ता तो विश्व में सर्वत्र विद्यमान हैं। हम जाग्रत् न हो तो भी वे हमारे अन्दर सदा जाग्रत रहते हैं, हमारे अन्दर का संकल्प-विकल्प वे जानते हैं। पाप कर्म के घटित होने के पहले से लेकर पाप कर्म होने की घड़ी तक एवं उसके बाद भी वे वहाँ रहकर सारा कुछ देखते रहते हैं। अपना पाप मनुष्य स्वयं भी नहीं देख सकता- पाप करते समय वह अन्धा हो जाता है। लेकिन मनुष्य का पाप कर्म सर्वद्रष्टा विश्वनियन्ता को दिखाई देता है। पापी के गोपनीय स्थान पर पहुँचने से पहले ही सर्वव्यापी प्रभु वहाँ पहुँच चुके होते हैं।


मनुष्य के एकाकी रहकर कोई कार्य करते समय प्रभु द्वितीय बनकर उसके पास होते हैं। दो लोग पाप कर्म में लिप्त होने पर वे तृतीय बनकर रहते हैं। यह न जानकर मनुष्य पाप कर्म करता है, किसी के पहुँचने से पहले ही वहाँ से खिसक लेने की चेष्टा करता है। इसलिए जब इन्द्रदेव गौतम के आने की आहट सुनकर भय से खिसक लेने की सोच रहे थे, मैं जान गई थी कि पाप नहीं छुपेगा। हम दोनों के बीच जो भी कुछ घटित हुआ, उसे मैंने 'पाप' के रूप में स्वीकार न किया होता, यदि इन्द्रदेव मेरी आँखों को 'पापी' की तरह न दिखे होते। कहाँ चला गया इन्द्रदेव का वीरत्व, साहस, तेज, निर्भीकता, श्री और सौन्दर्य ? वे गौतम को अपने सामने देखकर निष्प्रभ और बलहीन क्यों हो गए ? उनका चिर-उन्नत मस्तक झुक गया। उनकी वज्र जैसी भुजाएँ टूटी हुई टहनियों की तरह निर्बल और असहाय लग रही थीं। उनकी दर्पित दृष्टि कातर प्रार्थना से त्रस्त और करुण दिखाई दी। क्या ये ही हैं आर्य नेता, परमवीर आर्यों के रक्षक, मानव से देवता, देवता से देवराज के पद तक पहुँचे परम ऐश्वर्यशाली स्वर्गपति इन्द्रदेव ? क्या ये ही हैं मेरी कल्पना के परमकाम्य प्रेमी पुरुष इन्द्रदेव ? मैं तो सोचती थी कि प्रेम शक्तिमय करता है। तो क्या यह प्रेम नहीं था ? क्या यह कामलिप्सा थी, भोग लम्पटता थी ? हे प्रभु! यदि आपने मुझे इन्द्रदेव का यह दयनीय रूप न दिखाया होता तो मैं आपके प्रति कृतज्ञ रहती । इन्द्रदेव के 'प्रेमी रूप' में डूबे रहकर मैं अपना सारा जीवन उनकी प्रेमिका बनकर बिता देती। मेरी ही आँखों के सामने यह दृश्य क्यों घटित हुआ ? सम्भवतः मेरा पाप मुझे जता देने के लिए ही यह नाटक का एक अनसोचा अन्तिम दृश्य था ।


महर्षि गौतम की दृष्टि अग्नि-सी जल रही थी। भय से रूपराज इन्द्रदेव के चेहरे का रंग उड़ गया था। वज्रगम्भीर स्वर में भर्त्सनाभरी वाणी सुनाई दी पतिदेव के कण्ठ से । तपोवन में पाप की यह कैसी अनार्य लीला है ! जितेन्द्रिय साधक की भूमि पर संयम की यह कैसी दयनीय परिणति है ! त्याग की इस तीर्थभूमि पर भोग का यह कैसा बीभत्स कार्य ?


"वासव, तुम तो देवताओं के प्रतिनिधि देवराज हो, स्वर्ग के अधिपति, आर्यों के रक्षक, परम शक्तिशाली वीर हो । जगत् के अभीष्टदाता हो ! स्वर्ग में तुम्हारी प्राणप्रिया पत्नी शचीदेवी एवं असंख्य अप्सराएँ हैं । मर्त्य की इस मूढ नारी ने तुम्हारी समस्त शक्तियों और प्रचण्ड पौरुष पर पदाघात करके तुम्हें स्खलित कर दिया ! तुम्हें कामुक और लम्पट बना दिया ? क्या इतने क्षुद्र हो तुम ? तुम चाहते तो इस सामान्य नारी को मुझसे जीतकर ले जा सकते थे। चोरों की तरह लुक-छिपकर इस कामातुर मूढ़ नारी को प्रशंसा भरे वाक्य कहकर, इसे भोगकर स्वयं निष्प्रभ हो गए। सप्तसिन्धु में तुम्हारा अभिमान चूर-चूर हो गया। अब आज से तुम पूज्य नहीं रहे। तुम घृणित और निन्दनीय हो गए। मैं तुम्हें अभिशाप देता हूँ, तुम चाहे कितनी ही सुन्दरियों का भोग करो, तुम्हारी कामज्वाला नपुंसक पुरुष की तरह कभी शान्त नहीं होगी। तुम कामवासना से जन्म-जन्मान्तर पीड़ित रहोगे। हे जार पुरुष ! इस समय तुम पाप के प्रतिरूप एक भीगी बिल्ली की तरह दिख रहे हो। धिक्कार है तुम्हारे इन्द्रत्व को !"


गौतम का ऐसा तेजस्वी रूप मैंने पहले कभी नहीं देखा था। इन्द्र का भीगी बिल्ली-सा रूप मेरी कल्पना से परे था। मेरे परम पुण्यवान् पति के सम्मुख इन्द्र पाप की कुत्सित परछाई लग रहे थे। परम प्रतापी इन्द्र गौतम की भर्त्सना सुनकर बिना कुछ बोले सचमुच भीगी बिल्ली की तरह वहाँ से खिसक लिए। उनके सिर से गिर पड़ा मणिमय मुकुट । उसे उठाने तक का साहस नहीं था इन्द्र में, स्वर्ण रथ पर चढ़ने का मनोबल भी नहीं था उनमें। वे अरण्य के संकीर्ण कंटकित मार्ग से होकर पीछे मुड़कर देखे बिना एक चोर की तरह वहाँ से चले गए।


पृथ्वी का एक छोटा-सा झटका मनुष्य के बनाए अपार वैभव को क्षणभर में धूल में मिला देता है, आग की एक नन्ही सी चिनगारी अथाह ऐश्वर्य को पलक झपकते भस्म कर देती है, एक बूँद विष अमृत की महिमा को विषाक्त कर देती है, इसी तरह मेरे जीवन भर का समस्त पुण्य इस क्षणिक पाप से धूल में मिल गया।


जिस तरह अग्नि से अग्नि प्रज्वलित होती है, उसी तरह पवित्रता से पवित्रता और पुण्य से पुण्य ही उत्पन्न होता है। विशुद्ध प्रेमभाव लिए, पुण्य संकल्प लिए, मैंने स्वयं को स्वाहा कर दिया था। तो फिर मेरे पति घृणित दृष्टि से मेरी ओर क्यों देख रहे हैं? क्या मेरा देह समर्पण वासनाजड़ित था ? मैं स्वयं को पापिन क्यों नहीं मान रही ? दैहिक सम्बन्धों की वैधता अवैधता को लेकर यदि पाप-पुण्य की परिभाषा की जाए तो अधिकांश आर्य, राजा, ऋषि और यहाँ तक कि देवता को भी महापापी कहा जाना चाहिए। वैधता से बाहर न जाने वे कितनी परनारियों का भोग करते हैं। किन्तु सिर्फ़ अहल्या के लिए ही पाप की यह दुनिया किसने गढ़ी ? कौन है इस पाप को करने वाला ? मेरे पिता पति प्रेमी यह समाज ?



न जाने मैं क्या कुछ सोच रही थी। सोच रही थी कि कहाँ है वर्षा कहाँ मिली सिद्धि ? क्या मेरे बलिदान का फल यह अमिट कलंक है अमुक्त अभिशाप है ?


मैं स्वयं ही यज्ञ हूँ, स्वयं ही स्वाहा, और फिर स्वयं ही आत्माहुति देकर परित्यक्त दग्धभूमि में परिणत हो चुकी हूँ।


क्या गौतम मेरी मनःस्थिति समझ पाएँगे ? क्या पुण्य और तपस्या से परे उन्होंने कभी मुझे समझने की चेष्टा की है ? पुण्य और तपस्या से परे भी जीवन प्रवाहित है, इस बात पर वे विश्वास नहीं करते। अब मुझे क्या करना चाहिए ? क्या इन्द्रदेव का अनुसरण करूँ ? उनकी शरण में जाऊँ ? छिः, जो अपनी ही रक्षा करने में असमर्थ हैं, भला वे मेरी रक्षा क्या करेंगे ? मेरी रक्षा करनी होती तो क्या वे मुझे गौतम का अभिशाप पाने के लिए छोड़ जाते ? बल्कि वे गौतम के सम्मुख गर्व के साथ खड़े होकर सारी दुनिया को सुनाते हुए कहते, 'मैंने तुम्हारी प्राणप्रिय पत्नी की देहभूमि पर प्रेम का हस्ताक्षर कर दिया है। अपूर्ण अहल्या बन गई है पूर्णगर्भा नारी। गौतम ! जिस पुरुष की पत्नी परपुरुषगमन करती है, उसके लिए असफल पति ही अधिक उत्तरदायी होता है। तुम मुझे लम्पट कामुक, दुधरित्र कहते आए हो । किन्तु मेरी पत्नी शचीदेवी मुझसे सन्तुष्ट है वह मेरे प्रति विश्वस्त है। हे तर्कनिष्ठ महर्षि, अहल्या तुम्हारे जीवन की एक सीख है। किस पुरुष में नहीं होता सौन्दर्यलिप्स परनारी भोगवादी इन्द्र ? किस नारी में नहीं होती प्रेमविधुर देहविह्वल अहल्या ? क्या कभी सोचा है उस बारे में? कभी किया है प्रतिकार ? कभी किया है स्वीकार इस सत्य को ? सौन्दर्य और नारी को लेकर शर्त लगाने के तर्क और तत्त्व के परिणाम युगों से यही होते आए हैं। ब्रह्माजी की इच्छा से तुमने अहल्या से विवाह किया था। क्या अहल्या की इच्छा और आकांक्षा स्वप्नविहीन एक देहधारी नारीमात्र है ?


'किन्तु तुम अपने जितेन्द्रिय अहंकार के कारण अहल्या की देह को जीतने में भी अक्षम रहे। ऐसा दाम्पत्य अभिशाप होता है। इसलिए तुम मुझे अभिशाप देने से पहले अपने कर्म से स्वयं ही अभिशप्त हो चुके हो। गौतम ! मुझमें तुम्हारे प्रति ईर्ष्या थी छात्रावस्था से आज मुझमें तुम्हारे प्रति अनुकम्पा उत्पन्न हो रही है। परपुरुषगामी नरी के पति पर सिर्फ़ दया करती है दुनिया, उसे नपुंसक समझती है। तुम अहल्या के योग्य पुरुष नहीं हो। इसलिए मैं अहल्या को प्रेमिका के रूप में वरण करता हूँ। शक्ति हो तो उसे मेरे प्रेमबन्धन से छुड़ा लो...'


किन्तु ये केवल मेरे भाव मात्र थे। इन्द्रदेव तो अन्तर्धान हो चुके थे। क्या गौतम के पैर पकड़कर क्षमा माँग लूँ? माँग लूँ सुरक्षित पत्नीत्व ? नहीं, अब इसके बाद मेरा और गौतम का पति-पत्नी बनकर रहना सम्भव नहीं। न तो उनका मुझे स्वीकार करना सम्भव है और न ही मेरा स्वयं को अर्पण करना सम्भव है। वैसे भी हमारे बीच बहुत दिनों से शारीरिक सम्बन्ध नहीं है। गौतम रूप के पुजारी नहीं हैं। रूप उनकी दृष्टि में माया है। फिर भी उस मायापथ पर मुनि ऋषि देवताओं के पैर फिसल जाते हैं। गौतम की दृष्टि में शरीर तुच्छ है, आत्मा शरीर से ऊपर है । सम्भवतः मेरी देह मेरे अवचेतन में इन्द्रदेव के पौरुष के प्रति मोहित थी। किन्तु क्या गौतम के ज्ञानगर्भ व्यक्तित्व ने मुझे मुग्ध नहीं किया? तो फिर इन्द्रदेव में मैं गौतम को क्यों ढूँढ रही थी ? इन्द्रदेव के आलिंगन में रहकर मेरी तन्द्राछन्न अन्तरात्मा 'गौतम', 'गौतम' कहकर क्यों रो रही थी ? वास्तव में मैं अपने पति को प्रेमी के रूप में चाह रही थी, यह मेरे सिवा और कौन जान सकता है ? आत्मा को प्रमाण बना सके, क्या ऐसा कोई है पृथ्वी पर ? गौतम सिर्फ़ पति थे, प्रेमी नहीं । इन्द्रदेव प्रेमी के रूप में आए किन्तु वे आए थे काम-रूपी दानव की तृप्ति के लिए प्रेम- - देवता के छद्मवेश में। मैं चण्डालिनी यह समझ नहीं सकी। या फिर समझते हुए भी अनजान बनने का अभिनय करती रही? जब तक मैं समझ पाई, तब तक काम दानव मेरे पुण्य और संयम को ग्रस चुका था। अब इतनी सफाई देकर क्या लाभ? गौतम मुझे क्षमा कर भी दें तो भी अब मैं अपने पूर्वस्थान पर लौट नहीं सकती। गौतम की वह क्षमा उनकी दया और घृणा का रूपान्तर मात्र होगी।


इस घटना की जानकारी गौतम को छोड़कर अभी तक किसी और को नहीं थी। बीती रात के प्रलय के बाद प्रथा यंत्रणा से छटपटाती हुई कुटिया से बाहर आकर उद्यान के शिरीष पेड़ के नीचे सो गई है। वह गहरी नींद में है। अँधेरा अभी छटा नहीं था। गौतम अपने स्वामित्व के अहंकार को बचाए रखने के लिए इस बात को पेट में रखकर मुझे गृह में स्थान दे सकते थे। सबके सामने पति-पत्नी का अभिनय कर सकते थे। दुनिया में ऐसे न जाने कितने पति-पत्नी छलपूर्ण जीवन जी रहे होंगे। किन्तु गौतम या में छलभरा जीवन बर्दाश्त नहीं कर सकते। इसलिए यही अन्त था ।


गौतम मेरे सम्मुख आकर खड़े हो चुके थे। जल्लाद के मुख-सा दिख रहा था उनका गुस्से से तमतमाया मुख। उन्होंने रूखे स्वर में प्रश्न किया, "हम दोनों के एक-दूसरे से अलग हो जाने से पहले कहो अहल्या, क्या लम्पट इन्द्र मेरे छद्मवेश में आया था ? कहो, क्या तुमने अँधेरे में अनजाने ही... इन्द्र को गौतम समझकर ..."


गौतम का मुख इस समय करुण दिखाई दे रहा था । गौतम को मालूम है कि सच क्या है। गौतम यह भी जानते हैं, पति के छद्मवेश में ईश्वर भी आ जाएँ तो भी अनुभवी पत्नी स्पर्शमात्र से समझ लेगी, पति है या परपुरुष ? इसके बावजूद गौतम का यह प्रश्न पूछने का क्या कारण है ? अनजाने में पत्नी परपुरुष के साथ शारीरिक सम्बन्ध स्थापित कर ले तो वह पत्नी पतिता कहलाती है, जबकि स्वामित्व में कोई आँच नहीं आती, स्वामित्व के अहंकार को चोट नहीं पहुँचती । मुझे बचाने के लिए नहीं, बल्कि स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए गौतम का यह शिशु-सुलभ प्रश्न था। मैंने सिर झुकाए हुए निर्लिप्त स्वर में उत्तर दिया, "इन्द्रदेव छद्मवेश में नहीं आए थे। वे इन्द्र के ही वेश में आए थे।"


गौतम का मुख काला पड़ गया।


"इसका अर्थ तुम स्वेच्छा से... या लम्पट इन्द्र ने तुमसे जबरन ...' 'गौतम का उत्सुक प्रश्न था ।


"अहल्या से बलात्कार करने की शक्ति देवता, असुर, मनुष्य किसी में नहीं है। मैं सोमयाग की स्वाहा हूँ। . मैं पशुयाग की बलि हूँ... स्वामिन् ! मैंने इन्द्रदेव को तृप्त किया है। वर्षादाता इन्द्रदेव जगत् की रक्षा करेंगे। आप यही तो चाहते थे..." इतना कहते-कहते मेरी आँखों में आँसू भर आए।


उस ओर ध्यान दिए बिना गौतम ने पुनः प्रश्न किया, "मेरा मन कहता है कि तुम अपने भोलेपन या बलात्कार का शिकार हुई हो। सच बताकर मेरे क्रोध को शान्त करो मूढ नारि ! या फिर अभिशाप भोगने को तैयार हो जाओ !"


'यदि अनजाने में मैंने स्वयं को इन्द्रदेव के समक्ष समर्पित कर दिया हो या यदि मैं इन्द्रदेव के बलात्कार की शिकार हुई हूँ, तो मेरा सतीत्व बचा हुआ है या नहीं ?' एक ऐसा प्रश्न मेरे मन ने स्वतः मुझसे पूछा। मैंने सोचा, यदि गौतम के तत्त्व में शरीर मूल्यहीन है, तो फिर अनजाने में इन्द्रदेव को गौतम समझकर या बलात्कार के कारण मैं परपुरुष द्वारा भोगी गई हूँ ऐसे मेरी आत्मा कलुषित होगी या नहीं, उस सम्बन्ध में तत्त्वज्ञ गौतम जो उत्तर देंगे, वह मैं


क्या मैं आत्मा से गौतम को चाहती थी, शरीर से इन्द्र को! शरीर आत्मा का आधार है। शरीर का पतन होता है और उसकी मृत्यु होती है, जबकि आत्मा अविनाशी है। क्या सिंहासन अपवित्र होने से देवता भी अपवित्र हो जाते हैं ?


तत्त्वदर्शी गौतम की वाणी आज भी गूंज रही है मेरे हृदय में 'तुम्हारे साथ मेरा सम्बन्ध आत्मा का है। मैं - तुम्हारे शरीर को नहीं देखता, तुम्हारी आत्मा देखता हूँ ।' यह वाणी सुनती आई हूँ उनसे हर क्षण । सुनते-सुनते सम्भवतः गौतम को परखने के लिए मेरे अवचेतन में एक प्रण न जाने कब बीज से महाद्रुम बन चुका था। गौतम के सन्देह ने उस पर जल और उत्ताप का लेप किया है। यदि आज मेरी देह ने शुचिता खोई है, गौतम मुझे स्वीकार करेंगे या मेरा त्याग करेंगे ? मुझे परखने में गौतम की हार होगी या जीत ? यदि अब भी गौतम मुझे स्वीकार कर लेते हैं तो मैं स्वयं ही उनके जीवन से दूर चली जाऊँगी। यदि गौतम मुझे स्वीकार करेंगे तो समाज की दृष्टि में मेरी मर्यादा रक्षा करने के लिए नहीं, बल्कि अपने पौरुष का अहंकार साबित करने के लिए करेंगे।


अब मेरे अन्दर गौतम और इन्द्र का द्वन्द्व नहीं था। आज मैं किसी की नहीं थी। न इन्द्र की, न ही गौतम की।


मैंने विनम्रतापूर्वक कहा, "स्वामिन्! कामासक्त वासव ने प्रेमदेवता के छद्मवेश में आकर इन्द्रजाल फैला दिया था। क्षणभर के लिए उस इन्द्रजाल के मोह में पड़कर मैंने समाज द्वारा गढ़ा नियम तोड़ दिया। क्या मैं क्षमा के योग्य हूँ ?" क्या मैं अपने प्रिय आश्रम में रह सकती हूँ ?"


"किसी भी परिस्थिति में क्यों न हो, तुम एक जारपुरुष द्वारा भोगी गई नारी हो तुम्हारी शुचिता नष्ट हो चुकी है। तुम्हारा पत्नीत्व का अधिकार समाप्त हो चुका है। तुम क्षम्य नहीं हो अभिशप्ता हो ... किन्तु तुम इस - आश्रम में ही रहोगी। यह शुद्धभूमि तपोवन आज कलंकित है। सिर्फ मैं ही तुम्हारा परित्याग नहीं कर रहा यह आश्रम, यह मिट्टी, यह वनभूमि सभी परित्याग कर रहे हैं। तुम्हारे नारीत्व का सारा गौरव, सारी पवित्रता, - सारा पुण्य अस्त हो गया। तुम्हारा मुख देखते ही देखने वाले की चेतना में पाप की कालिख भर जाएगी। इसलिए सभी आश्रमवासी, मुनिगण, ऋषिगण आश्रमवासिनी ऋषिपत्नी और ऋषिकुमारी तुम्हारे पाप से प्रभावित होकर भ्रष्ट हो जाने से पहले मैं सबको साथ लेकर हिमालय की गोद में जा रहा हूँ। वहाँ नया आश्रम बनाऊँगा। अध्यक्ष बनेगा मेरा शिष्य माधुर्य । तुम्हारा पति होने का जो अपराध मैंने किया है, उस पाप को मिटाने के लिए मैं कठोर तपस्या में लीन हो जाऊँगा।"


अब तक आश्रमवासी वहाँ इकट्ठा हो चुके थे। वे हम दोनों की ओर स्तब्ध हो देख रहे थे। मुनि, ऋषि, ऋषिकाएँ घृणा-जर्जर दृष्टि से मेरी भर्त्सना कर रहे थे। सोचा था, इस दुर्भाग्यपूर्ण घड़ी में माधुर्य मेरा साथ देंगे। कम- से-कम मधुक्षरा मेरे प्रति सहानुभूति जताएगी, लेकिन गौतम की घोषणा से माधुर्य प्रसन्न लग रहे थे। क्या गौतम आश्रम के अध्यक्ष पद के लिए वे लालायित थे ? मैं इन्द्र की अन्तरंग हूँ, क्या यह जानकर मधुक्षरा मुझसे ईर्ष्या कर रही थी ? किसी ने भी मुझे मिले अभिशाप का पक्ष नहीं लिया।


गौतम ने पुनः घृणित क्रोध से आँखें लाल करके कहा, "एक बार चारों ओर देखो भ्रष्टा, रमणि! तुम्हारे पाप की आँधी से किस तरह यह तपोवन ध्वस्त विध्वस्त हो गया है, तुम्हारे कलंक के उत्ताप से पक्षीजन वृक्ष की शाखाओं से गिरने लगे हैं । फूल-पत्ते मुरझा गए हैं। तुम्हारे पाप के प्रभंजन से मेरा यज्ञ ध्वस्तहो गया । सप्तसिन्धु अंचल में अब वर्षा की सम्भावना नहीं बची। भयंकर अकाल पड़ने को है। तुम्हारे पाप का फल आश्रमवासी क्यों भोगें ? अपने पाप का फल तुम अकेले भोगने के लिए यहीं पड़ी रहो वर्षों जडवत् । जिस सौन्दर्य के गर्व से तुममें इन्द्र को आकर्षित करने का अहंकार भरा था, उस सौन्दर्य को देखने के लिए अब तुम्हारे साथ रहेगा सिर्फ़ तुम्हारा कदाकार पाप । अहल्या !! ऐसा विकराल पाप करने के बाद तुम पश्चात्ताप और लज्जा से पत्थर क्यों नहीं बन गई ? अपना यह कलंकित मुख सबको दिखा कैसे रही हो ? ऊपर से सबके समक्ष निर्लज्ज बन यह घोषणा कर रही हो कि तुम जान-बूझकर इन्द्र की कामाग्नि में कूदी हो ! धिक्कार है तुम्हें अहल्या मृत्यु भी नहीं है तुम्हारे विराट् पाप का प्रायश्चित्त । तुम जीवित रहो और इस पाप का ताप सहस्र वर्षों तक तिल-तिल सहती रहो। पश्चात्ताप में भी तुम्हारी आत्मशुद्धि सम्भव नहीं।"


देहासक्त देवाधिराज इन्द्र में कुत्सित 'काम' और उनका भीगी बिल्ली बना रूप देखने के बाद मुझे मेरे पति जितेन्द्रिय गौतम परमेश्वर जैसे लगे। आँसुओं से सराबोर हो हाथ जोड़कर विनम्र कातर स्वर में मैंने गौतम से विनती की, "स्वामिन्! आप से सच छुपा लेती तो शायद इतना बड़ा अभिशाप न मिलता मुझे। लेकिन पाप छुपाने का पाप भी कम बड़ा पाप नहीं होता। उसी पाप से बचने के लिए मैंने आपके समक्ष, सबके समक्ष अपने पाप को निर्लज्ज-सी मुक्त कण्ठ से स्वीकार किया है। मैं अपने पाप का प्रायश्चित्त करने को तैयार हूँ । परन्तु क्या मेरे प्रति आपके इस विकट अभिशाप का मोक्ष नहीं है ?


गौतम का ऐसा प्रकृत, उदार, शान्त रूप पहले कभी नहीं देखा था मैंने। उन्होंने मन्द गम्भीर स्वर में कहा, " तपश्चरण ही इस पाप का एकमात्र प्रायश्चित्त है। 'कामभाव' और 'रामभाव' ये दोनों मनुष्य के वश में होते हुए भी उन दोनों के लगातार संघर्ष में सचराचर 'कामभाव' की ही सहज जीत होती है। जिस दिन तुम्हारी कामदग्ध मनोभूमि में राम रमणीय रूप में उदित होंगे, उसी दिन तुम राम का दर्शन करोगी और शापमुक्त हो जाओगी। अहल्या, यह अभिशाप ही तुम्हारे लिए वरदान हो।"