तप

तप

हे मेरे नमस्य तप ! इस अभिशप्ता का प्रणाम स्वीकार करो। परिपूर्णता ने मुझे निर्लिप्त कर दिया है। प्राप्ति की घड़ियाँ एक-एक करके मेरे हृदय का द्वार रुद्ध करती जा रही हैं। प्राप्ति का मेघ मल्हार अभी थमा भी न था कि अभिशाप का आकाश टूट पड़ा मुझ पर।


कुछ घड़ी पहले मैं थी परम सौभाग्यवती इन्द्रजिता नारी अब हूँ अभिशप्ता अहल्या । किन्तु अपनी प् - और पूर्णता में मैं इस तरह मग्न थी कि अपने अभिशाप की विकरालता उस क्षण समझ न सकी। मैं थी इन्द्र में मग्न । गौतम, माधुर्य, आश्रम, नीति, नियम और प्रथा सभी मुझे मिथ्या और असत्य लग रहे थे। ऐसा लग रहा - था मानो जीवन का एकमात्र सत्य है इन्द्र और इन्द्रिय-सुख ही श्रेष्ठ सुख है। इन्द्र की प्राप्ति मुझे परमप्राप्ति-सी लग रही थी। उसके बाद मानो कोई और प्राप्ति बची ही न हो। किन्तु सब कुछ रीत जाने के बाद जब निस्संगता चारों ओर से मुझे मुँह खोले लील जाने को हुई, उस समय मेरे अन्दर से किसी ने प्रश्न किया- 'क्या तुमने सचमुच इन्द्र को प्राप्त कर लिया है? कहाँ हैं तुम्हारे इन्द्र ? इन्द्रप्राप्ति यदि परमप्राप्ति है, तो फिर क्यों है यह निस्संगता? क्यों है यह आत्मविषाद ?' कुछ क्षणों पहले इन्द्र को सन्तुष्ट करना मेरा काम्यकर्म था। क्या काम्यकर्म का अन्त भी इतना दुःखद हो सकता है !


यदि काम्यकर्म सही न हो... वह अनन्त दुःखों को बुला लाता है, मैं स्वयं इसका प्रमाण हूँ। सम्भवतः इसलिए न तो मैं गौतम को पा सकी और न ही इन्द्र को गौतम और इन्द्र ने भी मुझे पाकर पुनः खो दिया।


गौतम अपने वैराग्य और अनुशासन की कठोरता के कारण मुझे पाकर भी न पा सके इन्द्र ने मुझे भोग- - सर्वस्व समझकर पाया और खो दिया। इसलिए क्षणभर पहले जो कुछ प्राप्ति और परिपूर्णता-सा प्रतीत हुआ था, अगले ही क्षण वह चरम अप्राप्ति और शून्यता बनकर कचोट रहा है।


क्षण भर के लिए सही, मेरी देहाभिमानी सत्ता भोग- देवता के प्रति निष्कपट समर्पण के कारण इन्द्र में लीन हो गई थी जबकि गौतम मेरे पति होते हुए भी मुझसे इतना कुछ नहीं पा सके। मैं यह जानती हूँ कि मेरा यह अनन्य अभिशाप हमेशा के लिए मेरे माथे पर खलरेखा बनकर रह जाएगा। आज मेरी सुन्दर देह पाप के हस्ताक्षर से कुत्सित हो गई है, यह भी मैं जान चुकी हूँ। मेरी ओर एक बार भी देखे बिना सभी वहाँ से चले गए। आश्रम में पलने वाले पशु-पक्षियों को भी वे अपने साथ ले जाना नहीं भूले। बीती रात के प्रलय से सम्पूर्ण पर्णकुटी भस्मस्तूप में बदल गई। अब वहाँ बचा ही क्या था ? नगर, जनपद, ऋषि-मुनियों के आश्रम सबके द्वार मेरे लिए बन्द हो गए। दुनिया की दृष्टि में मैं थी महापापिन ।


इन्द्र ने जो पाप किया, वह मेरे पाप की तरह विशाल नहीं था, क्योंकि बहुनारीसंग इन्द्र का धर्म था। पत्नी से विमुखता - रूपी अपराध से गौतम पापी नहीं हुए, क्योंकि गौतम महर्षि और जितेन्द्रिय ठहरे। जो पाप नाना जटिल मानसिकता के कारण घटित हो गया, वह एकमात्र पापिन अहल्या के कारण हुआ ! क्योंकि अहल्या नारी थी, वह किसी पद-पदवी पर नहीं थी। गौतम की 'पत्नी' का पद ही अहल्या की एकमात्र पदवी थी, इस पदवी ने अहल्या को कभी कोई अधिकार नहीं दिया क्योंकि पत्नीत्व का अधिकार पत्नी के हाथ में नहीं होता, होता है पति के हाथ में । पति चाहे तो उस अधिकार से पलक झपकते वंचित कर सकता है पत्नी को । कहाँ, इस पाप के कारण इन्द्रदेव का इन्द्रपद तो नहीं छिना, उनकी पत्नी शचीदेवी ने उन्हें पति के पद से अलग भी नहीं किया। इन्द्र के प्रति गौतम का अभिशाप इन्द्र के पाप की तुलना में तुच्छ प्रतीत हो रहा है इस घड़ी । वह अभिशाप मात्र इतना ही था : 'तुम्हारी कामज्वाला कभी शान्त न हो। सहस्र कामेन्द्रियों द्वारा कामभोग करने पर भी अतृप्त कामवासना और परनारी भोगलिप्सा से तुम जन्म-जन्मान्तर दग्ध और निन्दित होते रहो 'ऐसे अभिशाप द्वारा केवल इन्द्रदेव ही अभिशप्त नहीं हुए, अभिशप्त हो गया तीनों लोक का नारी समाज । इस अभिशाप के कारण इन्द्रदेव की भोगलालसा में न जाने और कितनी अहल्याएँ बलि चढ़ेंगी, क्या यह बात महर्षि गौतम के तर्कनिष्ठ मस्तिष्क में नहीं घुसी ?


विचित्र हैं दुनिया के नियम । यदि परिस्थितिवश एक बार तुम्हारा स्खलन हो गया, तो यह मान लिया जाएगा कि स्खलन तुम्हारी चिराचरित प्रवृति है। निन्दा और भर्त्सना हमेशा के लिए तुम्हारी नियति बन जाएगी। उसके बाद तुम्हारे हर कार्यकलाप पर प्रश्नचिह्न लगा दिया जाएगा। फिर तुम्हारे लिए अतीत से छुटकारा पाना सम्भव नहीं । अतः तुम एक वर्जित समाज में पापियों के बीच अपनी जगह चुनने को बाध्य हो जाओगे। तुम्हारा अतीत तुम्हारे ललाट पर अमिट अक्षरों में लिखा रह जाएगा और तुम्हें एक गलत जीवन-पथ पर ले जाएगा । इसीलिए समाज में इतने अपराध होते हैं। इतने पाप होते हैं ! तुम एक बार पानी में डुबकी लगा लो तो फिर पानी से डर कैसा? प्रलय की चपेट में आ जाने के बाद फिर प्रलय से डर कैसा? एक बार मृत्यु के चंगुल में पड़ जाने के बाद क्या फिर मृत्यु से डरने का अवकाश रह जाता है ? परन्तु मैं आज भी पाप और पुण्य के द्वन्द्व में पड़ी हुई हूँ। इतना बड़ा पाप करने के बाद भी स्वयं पापिन क्यों नहीं समझ रही ? सोचती हूँ, देह की आवश्यकताएँ भी तो होती हैं। तो फिर देह का तिरस्कार क्यों करूँ ?


मोक्ष


ऐ मेरे ईप्सित मोक्ष !


इस अभिशप्ता का निष्कपट प्रणाम स्वीकार करो। भूलोक, द्युलोक, अन्तरिक्ष के कुठाराघात से मेरे भीतर का कलुष बाहर निकल रहा है। स्वयं को शुद्ध करने के लिए मैं तुम्हारी शरण में आई हूँ ।


पृथ्वी और आकाश के बीच आकर्षण और विकर्षण के द्वन्द्व से एक नया द्वीप बनने की तरह शाप और मोक्ष, यौवन और जरा, काम और राम के द्वन्द्व से मेरी चेतना में भी एक नए द्वीप ने जन्म लिया है। मेरे भीतर से कोई कह रहा है कि मनुष्य को परम उपलब्धि प्राप्त होती है श्रद्धा और सदिच्छा से घृणा, प्रतिहिंसा और हताशा से उपलब्धि नहीं मिलती। यदि मिलती भी है तो वह मोक्ष नहीं हैं। हताशा नहीं बल्कि नई आशा और सदिच्छा मुझे मेरे मोक्षपथ पर चला रहे हैं। उस मोक्ष का स्वरूप क्या है ? अमरत्व स्वर्गप्राप्ति अनन्त यौवन ! नहीं आज इन - सबसे मेरा आकर्षण टूट गया है। स्वर्ग के स्वरूप और यौवन के पराभव ने मुझे ठेस पहुँचाई है। मेरे जीवन की अन्तिम अभीप्सा है जडत्व से मुक्ति देह बन्धन से मुक्ति, काम पाश से मुक्ति । आज अन्तःकरण का चरम त्याग ही मेरी तपस्या है। आज अन्तर्यज्ञ ही मेरा अभीष्ट है। आज यौवन मेरे लिए भोग नहीं, बल्कि वैराग्य है।


मैं अभिशाप भोग रही हूँ, समाज द्वारा ठुकराई गई हूँ, निन्दित हूँ, लांछित हूँ, पर मैं समाजविमुख नहीं हूँ पृथ्वीविमुख नहीं हूँ आनन्दविमुख नहीं हूँ। सुख और आनन्द के बीच का सूक्ष्म अन्तर आज मेरे समक्ष स्पष्ट है। अतः सुख नहीं, आनन्द की आराधना ही आज मेरा व्रत है।


मैं सम्पूर्ण आनन्दमय स्थिति में कैसे पहुँचूँगी ? कौन हैं वह वैरागी पुरुषोत्तम, जो मुझे दिव्यस्पर्श देकर


प्रतिस्पर्श में बदल देंगे ?


अभिशाप मुझे इतना विचलित कर रहा है कि मेरी सुन्दरता तक मुझे खाने को दौड़ रही है। आज इन्द्र न तो मेरे आश्रयदाता हैं न ही अभीष्टदाता गौतम तो पति होते हुए भी शापदाता हैं। अतः एकमात्र गति-मुक्ति परमात्मा ही हैं।


किन्तु परमात्मा की करुणावारि प्राप्त करने की एकाग्रता कैसे प्राप्त करूँ ?


पृथ्वी के केन्द्रबिन्दु में अग्निकण की तरह परमात्मा को स्मरण करते ही मैं अपने अन्दर देह से पृथक् एक आलोकित सूक्ष्म स्फुलिंग की सत्ता का अनुभव करती हूँ। इस सूक्ष्म अन्तःकरण को प्रकाशमान करने वाली कोई प्रबुद्ध शक्ति मेरे भीतर है, ऐसा मुझे विश्वास होता है। फिर आँखें बन्द करके अन्दर देखने पर विश्वास नहीं होता कि अपने अन्दर की वह तेजस्वी सत्ता मैं ही हूँ। कौन लौटाएगा मुझे मेरा विश्वास ? योगच्युत गौतम या मतिभ्रष्ट इन्द्र !


मैं नहीं जानती थी कि राम कौन है, फिर भी रमणीय राम का आह्वान निरन्तर करती रही। मेरी प्रार्थना ने मुझे धीरे-धीरे प्रकृति का एक अविच्छिन्न अंग बना दिया। मैं भूमि से लिपटी पड़ी रही। मैं जितना जितना निष्कामी होती गई, प्रेम का वास्तविक स्वरूप समझती चली गई। समझ गई कि अध्यात्म ही है निष्कपट प्रेम । मैं ईश्वर को प्रेमी के रूप में ढूंढने लगी। मैंने ईश्वर को प्रेमी इन्द्र और पति गौतम में ढूंढा था। उस प्रेम में थी अनेक प्रत्याशाएँ । प्रत्याशा पहले साँप की तरह सुन्दर लगती है, किन्तु अगले ही क्षण चोट मारती है और अशेष यंत्रणा देती है। मैंने जितना जितना राम को ढूंढा, मेरा हृदय रामभाव से मानो उद्वेलित-सा होने लगा।


मुझे सारा जगत् सरल, निष्पाप, कोमल, भोले-भाले सुन्दर शिशु जैसालगा। राम निश्चित ही देवोपम पुरुष हैं। जिस राम के दर्शनमात्र से एक विशाल पाप, उससे भी विशाल अभिशाप मिट जाएगा, ऐसा गौतम ने कहा है, ब्रह्मा ने कहा है, वे राम साधारण मानव तो होंगे नहीं ? तो क्या वे परमात्मा की तरह दिव्य होंगे ? परमात्मा को किसी से भी द्वेष नहीं होता। परमात्मा शिशु की तरह समभावापन्न होते हैं। शिशु की तरह छल-कपटहीन होते हैं। शिशु अज्ञानी और दुर्बल होता है; इसलिए निष्पाप और क्षमाशील होता है। परमात्मा सर्वज्ञानी और सर्वशक्तिमान् होता है, इसलिए निष्पापी और क्षमाशील होता है। हजारों बार पिताजी से यह बात सुनी है। फूल के हृदय की ओस की बूँदें, कमल के वक्ष का केसर, वृक्ष की डाल पर फल, पृथ्वी के वक्ष का शैलराज, आकाश के वक्ष के चाँद और सूरज मुझे जननी के वक्ष पर शिशु की तरह लगे। मैं रमणीय राम को बिना देखे बिना जाने भी सरलतम, कोमलतम, पवित्रतम परमात्मा के रूप में दर्शन करने के लिए स्तुति करने लगी। उस स्तुति ने प्रेम के मनोरम राग से मेरे शाप तापदग्ध मनोभूमि को मंत्रित कर दिया। जननी के अपनी सन्तान से घुल-मिलकर शिशु बन जाने की तरह मैं राम को पुरुषोत्तम समझकर शिशु बन गई। पूर्व पाप-बोध एवं क्षुद्र कामना, वासना मेरे अन्दर से दूर चले जाने जैसे लगे । मेरा हृदय उन्मुक्त हो गया। दग्ध वनभूमि की सीमा पार करके सप्तलोक पर दृष्टि डालते ही मुझे सब कुछ दिव्य और मंगलमय दिखने लगा।


त्रिलोक अभिलषित तमालवर्णी, नवारुणोद्भासित, गैरिकवस्त्रधारी, प्रेमदीप्त, श्रीरामरमणीय तमाल की छाया में विनोदभरी मुस्कान लिए झलक रहे हैं। मेरी इच्छा-रहित अमृतबेला में कौन हैं ये निष्कलंक कान्तियुक्त पुरुषोत्तम ? अन्तःकरण की शुद्धता और जागरूकता के कारण वे नर होकर भी नारायण जैसे लग रहे हैं। ऋद्धि- सिद्धि के मंजुल पथ पर यात्रारम्भ करने के कारण वे किशोर होने पर भी प्रवीण लग रहे हैं। वे प्रेममय होते हुए भी कामरहित होने के कारण यौवन में भी महाकाल की तरह निर्लिप्त दिखाई दे रहे हैं। अन्तःकरण के भाव संवेदना से उनमें अपना पराया, आर्य-अनार्य, देव-दानव, नर-वानर का भेदभाव न होने के कारण वे आयु से परे, कालातीत परमात्मा जैसे लग रहे हैं।


आँखों पर पड़ी परत हट गई। अहल्या को चौदह ब्रह्माण्ड दिखने लगे। उनका श्यामघन शरीर आकाश जैसा है, उनके घने घुँघराले केश नीले आकाश में मधुपमेखला जैसे हैं, घने-घुंघराले केशों से घनिष्ठ होते हुए भी उनका उन्मुक्त ललाट मेघमुक्त क्षितिज-सा है, उनकी भौंहे नीले भुजंग की तरह लीलायित हैं, उनकी सुगठित उन्नत नाक दृढ़ मंजुल विवेक-सी हैं, उनके अगत्स्य पुष्प की कली जैसे होंठ प्रियतम के आह्लाद की तरह हैं, उनकी प्रीतिरंजित मुस्कान द्वितीया तिथि के चन्द्रोदय जैसा है उनका सुन्दर चिबुक कमल-कली-सा है, उनकी चिकनी कनपटी तमालपुष्प के प्रकाश-सी है, कनपटी पर हास्य की लहरें कदम्बपुष्प के केसर-सी हैं, उनके उदार कर्णयुगल कोमल कमल के पत्तों जैसे हैं, उनकी सुढाल गर्दन अनन्त अभीप्सा-सी है, उनका प्रशस्त वक्ष हिमवन्त के उदार विस्तार-सा है, सुदीर्घ भुजाएँ निर्लिप्त आलिंगन-सी हैं, उनकी कमल की पंखुड़ियों से भी सुन्दर हथेलियाँ पूर्वराग की उष्णता-सी हैं, उनकी अंगुली की मधुर मुद्रा सिद्धि की प्रतिश्रुति जैसी है, उनकी सात कमर अभय प्रदान करने जैसी है, उनके चरण कमलद्वय मोक्षानन्द जैसे हैं, उनका सुदीर्घ शरीर युगान्तर से तपस्या करने जैसा है शरीर की दिव्यकान्ति कल्पान्तर से प्रतीक्षा के अन्त जैसी है। उनके रूप का वर्णन करने के लिए भला किस कवि के पास शब्द हैं ! उनकी वन्दना करने के लिए भला किस तपस्वी के पास भाषा है ! अतः अरे मूढ अहं ! उनके रूप का वर्णन करने से दूर रहो।


राम के दर्शनमात्र से मुझे मेरा अन्तःकरण दिख गया। मानो किसी ने कल्प-कल्पान्तर की नींद और जड़ता के मोहपाश से जगाकर कहा - 'अन्तःकरण ही मनुष्य का भाग्य और भवितव्य है। अन्तःकरण की गहराई में न केवल भाग्य, बल्कि भाग्यविधाता भी विद्यमान हैं। उन्हें ढूंढने का एकमात्र मार्ग है प्रेम बुद्धि और ज्ञान से मनुष्य वैभव और यशप्राप्त करता है। किन्तु अन्तःकरण के प्रेमभाव के बिना मनुष्य मनुष्य से दूर होकर पत्थर बन जाता है ।'


मेरे रूपाभिमान का अवशेष राम के सौन्दर्य का अवलोकन करके समाप्त हो गया। अब समझ में आया कि सौन्दर्य देहगत नहीं होता। सौन्दर्य की व्याप्ति अणु से परमाणु तक होती है। सौन्दर्य बन्धन नहीं मुक्ति है, सौन्दर्य मोह नहीं मोक्ष है। मेरा समस्त जन्म तमालवर्णी राममय, भावमय, रमणीय होने लगा है। पाप, शाप, ताप, जरा, मृत्यु का भय भी भयभीत हो हाथ जोड़े खड़ा है।


आ रहे हैं दो तेजस्वी कान्तियुक्त किशोर उन दोनों के बीच एक प्रवीण तापस पुरुष । छोटे किशोर का मुख कदम्ब फूल के केसर की तरह पीतवर्ण, स्वर्णाभ अंग, देदीप्यमान् आँखें। वह विवेक की तरह स्थिर, गम्भीर, निःस्वार्थी लग रहा है।


ब्रह्मस्वरूप विवेक और सद्ज्ञान सम्पन्न राम के दर्शन से आज मैं सचमुच अहल्या हूँ जो सत्य, ऋत, दीक्षा, तपस्या, ब्रह्म और यज्ञ से परिपुष्ट है।


यह मैं क्या देख रही हूँ ! ब्रह्मस्वरूप राम मुझे भूमि से उठाकर मेरा चरणस्पर्श कर रहे हैं। अपने उदार गैरिक वसन से मेरे भस्माच्छादित शरीर से धूल पोंछ रहे हैं। ऐ स्पर्श ! तेरे कितने रूप हैं- कितने आकर्षण हैं ! जीवन में न जाने कितने स्पर्श मुझे मिले हैं, तो फिर स्पर्शरहित कैसे हुई ? तो क्या स्पर्श का सत्यरूप अब तक मुझसे छिपा था ? जितने भी स्पर्श मिले थे, क्या वे सभी स्पर्श के छलपूर्ण रूप थे?


ऐ स्पर्श ! तुम कभी छली होते हो तो कभी विश्वसनीय ! -


जननी के स्पर्श से वंचित मैं अहल्या; किन्तु जन्मभूमि का स्पर्श कितना उदार निःस्वार्थ है - यही है मेरी जननी। मुझे मिला है पिता का स्पर्श, निःस्वार्थ होने पर भी कठोर वह था अनुशासन का स्पर्श मिला है पति - गौतम का स्पर्श-प्रेमहीन, शीतल सन्देहभरा स्पर्श। उसमें प्रतिस्पर्श की प्रतीक्षा नहीं थी। मिला है अपनी सन्तानों का विशुद्ध उदार स्पर्श । वह था छोटे से घेरे के बन्धन में जकड़कर पकड़े रहने का स्पर्श। वह बन्धन मुक्ति की ओर बढ़ने को प्रेरित करता था प्रेरित करता था सत्यकाम को गोद में उठा लेने के स्पर्श के लिए और मिला था देवाधिपति इन्द्रदेव का स्पर्श ! वह स्पर्श था स्वार्थपूर्ण, कामनापूर्ण और भ्रान्तिपूर्ण ।


ऐ स्पर्श ! तू पागल भी बना सकता है और पत्थर भी !




इन्द्र के स्पर्श ने मुझे पागल बना दिया था गौतम के स्पर्श ने पत्थर मुझे वात्सल्य का स्पर्श मिला, काम - का स्पर्श मिला, अनुशासन का स्पर्श मिला, परन्तु प्रेम का स्पर्श तो नहीं मिला ! उसके बिना क्या आज मैं अवांछित जड़-पत्थर हूँ !


ऐ स्पर्श ! आज तुम मुझे यह कैसी दुर्लभ उपलब्धि दे रहे हो ! राम के स्पर्श से आज पत्थर पिघल रहा है, बहने लगा है बंजर वनभूमि को उर्वरा करते हुए, अब वर्षा का क्या प्रयोजन ? अब इन्द्र की प्रतीक्षा क्यों है ? इतने दिनों से अहल्या जिस स्पर्श की प्रतीक्षा में एकाकी औंधी पड़ी थी, उसी प्रेम के स्पर्श से अहल्या का एक-एक देहकोष पिघलकर उसके हृदय को उन्मुक्त करता जा रहा है उसकी आत्मा के मधुकोश से उफन उफनकर बह रहा है राममधु प्रेममधु । लेन-देन भरे देहमय जीवन को मिटाकर मैं विदेह बनती जा रही हूँ। उनके अलावा आज मैं और किसी का भी प्रतिस्पर्श नहीं हूँ। वायुभक्षण करके, लोगों की आँखों से ओझल जड़वत् पड़ी रहने वाली परित्यक्त अहल्या ने परम प्रिय राम के स्पर्श से झुर्रीदार शरीर की चौहद्दी से परे अभिनव यौवन प्राप्त किया है. ऊपर उठ गई है राग, द्वेष, जरा, व्याधि, मृत्यु से प्रेम के अमरत्व तक, घृणित सन्देह की खाई से विश्वास के अनन्त - आकाश तक। मैं विमोचित हो गई राम के स्पर्श से सारी जडता टूट गई। मैं पाप-विस्मृत यज्ञमयी अहल्या हो गई। मैंने राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों को बाँहें पसारकर अपनी छाती से लगा लिया। रोमांचित हो उठा मेरा सर्वांग, शाप की बेड़ियाँ खन्न से टूट गई। चारों ओर दिव्य प्रकाश की बाढ़ आ गई। ऊर्ध्वचेतना में अमृत स्वर बज उठा था। -


अपने शरीर की धूल राम के शरीर से पोंछने के लिए मैंने हाथ बढ़ाया ही था कि उन्होंने मेरे तपोक्लिष्ट शीर्ण हाथ को सहलाते हुए कहा, "रहने दो देवि ! यह धूल मेरे कठोर अनुशासित यात्रा पथ का पाथेय है। आर्यावर्त के इस छोर से उस छोर तक यह तपोस्निग्ध धूमार्चित रेणु छिड़क छिड़ककर मैं इस पृथ्वी को पवित्र करूँगा। यह अहल्या की पार्थिव पदधूलि नहीं है, यह है अहल्या की चेतनापूर्ण हृदय -रेणु । "


शीर्ण शिराओं भरे मेरे जराग्रस्त हाथों और शरीर में नव बसन्त का रोमांच था। अब मैं शक्तिहीन अबला नहीं थी। मेरा देहबोध तिरोहित हो गया, आत्मा जाग उठी। अतः आज मैं अनन्त यौवनवती हूँ। राम की आँखों में मैं देख रही हूँ अथाह ऐश्वर्य । वहाँ इन्द्र क्षुद्रापि क्षुद्र लग रहे हैं।


परम आत्मविश्वास से बोली, "हे धीमान् ! यह स्मृति कल्प-कल्पान्तर जागरूक रहेगी। आपकी यात्रा शुभ


हो।"


मेरा गला भर आया । जिन्होंने शुभंकर होने का व्रत ले रखा है भला उन्हें मैं क्या शुभेच्छा दूँ ?


राम का मधुर स्वर मेरे कानों में अमृत बरसा रहा है:


"यौवन और जरा को अतिक्रम करके आज से तुम्हारी राह पर प्रीति के फूल खिल उठें तुम्हारी साँसों से धूने और अगरू चन्दन की सुगन्ध फैल जाए पृथ्वी और आकाश में वह सुगन्ध भेद जाए चैतन्य के अभ्यन्तर - को, तुम्हारे स्पर्श से टूट जाए विषादित जडता व्यर्थ मनोरथ मनुष्य की छाती से पत्थर पिघलकर नदी बन जाए तुम्हारे शुभ दृष्टिपात से हिंसा, द्वेष, भेद-भाव मिट जाएँ तुम्हारे आलिंगन की स्निग्धता से, जीवन बन जाए जिज्ञासा, मृत्यु हो जाए अमर तुम्हारी प्रेरणा से पुण्य की शंखध्वनि दुन्दुभित हो उठे तुम्हारे सम्बोधन से ।


" तुम जो रास्ता पीछे छोड़ आई हो, उस पर अपने कीचड़ भरे पदचिह्न ज़रा ढूँढो न जाने कबके मिट चुके हैं तुम्हारी तपस्या से । हे वरनारी अनसूया अहल्या ! तुम्हारा प्रायश्चित्त तुम्हारे पाप को, इस पृथ्वी के पाप को, इन्द्र के पाप को और गौतम के अतिवादी आदर्श के अहंकार को लीलकर पुण्य की वैजयन्ती फहरा रहा है। तुम स्वयं थी अपना बन्धन तुम्हीं हो अपनी मुक्ति पुण्य और मुक्ति की इस माहेन्द्र घड़ी की केवल इन्द्र और गौतम ही - नहीं, राम भी प्रतीक्षा कर रहे थे।"


"हे राम ! राम के स्पर्श के बिना अहल्या अहल्या नहीं है।"


"देवि ! अहल्या के स्पर्श के बिना राम 'राम' नहीं हैं। 'अहल्या' ने दी है राम को प्रेम की उपलब्धि, अहल्या ने दी है राम को जीवन की विदग्ध अनुभूति । जगत् को निष्कपट, निष्काम चाहने का रमणीय मन्त्र अहल्या के रग-रग से उच्चरित होकर राम के यात्रा पथ को पावन कर रहा है।"


"हे राम ! तुम्हारे स्पर्श की गहराई और विश्वसनीयता से आज मेरा उद्धार हो रहा है। अतः : तुम्हारे समक्ष अपना पाप स्वीकार करने में मेरा छल क्षत-विक्षत नहीं हो रहा। गौतम और इन्द्र मेरे पाप के कर्त्ता नहीं हैं, अपने पाप की कर्ता-धर्ता मैं स्वयं हूँ। देह की निर्लज्ज क्षुधा से अपनी देह और आत्मा को मैंने पंकिल बना लिया था। सोचा था, देह ही मेरा अभाव है लेकिन देहभोग से वह अभाव टू नहीं हुआ, न ही लालसा की मृत्यु हुई। यदि - देह का अभाव मेरे दुःख का कारण था, तो देह संगम से मेरी आत्मा हाहाकार क्यों कर रही थी? यह सच है कि देह के भोग को प्रेम का नाम देकर मैं आत्म-प्रवंचना से बहुत समय तक बची रही, किन्तु मैंने देखा कि उस छल भरे जीवन से मन भर भले ही रहा है पर भूख-प्यास कहाँ मिट रही है ? आज तुम्हारा दर्शन होते ही मेरी सारी भूख मिट गई। देह की, मन की आत्मा की इस महातृप्ति के दाता तुम हो।


"हे राम ! मेरे आकाशव्यापी पाप से केवल मैं ही नहीं, सारा जगत् कलंकित हो गया था। इसीलिए आज यह विकराल अकाल है। अन्न के लिए चारों ओर हाहाकार मचा है ! अहल्या अपने पाप से भले ही दब जाए, लेकिन जगत् के ललाट से कालिख पोंछकर अपनी करुणा की वारिधारा उड़ेल दो हे राम ! अहल्या की समाधि पर प्रीति का पंकज खिल उठे। वही तुम्हारे चरण कमल में अर्ध और अहल्या का मोक्ष हो। मुझे और कोई मोक्ष नहीं चाहिए।"


"देवि पावनि ! अपना पापबोध त्यागो ओर उठो संसार में असंख्य पापी हैं परन्तु प्रायश्चित्त विरल है। प्रायश्चित्त के अश्रुजल में बार-बार स्नान करके तुम तो बहुत पहले ही पवित्र हो चुकी हो। तुम्हारे आत्मानुभव ने तुम्हें मोक्षदान दिया है। तुम पापमुक्त नारी हो । अतः अपनी हीनता त्यागकर नवराग से रंजित कर दो स्वयं को और जगत् को।"


"हे राम ! तुम्हें अहल्या को कुछ नहीं देना है। किन्तु अहल्या के पास ऐसा कौन-सा अपार्थिव धन है कि तुम्हें देकर कृतज्ञता ज्ञापित करे ? मेरे पास तो केवल हृदय का अकलुष प्रेम ही है। उस प्रेम की परिभाषा तुम्हीं जानते हो। यदि उतना ही स्वीकार कर लो तो अहल्या कृतार्थ हो जाएगी।"


"देवि! तुम्हारा अपार्थिव प्रेम में स्वीकार कर चुका हूँ। इसीलिए आज मैं केवल राम नहीं रहा- मैं रमणीय मार्ग पर यात्रा प्रारम्भ कर रहा हूँ। तुम्हारी पवित्र स्मृति मुझे युग-युग तक जागरूक रखेगी और पुण्य की प्रेरणा देगी। "


"हे राम ! तुम परम आदर्श पुत्र बनो परम प्रेमी पति बनो परम निःस्वार्थ भ्राता बनो परम - विचारशील पिता बनो परम शुभाकांक्षी मित्र बनो परम करुणामय शत्रु बनो! परम धार्मिक राजा बनो ! तुम शुभंकर बनो सुखी रहो दुःखतुमसे सदा छू रहे । "


"देवि ! बिना दुःख के सुख की उपलब्धि कहाँ होती है ? बिना संघर्ष के कौन शुभंकर बना है? तुम्हारे दुःख ने ही तो तुम्हें आनन्द की उपलब्धि कराई है। अतः मेरे दुःख के लिए कातर क्यों हो ? तुम्हारी शुभेच्छा से मैं दुःख और संघर्षमय जीवन वरण कर रहा हूँ। तुम्हारी सदिच्छा सेदुःख को अतिक्रम करके आदर्श स्थापित करने की प्रेरणा इकट्ठा कर रहा हूँ।"


"हे राम ! तुम दुःख से नहीं घबराते अतः तुम्हें पार्थिव सुख के प्रतिदान में आनन्द की उपलब्धि होगी। तुम संघर्ष से नहीं घबराते - अतः विलासिता के प्रतिदान में तुम विजय प्राप्त करोगे। हे राम ! तुम प्रेममयी सती नारी के पति बनो।


तुम्हारा दाम्पत्य सुरत हो। तुम पत्नी से कभी अलग न होवो अलग होने का दुःख मैं जानती हूँ जानते हैं गौतम । "


"विरह है प्रेम की कसौटी। विरह के बिना प्रेम की उपलब्धि कहाँ - विरह के बिना मिलन का महोत्सव कहाँ ! पार्थिव दूरी, लौकिक विरह क्या कभी अपार्थिव मिलन के लिए बाधक बन सकता है? दो शरीर टू दूर होने पर भी यदि आत्मा अविच्छिन्न हो, तो विरह ही मिलन को बनाता है महिमामय । हे प्रेम की देवि ! तुम्हारे विरह ने ही आज तुम्हें प्रेम की उपलब्धि करायी है। तुम्हारे तपोनिष्ठ विरह ने तुम्हारे परम विश्वासी पति गौतम के एक पत्नीव्रत को सफल करके महामिलन की घड़ी को प्राप्त किया है। अतः आज तुम्हारा दर्शन करके मैं विरह से नहीं डरता। मेरे यात्रा-पथ में यदि कभी कोई दुःख आया, विरह आया, पार्थिव सुख से वंचित रहने का महार्घ अवसर आया, तो तुम्हारा ही स्मरण मुझे शक्तिमय करेगा मुझे धीरे से कहेगा "अपार्थिव को पाने के लिए पार्थिव की बलि देनी होगी।"



"हे राम ! बिना अनुभव के भी तुम अनुभवी हो। बिना जानकारी के भी तुम जानकार हो । गृहस्थाश्रम में प्रवेश किए बिना भी तुम विशाल विश्व के गृहस्थ हो । तरुण होते हुए भी विचारों में प्रवीण हो । ब्रह्मचारी होते हुए भी तुम धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की उपलब्धि से सराबोर हो। पृथ्वी की सन्तान होते हुए भी तुम्हारी कीर्ति अपार्थिव हैं। मनुष्य होते हुए भी तुम अलौकिक व्यक्तित्व वाले हो । मर्यादा पुरुषोत्तम होने के कारण तुमने अहल्या की मर्यादा बचाई है। राम के स्पर्श से केवल अहल्या ही धन्य नहीं हुई, पृथ्वी माता भी धन्य हुई हैं। तुम्हें प्रणाम !"


यह क्या कर रहे हैं राम ? मनोरम कर जोड़कर किसे प्रणाम कर रहे हैं ? विनम्र मधुर कण्ठ से कह रहे हैं, "देवि अहल्या ! धन्य है तुम्हारी व्रतनिष्ठा, धन्य है तुम्हारी तपस्या। राम तुम्हें प्रणाम करता है।"


अमृत बरस रहा है मेरे चैतन्य में 'सिद्धि' हाथ जोड़े खड़ी है और भी प्रशस्ति सुनने के लिए ? मृदुस्वर में उसकी भर्त्सना की मैंने, "छू हो जा मेरे सामने से जिसने राम के दर्शन कर लिए, क्या उसमें सिद्धि की चाहत रह जाती है। राम के सामने आज तू कितनी छोटी लग रही है !"


सिद्धि की अवमानना भला राम कैसे सहेंगे ? मधुर कण्ठ से बोले, “तुम्हारा पवित्र अहल्या रूप देखकर मैं धन्य हो गया। बहुत दुःख लांछन सहे हैं तुमने अपराध की तुलना में दण्ड तीव्र था, दण्ड की तुलना में तपस्या कठोर थी- तपस्या की तुलना में मोक्ष तुच्छ है। फिर भी मोक्ष तुम्हारे सम्मुख करबद्ध खड़ा है। उसे स्वीकार करो देवि । "


" तुम्हारे दर्शन से जो महाभाव मेरे अन्दर जाग्रत हुआ है, वही अहल्या का मोक्ष है" भाव भरे स्वर में मैंने


कहा।


"पृथ्वी पर जन्म लेने से अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं। तुमने वह सब सहा है। यह पृथ्वी तुम्हारे योग्य नहीं है। तुम्हें ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, विष्णुलोक, जहाँ भी चाहोगी स्थान मिल जाएगा।"


राम के मुँह से अभी बात समाप्त भी नहीं हुई थी कि देखा, पिता ब्रह्मा, विष्णु, महेश और इन्द्र अपने-अपने वाहन से उतरकर आ रहे हैं। सर्वलोक से फूल बरस रहे हैं। मेरे जराग्रस्त दुबले-पतले पति गौतम भी आ गए। सभी मन्त्रमुग्ध हो राम का दर्शन कर रहे हैं। विमुग्ध हो देख रहे हैं अहल्या की सिद्धि शापमुक्ति । -


तपती धरती पल्लवित हो उठी उजाड़ आश्रम में आनन्द का कोलाहल गूंज उठा। रुद्राक्ष, ऋचा, तक्षक, कर्कोटक आदि निर्भय हो आश्रम में प्रवेश करके राम को प्रणाम कर रहे हैं। सभी को मेरे उत्तर की प्रतीक्षा है। किस लोक को मैं धन्य करूंगी, यह सुनने को व्यग्र हैं सभी ।


मैंने कहा, "हे रमणीय राम ! मैं अहल्या पृथ्वी हूँ। पृथ्वी ने न जाने कितने संघर्ष सहे हैं! रक्तक्षरण किए बिना भला कभी कोई जननी बनी है ! किस फलदार वृक्ष ने पत्थर की मार नहीं सही, आँधी-तूफ़ान का सामना नहीं किया ? क्या आँधी के डर से वृक्ष माटी का त्याग कर सकता है ? यदि त्यागेगा तो उखड़ा हुआ वृक्ष न माटी का हो 



सकेगा, न ही आकाश का ! वृक्ष मेरे गुरु हैं। आँधी-तूफ़ान के आघात से धराशायी वृक्ष मूलभूमि को तब भी पकड़े हुए फल, फूल देता रहता है जगत् को मैं अपनी माटी छोड़कर स्वर्ग की आकांक्षा क्यों करूँ ? मैं संघर्षहीन मोक्ष नहीं चाहती। इसी संघर्षमय संसार में रहकर अशान्ति में प्रशान्ति मिथ्या में सच, निःक्रत में ऋत, भोग में भाव, विघ्न में शुभ ढूँढना ही मेरा मोक्ष है। मैं मर्त्यमानवी हूँ। साधनाहीन, संघर्षहीन स्वर्गलोक मुझे तपस्याका अवसर नहीं देगा। ऐसे में जीवन का क्या मूल्य ? दुःख जर्जरित पृथ्वी को छोड़कर अपने स्वार्थ के लिए स्वर्गलोक प्राप्त करके केवल सुख भोगना मोक्ष नहीं है। यह मृत्युलोक ही मेरी कर्मभूमि है, सिद्धिभूमि है।"


राम ने हाथ जोड़कर पुनः कहा, "देवि! तुम्हारा अन्तर्यज्ञ समाप्त हो चुका है। विश्व को सुवासित करने के लिए तुम पवित्र हविः बन चुकी हो। तुम्हारी आत्मा जाग उठी है। तुम विश्व चेतना में समाकर विशाल हो उठी हो। शतसहस्र मृत्यु में तुमने अमरत्व घोषित किया है। देहमयता का विनाश करके तुमने मोक्षानन्द प्राप्त किया है। आज से तुम मोहबन्धन मुक्त हो । सर्वलोक के द्वार तुम्हारे लिए खुले हैं। तुम्हारे अपने ही अन्दर मोक्ष विराजमान है, तो फिर तुम्हें मोक्ष कौन देगा? तुम स्वयं ही अपनी कर्मभूमि और राह चुन लो ।"


ब्रह्मलोक से ब्रह्मा का वेदपूत हाथ, विष्णुलोक से विष्णु का अभयकारी हाथ, शिवलोक से शिवजी का मंगलकारी हाथ, इन्द्रलोक से इन्द्र का दानकारी कृतांजलिबद्ध हाथ बढ़ने लगे थे मेरी ओर हर दिशा से दुन्दुभित हो रहा है- 'आओ आओ रथ तैयार है ! धन्य करो देवभूमि को... प्रणाम स्वीकार करो देवि ।'


अपने प्रार्थनारत हाथ उठाकर भिक्षा माँगी, "ब्रह्मलोक से आध्यात्मिक चेतना, विष्णुलोक से एकाग्रता, शिवलोक से शुभ संकल्प इन्द्रलोक से आत्म-ऐश्वर्य प्रदान करो प्रभो, मेरी इस दुःख जर्जरित पृथ्वी के लिए । अन्नहीन, भूखी, विपन्न पृथ्वी को सम्पन्न करें अपनी सदिच्छाएँ उड़ेलकर।... यही है मेरी प्रार्थना । "


'तथास्तु, तथास्तु' शब्द से मन्त्रित हो उठी तपोभूमि । परन्तु सबके बढ़े हुए हाथ अब भी मेरी प्रतीक्षा में


थे। किसका वरण करूँ ?


जगत् की यही रीति है। जब शापग्रस्त हो पड़ी थी तब सर्वलोक के द्वार मेरे लिए बन्द थे। प्रलयकाल में किसी ने नहीं दिया था आश्रय कोई मेरे दुःख से दुखी नहीं हुआ। अहल्या का कलंक गूँज उठा था सर्वलोक में । आज का यह आडम्बरपूर्ण स्वागत अहल्या के लिए नहीं है, अहल्या की सिद्धि के लिए है। सिद्धि प्राप्ति करने के क्षणभर पहले कहाँ थे ये सभी ? मैं जानती हूँ कि अहल्या शापमुक्त हो चुकी है राम की उदार चेतना के उद्घोष से । किन्तु क्या अहल्या कलंकमुक्त है? किसी भी लोक में जाने से क्या इन्द्र-अहल्या वृत्तान्त विस्मृत हो जाएगा जनमानस से ? मस्तक पर मणि के समान मेरा कलंक हमेशा हहाकार जल रहा होगा मेरी मृत्यु के बाद भी । अहल्या की महानता नहीं, बल्कि राम की ही महानता प्रतिपादित हुई है आज महानुभाव राम की करुणा और विवेकपूर्ण निर्णय प्राप्त करने के कारण ही आज मेरी चर्चा हो रही हैं। तो फिर क्यों जाऊँ अपनी तपस्या भूमि छोड़कर ? मेरी तपस्या अभी समाप्त नहीं हुई है... ।


मैंने हाथ जोड़कर सबको प्रणाम किया। उनसे विनती की, "स्वर्ग की आकांक्षा करना भी एक प्रलोभन है। अहल्या को और प्रलोभित न करें... अहल्या के मन में असीम स्पृहा जाग उठी है अतः वह निर्लिप्त है। # -


महाभाव के बारम्बार हविः दान से देवतागण उतरने लगे हैं आश्रम के प्रांगण में यह महाभाव ही तो अमृत है। तो फिर अब किस अमृत का प्रलोभन बचा है !


तमाल फूल समझकर मधुमक्षिका राम के मनोरम ललाट पर बैठी मधुसंग्रह कर रही है। ओफ्फ! राम को कष्ट हो रहा होगा। मधुमक्षिका के दुस्साहस के लिए उसे अभिशाप देने ही वाली थी कि रुक गई। राम मृदु-मृदु मुस्करा रहे थे । यदि मधुमक्षिका राममधु एकत्र कर रही है तो वह जगत् को वितरण करने के लिए कर रही है। इसलिए राम उस कष्ट को हँसते हुए सह रहे हैं। मैं स्वार्थी-सी निष्काम कर्मयोगी मधुमक्षिका को अभिशाप क्यों दे रही थी? वैरागी और परोपकारी मनोभाव के कारण राम परमात्मा की तरह लग रहे हैं पर मर्त्य ही उनकी कर्मभूमि है। तो फिर अहल्या स्वर्ग की आकांक्षा क्यों करें? यह मर्त्यलोक ही अहल्या की कर्मभूमि है। जहाँ राम हैं वहीं - अहल्या है।


हे प्रिय अमिट कलंक! तुम मुझसे जुड़े रहोगे तो मैं राम को नहीं भूल पाऊँगी, तपस्या नहीं भूल पाऊँगी। इसलिए कलंक के लिए अब पछतावा नहीं है।


फिर भी सर्वलोक से अहल्या का आह्वान करने वाले हाथ बढ़े हुए हैं। किन्तु गौतम चुप क्यों हैं ? मुग्ध विभोर अपलक आँखों से देख रहे हैं मेरी ओर जब नववधू थी, तब ऐसी प्रेम विह्वल दृष्टि नहीं देखी थी गौतम की। ऐसी प्रीतिमुग्ध दृष्टि की दिन-रात प्रतीक्षा में निराश ही हुई हूँ। आज अब तपोदग्ध जराग्रस्त अहल्या में ऐसा कौन-सा सौन्दर्य है कि गौतम मुग्ध हैं ?


"आओ, आओ देवि ... रथ तैयार है ! धन्य करो हमें !"


इस आह्वान का अन्त नहीं था। किन्तु गौतम की विदाई मुद्रा क्यों है? हाथ जोड़कर प्रणाम कर रहे हैं मुझे जो कभी उनकी शिष्या थी, जिसका कभी स्खलन हुआ था, जो उनके द्वारा वर्जित थी, अभिशप्त थी... जिसने विवाह व्रत तोड़ा था, उसी को पतिदेव का प्रणाम ?


अस्पष्ट भाषा में कह रहे हैं, "देवि ! प्रणाम तुम्हारी तपस्या की सिद्धि ने मुझे राम के दर्शन का महार्घ अवसर दिया है। तुम्हारा अपार्थिव सौन्दर्य आज राम-दर्शन की तरह प्रीतिकर है। यौवन में तुम्हारे रूप का जयगान नहीं किया। रूप का जयगान सौन्दर्य की अवमानना करता है। किन्तु आज तुम्हारे अपार्थिव सौन्दर्य का जयगान करने में गौतम ऋषि को कोई झिझक नहीं। सर्वलोक के द्वार तुम्हारे लिए खुले हैं। आज तुम गौतम के अनुशासन से मुक्त हो। इस जन्म में इतनी ही है हमारी पार्थिव मुलाकात। विदा ले रहा हूँ।"