सत्य एवं अहिंसा - Truth and Nonviolence
सत्य एवं अहिंसा - Truth and Nonviolence
सत्य और अहिंसा ही महात्मा गाँधी के सम्पूर्ण चिंतन एवं कर्म का केंद्र बिंदु है। ईश्वर सत्य है' से सत्य ईश्वर है की उनकी यात्रा दार्शनिक आधार लिए हुए है। लेकिन सत्य की कोई एक निश्चित और एकावामी धारणा स्वीकार नहीं की जा सकती है क्योंकि विभिन्न धर्मों एवं दर्शनों में सत्य को जानने, उसकी प्रक्रिया अभिव्यक्ति में कई भिन्नताएँ है। गाँधीजी इसी विचार को स्पष्ट करते हुए सत्य के अनन्त रूपों को स्वीकार करते हैं और मानते हैं कि निरपेक्ष सत्य को जानना मनुष्य के वश की बात नहीं है। अतः मनुष्य के के लिए यह आवश्यक है और यह कर्तव्य भी है कि सत्य जैसे उसे दिखाई दे, उसका अनुगमन करें एवं ऐसा करते हुए अहिंसा को अपनाएं निरपेक्ष सत्य को जानना मनुष्य के वश की बात नहीं है।
उसका कर्तव्य है कि सत्य जैसा उसे दिखाई दे उसका अनुगमन करे और ऐसा करते समय शुद्धतम साधन अर्थात् अहिंसा को अपनाए। अहिंसा के माध्यम से ही हम सत्य के विभिन्न रूपों के अस्तित्व को स्वीकार कर सकते हैं और विभिन्नताओं के बावजूद जीवन संचालित कर सकते हैं। साध्य एवं साधन के एकत्व के कारण सत्य का आग्रह एक प्रकार से अहिंसा का ही आग्रह हो जाता है। अहिंसा की इस अनुभूति का आधार अस्तित्व मात्र के एकत्व का विचार है। इस अहिंसा दृष्टि का सार मम तथा समेतर/ स्व और पर के बीच प्रेमपूर्ण एवं सृजनात्मक संबंधों में निहीत है। इस ममंतर पर में केवल मनुष्य ही नहीं अपितु सम्पूर्ण सृष्टि शामिल है। इस हिंसा दृष्टि का व्यावहारिक आधार व्यक्ति द्वारा न केवल अन्य व्यक्ति अपितु सम्पूर्ण सृष्टि के साथ प्रेमपूर्ण संबंध स्थापित करना है। वस्तुत: गाँधीजी के जीवन का सार अहिंसा पर आधारित एक मानवीय सभ्यता का निर्माण करना है 1931 में लंदन में भारतीय विद्यार्थियों की सभा में गाँधीजी द्वारा कहा गया निम्नलिखित कथन उनके समस्त विचारों को समझने का प्रस्थान बिंदु है
"मुझे अपने देशवासियों की पीढ़ाओं के निवारण से ज्यादा चिंता मानव प्रकृति के करी उपर्युक्त दार्शनिक प्रस्थापनाएँ ही गांधीजी के समस्त चिंतन का विन्यास करती है। उनके लिए सत्य अहिंसा के रूप में अभिव्यक्त होता है। अत: उनके अनुसार एक आदर्श समाजव्यवस्था और उसके प्रत्येक सदस्य के आचरण की कमीटी अपने सूक्ष्म एवं सकारात्मक अर्थों में अहिंसा हो जाती है। गांधीजी एक ऐसी समाज व्यवस्था की कल्पना करते हैं जिसमें सत्ता के किसी भी रूप का केंद्रीकरण न हो क्योंकि यह हिंसक मनोवृति है। उनकी समाज व्यवस्था में आदर्श इकाई स्वावलंबी मनुष्य व आत्मनिर्भर गाँव है। एक अहिंसक व्यक्ति के निर्माण के लिए वह एकादश व्रतों की धारणा प्रस्तुत करते हैं।
इन एकादश व्रतों को निम्नानुसार बताया जा सकता है.
सत्य
ब्रह्मचर्य
अहिंसा
अस्तेय
अपरिग्रह
शरीर श्रम
अस्वाद
सर्वधर्म समानत्व
अभय
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