भारतीय वाक्य की काव्य शैली और स्वरूपगत समानता

अब तक हमने भारतीय वाङ्य की केवल विषयवस्तुगत अथवा रागात्मक एकता की ओर संकेत किया है; किन्तु उसकी काव्य शैलियों और काव्य रूपों की समानता भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । भारत के प्रायः सम्पूर्ण साहित्य में संस्कृत से प्राप्त काव्य शैलियाँ महाकाव्य, खण्डकाव्य, मुक्तक, कथा, आख्यायिका आदि के - अतिरिक्त अपभ्रंश परम्परा की भी अनेक शैलियाँ, जैसे चरितकाव्य, प्रेमगाथा शैली, रास, पद-शैली आदि प्रायः समान रूप में मिलती हैं। अनेक वर्णिक छन्दों के अतिरिक्त अनेक देशी छन्द- दोहा, चौपाई आदि भी भारतीय वाइय के लोकप्रिय छन्द हैं। इधर आधुनिक युग में पश्चिम के अनेक काव्यरूपों और छन्दों का जैसे प्रगीत काव्य और उसके अनेक भेदों, जैसे सम्बोधन गीत, शोक-गीत, चतुर्दशपदी का और मुक्तछन्द, गद्यगीत आदि का प्रचार भी सभी भाषाओं में हो चुका है। यही बात भाषा के विषय में भी सत्य है। यद्यपि मूलतः भारतीय भाषाएँ दो विभिन्न परिवारों - आर्य और द्रविड़ परिवारों की भाषाएँ हैं, फिर भी प्राचीन काल में संस्कृत, पालि, प्राकृतों और अपभ्रंश के और आधुनिक युग में अंग्रेजी के प्रभाव के कारण रूपों और शब्दों की अनेक प्रकार की समानताएँ सहज ही लक्षित हो जाती हैं। भारतीय भाषाएँ अपनी व्यंजनात्मक और लाक्षणिक शक्तियों के विकास के लिए, चित्रमय शब्दों और पर्यायों के लिए तथा नवीन शब्द निर्माण के लिए निरन्तर संस्कृत के भण्डार का उपयोग करती रही हैं और आज भी कर रही हैं। इधर वर्तमान युग में अंग्रेजी का प्रभाव भी अत्यन्त स्पष्ट है । अंग्रेजी की लाक्षणिक और प्रतीकात्मक शक्ति बहुत विकसित है। पिछले पचास वर्ष से भारत की सभी भाषाएँ उसकी नवीन प्रयोग भंगिमाओं, मुहावरों, उपचार वक्रताओं को सचेष्ट रूप से ग्रहण कर रही हैं। उधर गद्य पर तो अंग्रेजी का प्रभाव और भी अधिक है, हमारी वाक्य रचना प्रायः अंग्रेजी पर ही आश्रित है । अतः इन प्रयत्नों के फलस्वरूप साहित्य की माध्यम भाषा में एक गहरी आन्तरिक समानता मिलती है जो समान विषयवस्तु के कारण और भी दृढ़ हो जाती है।