आधुनिक भारतीय साहित्य: प्रवृत्त्यात्मक परिचय - Modern Indian Literature: Introduction

आधुनिक भारतीय साहित्य: प्रवृत्त्यात्मक परिचय

लगभग सभी भाषाओं में आधुनिक युग का सूत्रपात सन 1857 के स्वतन्त्रता संघर्ष के आसपास ही होता है। दक्षिण में अथवा बंगाल में पश्चिमी सभ्यता संस्कृति का प्रभाव मध्यदेश अथवा उत्तरपश्चिम की अपेक्षा कुछ पहले आरम्भ हो गया था, किन्तु वास्तव में आधुनिक युग का उदय पाश्चात्य सम्पर्क से न होकर उसके विरुद्ध संघर्ष के साथ दूसरे शब्दों में प्रबुद्ध भारतीय चेतना के उदय के साथ होता है, और इस दृष्टि से भारतीय वाक्य में आधुनिकता का समारम्भ लगभग समकालिक ही है । विगत शताब्दी में, स्वतन्त्रता से पूर्व सं 1947 तक आधुनिक साहित्य के सामान्यतः चार चरण हैं-


(i) पुनर्जागरण


(ii) राष्ट्रीय सांस्कृतिक भावना का उत्कर्ष (जागरण-सुधार),


(iii) रोमानी सौन्दर्य दृष्टि का उन्मेष और


(iv) साम्यवादी सामाजिक चेतना का उदय । कुछ समय के अन्तर से भारत की सभी भाषाओं में उपर्युक्त प्रवृत्तियों का अनुसन्धान किया जा सकता है।


तमिल


तमिल में पुनर्जागरण के नेता थे रामलिंग स्वामिगल इन्होंने अपने काव्य में भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान का प्रयत्न किया और सभी धर्मों की एकता का प्रतिपादन कर नवीन समन्वय दृष्टि का समावेश किया। उनके अनन्तर कवि सुब्रह्मण्यम् भारती ने भारत की राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रान्ति को अपने काव्य में वाणी प्रदान की। उनके साहित्य में राष्ट्रीय चेतना का उत्कर्ष मिलता है। चिदम्बरम् पिल्लई और बी. बी. एस. अय्यर ने भी इस राष्ट्रीय यज्ञ में सम्यक् योगदान किया। प्रकृति से तमिल यद्यपि परम्परानिष्ठ और संस्कारशील भाषा है, पर यहाँ भी साम्यवादी भावना का उदय हुआ और भारतीदासन और उनके परवर्ती कवियों ने अत्यन्त तीखे स्वर में जनक्रान्ति की भावना को मुखरित किया है।


तेलुगु


तेलुगु के पुनर्जागरण युग का नेतृत्व वीरेशलिंगम ने किया। उनका अनेक रूप विशाल साहित्य नवीन जागरण की चेतना से अनुप्रेरित है। गुर्जाड अप्पाराव ने इस कार्य को आगे बढ़ाया और उनके पथ प्रदर्शन में अभिनव तेलुगु आन्दोलन के द्वारा आधुनिक साहित्य का विकास हुआ। बीसवीं सदी के पहले चरण में रायप्रोलु सुब्बाराव आदि की कविता में रोमानी सौन्दर्यबोध की अभिव्यक्ति होने लगी और चौथे-पाँचवें दशक में श्रीरंगम, श्रीनिवासराव, दाशरथि प्रभृति साहित्यिक प्रखर सामाजिक चेतना से अनुप्राणित सम्य भावना का प्रचार करने लगे। का० श्री श्री ने इस प्रवृत्ति को और आगे बढ़ाते हुए दिगम्बर पीढ़ी के तरुण कवियों के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया ।


कन्नड़


कन्नड़ में नव चेतना का उदय 1890 ई. में स्थापित कर्नाटक विद्यावर्धक संघ के आयोजित क्रियाकलाप द्वारा हुआ और इसके संस्थापकों ने, जो प्रायः अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त थे, अंग्रेजी तथा संस्कृत से अनेक महत्त्वपूर्ण अनुवाद प्रस्तुत किए। इस प्रकार प्राचीन को नवीन प्रकाश में देखने और जगाने का अवसर मिला। नवजागरण का प्रकाश गाँधी के असहयोग आन्दोलन से और उजागर होने लगा और श्रीकठेया, गोविन्द पै, बेंद्रे, शंकर भट्ट आदि ने उत्कट देश भक्ति के वीरगीत लिख कर प्रदेश को नवीन स्फूर्ति से भर दिया। लगभग उसी समय रवि ठाकुर की सौन्दर्य चेतना का प्रभाव आरम्भ हो गया और पुट्टप्पा, गोकाक आदि ने रोमानी कविताएँ लिखीं। लगभग पन्द्रह- बीस वर्ष तक राष्ट्रीय, सांस्कृतिक और रोमानी काव्यधाराओं का व्यापक प्रभाव रहा उसके बाद यहाँ भी मार्क्सवादी विचारों का प्रवेश होने लगा और अ.न. कृष्णराव, करत और निरंजन प्रभृति लेखक शोषित जनता के जीवनगीत गाने लगे । गोपालकृष्ण अडिग ने 'नव्य-काव्य' में और फिर नरसिंह स्वामी ने 'नवीन काव्य' में जीवन तथा साहित्य के अन्तर्गत आधुनिक अथवा अत्याधुनिक मूल्यों का उद्घोष करते हुए इस परम्परा का और आगे विकास किया।


मलयालम


मलयालम के प्रदेश केरल में भी 19वीं शती के मध्य तक नयी प्रकार की शिक्षा का प्रभाव स्पष्ट होने लगा था। पाठ्यक्रम की बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संस्कृत तथा अंग्रजी के गौरव ग्रन्थों का अनुवाद किया गया। केरल वर्मा, वेनमणि, राजराज वर्मा आदि मलयालम साहित्य के पुनर्जागरण काल के नेता थे। राष्ट्रीय भावना का उत्कर्ष वल्लतोल की परवर्ती रचनाओं में हुआ। उन्होंने राष्ट्रीय गौरव के प्रत्येक चिह्न को काव्य का विषय बनाया और सामाजिक तथा आर्थिक वैषम्य के प्रति उग्र क्षोभ व्यक्त किया। रूमानी काव्य के अग्रदूत हैं शंकर कुरुप्प उनके बाद च. कृष्णपिल्लै ने 'रमणन्' नामक एक करुण गोपगीत लिखकर इस परम्परा को आगे बढ़ाया। 1936 के आसपास मलयालम कविता का एक नया मोड़ आया। इसकी प्रमुख प्रेरणा वामपक्षी राजनीति रही है। 1927 त्रिचूर में एक सम्मेलन हुआ और उसी के परिणामस्वरूप 'जीवित साहित्यम्' नाम से एक साहित्यिक संस्था की स्थापना हुई। बाद में इस संस्था का नाम बदलकर 'पुरोगमन साहित्य' हो गया। इसको ए. बालकृष्ण पिल्ले, एम.पी. पाल, और जोसेफ मुंडाशेरि जैसे आलोचकों ने प्रेरणा दी। प्रगतिशील कवियों में एन. वी. कृष्णवारियर, अक्कितम्, वयलार, राम वर्मा, ओलप्पमन्, ओ.एन.वी. कुरुप्प पी. भास्करन, अनुजन् आदि उल्लेखनीय हैं। कला और साहित्य के विषय में इस प्रतिबद्ध दृष्टिकोण का नयी कविता के प्रवक्ताओं- माधवन, के. चेरियन् तथा उनके अन्य सहयोगियों ने विरोध करते हुए कला की स्वायत्त सत्ता का प्रतिपादन किया।


मराठी


मराठी साहित्य में आधुनिक युग का सूत्रपात उन्नीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में हो चूका था बंबई प्रेसीडेंसी कॉलेज के अधिकारी एलफिन्सटन और मालकम की उदार शिक्षा नीति, बबई एजुकेशन सोसाइटी और दक्षिण प्राइज कमेटी के कार्य, ईसाई धर्म प्रचार, बालशास्त्री जमेकर, तथा कृष्ण शास्त्री चिपलूणकर द्वारा पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन, बाद में केशरी के प्रकाशन और अन्त में लोकमान्य तिलक, न्यायपति रानाडे तथा गोपालकृष्ण गोखले जैसे प्रबुद्ध विचारकों के योगदान के फलस्वरूप आधुनिक मराठी साहित्य का सूत्रपात हुआ । उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में अनेक प्रतिभावान् मराठी कवियों ने एक ओर कालिदास, भवभूति, शूद्रक आदि की रचनाओं का अनुवाद किया और दूसरी ओर मिल्टन, ड्राईडन, स्कॉट, पॉप, ग्रे, गोल्डस्मिथ, वर्ड्सवर्थ आदि से प्रेरणा ग्रहण कर मराठी काव्य में नयी भंगिमाओं का समावेश किया । इस वर्ग के कवियों में महाजन, कीर्तिकर, कुंते आदि का विशिष्ट स्थान है । इन कवियों ने मराठी काव्य को नयी दिशा प्रदान की। राष्ट्रवादी चेतना का विकास हुआ- विचार - गाम्भीर्य, वैयक्तिक तत्त्व, सीधी अभिव्यंजना शैली आदि का प्रादुर्भाव हुआ। केशवसुत का काव्य 'तुतारी' ( तुरही), कुन्ते का अपूर्ण महाकाव्य 'राजा शिवाजी', गोविन्दाग्रज तथा क्रान्तिकारी नेता सावरकर के पवाड़े राष्ट्रीय एकता के अग्र प्रतीक हैं। रोमानी प्रवृत्ति का सूत्रपात यों तो केशवसुत की कृतियों से ही हो जाता है, परन्तु बी. बालकवि आदि की रचनाओं में उसका स्वरूप अधिक स्पष्ट हुआ । शरत, मुक्तिबोध, तथा करंदीकर आदि कवि लेखक साम्यवादी भावना को पूरी निष्ठा के साथ अभिव्यक्त कर रहे हैं। इसी के साथ-साथ अतिबुद्धिवादी वैयक्तिक कविता, जिसे हिन्दी में प्रयोगवाद अभिदान प्राप्त हैं, उभर कर सामने आयी, मर्ढेकर जैसे कवियों ने इस वर्ग का नेतृत्व किया था। उनके परवर्ती पेंडसे, पाधे, रेगे आदि कवि कलाकारों ने नव्य काव्य की इसी बौद्धिक चेतना की अनेक रूपों में सूक्ष्म तरल अभिव्यक्ति मिलती है।


गुजराती


गुजराती इतिहासकार अपने आधुनिक साहित्य का तीन चरणों में विभाजन करते हैं- (i) 1825 से 1885, (ii) 1885 से 1920, (iii) 1920 से अद्यतन । गुजराती का यह चरण निक्षेप अन्य भाषाओं के प्रायः समानान्तर ही है। प्रथम चरण अर्थात् नवजागरण काल के नेता थे नर्मद जो भारतेन्दु के समकालीन और एक प्रकार से सहकर्मी भी थे। दूसरे चरण में राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना का विकास हुआ जिसका तृतीय चरण में और भी उत्कर्ष हुआ । इस प्रवृत्ति के प्रेरणास्रोत थे गाँधीजी, जिनसे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से स्फूर्ति प्राप्त कर अनेक समर्थ कलाकार सामने आए। गाँधीजी के अतिरिक्त नान्हालाल, प्रो० ठाकोर, काका कालेलकर, आनन्दशंकर ध्रुव, उमाशंकर, सुन्दरम् और कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जो वास्तव में इस धारा के उन्नायक हैं। रोमानी सौन्दर्य दृष्टि का उन्मेष हमे पूजालाल आदि की प्रगीत रचनाओं में मिलता है। उनकी रस चेतना में सूक्ष्म परिष्कार और अभिव्यक्ति में नवीन कल्पना-चित्र तथा भंगिमाएँ मिलती हैं। यहाँ भी सन् 1940 के आस-पास प्रगतिशील आन्दोलन की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ने लगी और मणिकर आदि कवि सामने आए। इसी प्रकार नई बौद्धिक कविता के क्षेत्र में भी प्रयोग आरम्भ हो गए हैं और राजेंद्र शाह, उनके परवर्ती सुरेश जोशी तथा सुरेश दलाल आदि कवि इस नवीन चेतना को वाणी देने का प्रयास कर रहे हैं।


बांग्ला


भारतीय भाषाओं में कदाचित् सबसे समृद्ध आधुनिक साहित्य है बांग्लाका । उन्नीसवीं शती में राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर आदि नेताओं और ईश्वरगुप्त, मधुसूदनदत्त तथा बंकिमचन्द्र प्रभृति साहित्य-महारथियों ने बंगाल के समाज और साहित्य में नवीन युग का प्रवर्तन किया। यहाँ भी नवीन युग की भूमिका पाश्चात्य शिक्षा सभ्यता के सम्पर्क और संघर्ष से तैयार हुई थी वस्तुतः पश्चिमी देशों की अपेक्षा बंगाल का पश्चिम के साथ सम्पर्क अधिक सीधा और घनिष्ठ था, इसलिए बांग्ला साहित्य का प्रथम उत्थान बड़े वेग से हुआ। फोर्ट विलियम कॉलेज, ईसाईयों का धर्म प्रचार और उसके उत्तर में भारतीय मनीषियों द्वारा स्वधर्म का आख्यान, स्कूल टेक्स्ट बुक सोसाइटी के प्रयत्न और अंग्रेजी ग्रन्थों के अनुवाद आदि द्वारा साहित्यिक नव जागरण की प्रक्रिया यहाँ भी वैसी ही रही। दूसरे चरण में रवीन्द्रनाथ का उदय हुआ और बांग्ला साहित्य में एक नवीन रहस्य चेतना, एक सौन्दर्य भावना का विकास हुआ। रवीन्द्रनाथ की कवि दृष्टि व्यापक थी। उनकी रागात्मक चेतना राष्ट्र की परिधि को पार कर अखिल मानवता तक व्याप्त थी अतः उनकी राष्ट्र भावना का आधार मूलतः मानवीय और सांस्कृतिक ही रहा। इस प्रकार रवीन्द्रनाथ के कवि मानस से आधुनिक भारतीय काव्य की दो वेगवती धाराएँ प्रवाहित हुई- (i) राष्ट्रीय-सांस्कृतिक और (ii) रोमानी (रहस्यवादी छायावादी) । इनमें से यद्यपि पहली का गौरव भी कम नहीं है, किन्तु दूसरी का प्रचार-प्रसार अधिक हुआ। भारतीय कविता में जो नई रोमानी प्रवृत्तियाँ उद्बुद्ध हुई, उन पर रवि ठाकुर का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव अवश्य रहा है। चौथे दशक में आकर बांग्ला मैं भी प्रतिक्रिया आरम्भ हुई और वामपक्ष की विचारधारा से प्रभावित कवि और कथाकार रवीन्द्र और शरत की बुर्जुआ मनोवृत्ति का प्रच्छन्न या अप्रकट रूप से विरोध करने लगे। कविता के क्षेत्र में सुभाष मुखोपाध्याय आदि में और कथा साहित्य में माणिक वंद्योपाध्याय आदि में साम्यवादी स्वर स्पष्ट सुनाई देने लगा। अन्त में बांग्ला में भी नयी बौद्धिक कविता का जन्म हुआ भावतत्त्व, बिम्ब-विधान और अभिव्यक्ति के अन्य उपकरणों के साथ बांग्ला कवि विष्णु दे आदि अनेक प्रकार के प्रयोग कर रहे हैं। इसी प्रकार असमिया और उड़िया में भी आधुनिक साहित्य की गतिविधि प्रायः समान ही रही है।


असमिया


असमिया में आनन्दराम फुकन राष्ट्रीय जागृति के अग्रदूत थे उनके सहयोगी थे कमलाकान्त भट्टाचार्य, हेमचन्द्र बरुआ आदि जिन्होंने वीरगीतों के द्वारा देशभक्ति का प्रचार किया और व्यंग्य कथाओं और लेखों द्वारा सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया। दूसरे चरण का नेतृत्व तीन लेखकों ने किया चन्द्रकुमार अग्रवाल, लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ और हेमचन्द्र गोस्वामी । वास्तव में इन्हें वर्तमान असमिया साहित्य का निर्माता कहा जा सकता है। देशप्रेम की जिस लहर ने आधुनिक असमिया साहित्य में नव-जीवन का संचार किया था, वह इन तीनों लेखकों और इनसे प्रभावित अन्य लेखकों की रचनाओं में विविध दिशाओं में फूट पड़ी। राष्ट्रीय भावना के उत्कर्ष के साथ नवीन रोमानी काव्य-चेतना का प्रथम स्फुरण भी इनकी रचनाओं में मिलता है। इस रोमानी प्रवृत्ति का विकास आगे चलकर हितेश्वर बरबरुआ, यतींद्रनाथ दुवरा और देवकान्त बरुआ जैसे कवि कलाकारों ने किया इन कवियों की कृतियाँ प्रायः व्यक्तित्व-प्रधान हैं- इन पर अंग्रेजी रोमानी कवि और रवि बाबू का गहरा प्रभाव है। 1942 के आन्दोलन के बाद असमिया के युवक साहित्यकार समाजवाद की ओर झुकने लगे और 1946 में प्रकाशित 'आधुनिक असमिया कविता' में पूँजीवादी शोषण तथा वर्गवाद के विरुद्ध हुँकार साफ सुनाई देती है। इधर वर्तमान दशक में असमिया के नए कवि भी इलियट आदि से प्रेरणा ग्रहण कर नवीन बौद्धिक धारणाओं को अभिव्यक्ति दे रहे हैं। महेन्द्र बोरा द्वारा प्रकाशित 'नूतन कविता' नामक संकलन में इस प्रवृत्ति के स्पष्ट उदाहरण मिलते हैं।


उड़िया


उड़िया का विकासक्रम भी प्रायः असमिया के समान ही है। वहाँ नवप्रभात के सन्देशवाहक हैं- फकीरमोहन सेनापति, राधानाथ और मधुसूदन। इन लेखकों ने जिस राष्ट्रीय भावना को उबुद्ध किया उसका उत्कर्ष आगे चलकर गोपबंधुदास और उनके सहयोगी कवि लेखकों में मिलता है। गोपबंधु का सत्यवादी दल उड़ीसा की राष्ट्रीय-सामाजिक जागृति का केन्द्र था और अनेक साहित्यकार प्रत्यक्ष या अपरोक्ष रूप में इसके साथ सम्बद्ध थे। इस वर्ग के लेखकों का दृष्टिकोण आरम्भ से ही इतना नीति कठोर था कि कुछ समय उपरान्त काव्य- चेतना रस के लिए जैसे छटपटाने लगी। इस प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप 'सबुजा वर्ग का जन्म हुआ जो रवि बाबू से प्रेरणा ग्रहण कर स्वछन्दतावादी काव्य-रचना में प्रवृत हुआ। बैकुंठ पट्टनायक की अधिकांश काव्यकृतियों में और कालिंदीचरण पाणिग्रही के कथा-साहित्य में इस प्रवृत्ति का परिपाक मिलता है। इस शताब्दी के तीसरे दशक में रवि ठाकुर का प्रभाव समाजवादी और साम्यवादी विचारों की आभा के प्रसार से कुछ कम पड़ने लगा। और चौथे दशक के अन्त तक शची राउतराय तथा अन्य कवियों के स्वरों पर आरूढ़ होकर वह उड़िया साहित्य में तेजी से फैल गया। इसके बाद अब टी. एस. इलियट की गूढ़-रूपात्मक संकल्पना की ओर विनोद राउतराय तथा विनोदनायक प्रभृति तरुण कवियों का आकर्षण बढ़ता जा रहा है।


अब रह जाती हैं उत्तर-पश्चिम की तीन भाषाएँ पंजाबी, उर्दू और हिन्दी। इन भाषाओं में उन्नीसवीं सदी के मध्य में नव जागरण का आरम्भ होने लगा था।


पंजाबी


पंजाबी के सर अतर सिंह उर्दू के सर सैयद अहमद खां और हिन्दी के अशासकीय क्षेत्र के भारतेन्दु तथा शासकीय क्षेत्र में राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द ने शिक्षा क्रम की व्यवस्था कर, अंग्रेजी तथा संस्कृत ग्रन्थों के अनुवाद प्रस्तुत कर अथवा करा के तथा समाचार पत्रों के प्रकाशन द्वारा नए ज्ञान के लिए द्वार खोला। उधर ईसाई प्रचार ने भी अपना कार्य किया। 1852 ई. में लुधियाना में क्रिस्चन मिशन ने बाइबिल का पंजाबी अनुवाद और 1854 में पंजाबी भाषा का शब्दकोश प्रकाशित किया।


उर्दू


उर्दू में आधुनिक काव्य के अग्रदूत थे हाली, जिन्होंने कविता को प्राचीन रूढ़ियों से मुक्त कर नवीन जीवन की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया और तत्कालीन राजनैतिक एवं सामाजिक क्रान्ति की भावनाओं को वाणी प्रदान की। उधर गद्य के क्षेत्र में सर सैयद ने आधुनिक गद्य को जन्म दिया। सं. 1862 में सर सैयद ने अंग्रेजी के अमर ग्रन्थों का अनुवाद करने के लिए एक साहित्यिक वैज्ञानिक संस्था की स्थापना की और सं. 1870 में 'तहजीबुल अखलाक़' नामक एक पत्रिका निकाली जिसने उर्दू के विख्यात गद्य लेखकों का निर्माण किया और भाषा शैली में क्रान्तिकारक परिवर्तन किए।


हिन्दी


हिन्दी में यह कालखण्ड भारतेन्दु युग के नाम से प्रसिद्ध है। भारतेन्दु और उनके मण्डल के कवियों ने साहित्य के प्राचीन रूपों का नवीनीकरण और अनेक नवीन रूपों का सृजन कर नव-जीवन की चेतना को अभिव्यक्त किया। यह युग सृजन के उत्साह और स्फूर्ति का युग था । इस युग में हिन्दी के गद्य तथा पद्य साहित्य में क्रान्तिकारी परिवर्तन उपस्थित हो गया। ईसाई धर्म प्रचारक और अंग्रेज़ प्रशासक भी अपने-अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस दिशा में प्रयत्नशील थे। हिन्दी और उर्दू दोनों में मसीही धर्म ग्रन्थों के अनुवाद और भाष्य प्रकाशित किए गए फोर्ट विलियम कॉलेज और उसके बाहर भी अंग्रेजी शासन की ओर से पाठ्य-ग्रन्थों के निर्माण और उनके प्रकाशन के सप्रयत्न हुए। नव जागृति की ये उमंगें आगे चलकर प्रतिफलित हुई जबकि पंजाबी, हिन्दी और उर्दू के साहित्यकारों में राष्ट्रीय चेतना का स्वर ऊँचा और स्पष्ट होने लगा। पंजाबी में गुरुमुख सिंह' मुसाफिर', हीरा सिंह दर्द आदि कवियों में राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्य का उत्कर्ष मिलता है उर्दू में इक़बाल सूर्य के समान जाज्वल्यमान हैं। उदार भावना की दृष्टि से चकबस्त और अकबर की कविता अधिक लोकप्रिय हुई। हिन्दी में यह राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के उत्कर्ष और विकास का युग है। माखनलाल चतुर्वेदी, 'नवीन' आदि उनके सहयोगी थे। बाद में चल कर सियारामशरण गुप्त और दिनकर के काव्य में इस कविता में नए स्वर गूँज उठे । आधुनिक साहित्य तीसरी प्रमुख प्रवृत्ति स्वछन्दतावाद का पूर्ण उत्कर्ष हमें हिन्दी में मिलता है। प्रसाद, निराला, पंत तथा महादेवी जैसे विभूतिमान कलाकारों द्वारा संवर्धित हिन्दी का छायावादी काव्य भारतीय वाक्य की अमर उपलब्धि है। पंजाबी में भाई वीर सिंह और पूरन सिंह इस प्रवृत्ति के अग्रणी कवि हैं और उर्दू में अख्तर शीरानी तथा मजाज़ आदि की रचनाएँ रूमानी रंग से सराबोर हैं। इसके बाद समाजवादी प्रभाव का आरम्भ हो जाता है और वामपक्षीय चिन्तनधारा से प्रेरित साहित्यिक प्रवृत्तियाँ उभर कर सामने आने लगती हैं। पंजाबी और उर्दू में जनक्रान्ति का स्वर और भी बुलंद है- उर्दू में जोश मलीहाबादी, फिराक गोरखपुरी, अली सरदार जाफ़री आदि की और पंजाबी में अमृता प्रीतम और करतार सिंह दुग्गल जैसे लेखकों की कृतियों में जन क्रान्ति की उग्र भावनाएँ मुखरित हैं। हिन्दी में पंत की 'युगवाणी' और 'ग्राम्या' में नरेन्द्र अंचल, सुमन, नागार्जुन आदि की स्फुट रचनाओं में और यशपाल आदि के कथासाहित्य में मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की प्रेरणा सर्वदा स्फुट है । वर्तमान साहित्य की अत्याधुनिक प्रवृत्ति थी प्रयोगवाद जिसका कुछ समय बाद नई कविता में रूपान्तरण हो गया। इसका नामकरण चाहे हुआ हो या न हुआ हो, हिन्दी की भाँति पंजाबी और उर्दू में भी पिछले 15-20 वर्षों से नवीन बुद्धिवादी साहित्यकारों में इसके प्रति आकर्षण बढ़ता रहा है। हिन्दी अज्ञेय आदि, पंजाबी में प्रीतम सिंह सफ़ीर और उर्दू में फैज़, नून, मीम, राशिद की रचनाएँ प्रमाण हैं।


आधुनिक भारतीय इतिहास की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटना थी स्वतन्त्रता की प्राप्ति जिसने सभी भाषाओं के साहित्य को प्रभावित किया है। भारत ने सत्य और अहिंसा के द्वारा प्राप्त अपनी स्वतन्त्रता को विश्व-मुक्ति के रूप में ग्रहण किया है। हमारे लिए यह भौतिक मुक्ति का प्रतीक न होकर आध्यात्मिक मुक्ति का पर्याय है। भारत की प्रायः सभी भाषाओं में इस अवसर पर मंगलगान लिखे गए जो सात्त्विक उल्लास और लोककल्याण की भावना से ओतप्रोत हैं। स्वतन्त्रता के पश्चात हमारी विश्वमैत्री की सफल विदेश नीति की प्रेरणा से प्रायः सभी भाषाओं में राष्ट्रीय सांस्कृतिक प्रवृत्ति को संवर्धना मिली है और आज भारतीय साहित्य का प्रधान स्वर यही है जो कश्मीर से लेकर केरल तक और आसाम से लेकर सौराष्ट्र तक गूंज रहा है। स्वाधीन भारत में भारतीय भाषाओं का महत्त्व बढ़ा है और देश की बढ़ती हुई शैक्षिक एवं प्रशासनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के निमित्त इन सभी के विकास के संगठित प्रयत्न हो रहे हैं। किन्तु इसका एक दूसरा पक्ष भी है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात युवा समाज में जिन नई आकांक्षाओं का उदय हुआ था, अनेक कारणों से उनकी पूर्ति नहीं हो सकी। इसका परिणाम हुआ अवसाद और मोहभंग जो तरुण लेखकों की रचनाओं में अनेक रूपों में व्यक्त हो रहा है।


इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत के आधुनिक साहित्य का विकासक्रम कितना समान है।