भारतीय भाषाओं के ज्ञान अर्थात् समझ की समस्या - Problem of knowledge i.e. understanding of Indian languages

भारतीय भाषाओं के ज्ञान अर्थात् समझ की समस्या - Problem of knowledge i.e. understanding of Indian languages


भारतीय भाषाओं के विकास के बारे में अज्ञान क्षम्य है किन्तु इन भाषाओं में रचे हुए साहित्य की अखिल भारतीयता के बारे में अज्ञान अक्षम्य है। यह कौन नहीं जनता कि भक्ति आन्दोलन के स्रोत दक्षिण भारत में थे, यह आन्दोलन दक्षिण भारत से फैलता हुआ उत्तर भारत में आया और इसके उद्भव और प्रसार में द्विज और शूद्र दोनों वर्णों के लोगों का हाथ था। यह सारा इतिहास भुलाकर यदि कोई तमिल भाषी अपने ही साहित्य को आर्य और द्रविड़, ब्राह्मण और शूद्र में विभाजित कर दे, तो इससे औरों की हानि बाद में होगी, सबसे पहले वह तमिल साहित्य के इतिहास को ही चौपट करेगा, सबसे पहले वह तमिल जाति की संस्कृति का नाश करेगा। देखना यह चाहिए कि तमिल साहित्य में सामन्त विरोधी तत्त्व कौन से हैं, न कि यह कि इस साहित्य का लिखने वाला द्विज है या शूद्र । देखना यह चाहिए कि तमिल भाषा के इस सामन्त विरोधी साहित्य ने दूसरी भाषाओं को कहाँ तक प्रभावित किया है, उन भाषाओं के सामन्त विरोधी साहित्य ने तमिल साहित्य को कहाँ तक प्रभावित किया है। इसके बदले यदि कोई साहित्य में आर्य और द्रविड़ तत्त्व ढूँढता फिरे तो क्या यह सामन्तवाद की सेवा न होगी ! भारतीय साहित्य की प्रगतिशील धारा आर्य और द्रविड़ दो भागों में नहीं बाँटी जा सकती। उसकी प्रगतिशीलता का एक प्रमाण ही यह है कि वह इस प्रकार विभाजित नहीं हो सकती। उसके निर्माता साम्राज्यवाद के दलाल नहीं थे, वे साम्राज्यवादियों के नस्सलवादी सिद्धान्त के उपासक नहीं थे। उनकी उदार मानवतावादी वाणी विश्व कल्याण के लिए है, इस देश की समस्त जनता के कल्याण के लिए है।


सांस्कृतिक तत्त्वों का विनिमय भाषा तत्त्वों के विनिमय से कुछ अधिक ही होता है और यह बिल्कुल सम्भव है कि विनिमय की जिस दशा से हम बीसवीं सदी में परिचित हैं, वह सोलहवीं सदी में वैसी न रही हो, यानी यह सम्भव है कि अंग्रेजी राज्य में आर्य-द्रविड़ साहित्य में जैसा सम्पर्क रहा, उससे बहुत अधिक सम्पर्क अंग्रेजी राज्य से पहले रहा हो, भले ही उस समय सूचना और प्रसारण के साधन आज की अपेक्षा नितान्त अविकसित रहे