वर्ण व्यवस्था अर्थ एवं परिभाषा - Character system meaning and definition
वर्ण व्यवस्था अर्थ एवं परिभाषा - Character system meaning and definition
कई लोग वर्ण और जाति को एक समान अर्थ में लेते हैं परंतु वास्तव में यह दोनों पृथक अवधारणाएं हैं। शाब्दिक की दृष्टि से एक शब्द के तीन संबंधित अर्थ हो सकते हैं
(1) वरण या चुनाव करना
(2) रंग
(3) वृत्ति के अनुरूप
इसमें पहले अर्थ को लोग विशेष महत्व देते हैं। वर्ण शब्द की उत्पत्ति "वृ" (वृत्त वर्णन ) धातु से मानी गई है जिसका अर्थ है वर्णन या चुनाव करना। इस दृष्टि से व्यक्ति अपने लिए जिस व्यवसाय का चुनाव करता है उसी के अनुसार उसको वर्ण का निर्धारण होता था। इसका तात्पर्य है कि वर्ण इन लोगों का समूह है
जिनका व्यवसाय समान है। वर्ण शब्द का दूसरा अर्थ रंग से लगाया जाता है सबसे पहले ऋग्वेद में वर्ण शब्द का प्रयोग रंग अर्थात काले रंग की जनता के लिए किया गया था तथा प्रारम्भ में आर्य और दास इन दो वर्णों का ही उल्लेख मिलता है। घूरिए के अनुसार आर्यों ने यहां के आदिवासियों को पराजित कर उन्हें दास दस्यु का नाम दिया और उनके तथा अपने बीच अंतर प्रकट करने के लिए वर्ण शब्द का प्रयोग किया जिसका अर्थ रंगभेद से है।" पी. वी. काणे के अनुसार- प्रारंभ में गौर वर्ण का उपयोग ब्राह्मणों के लिए एवं कृष्ण वर्ण दासों के लिए किया जाता था। बाद में वर्ण शब्द का उपयोग गुण व कर्म के आधार पर बने हुए चार बड़े वर्गों के लिए किया जाने लगा। सेनार्ट ने भी इसी बात को माना है। •वर्ण शब्द का तीसरा अर्थ वृत्ति से संबंधित है। इस दृष्टि से जिन व्यक्तियों की मानसिक एवं व्यवहार संबंधी विशेषताएं एक समान हो अर्थात जिन व्यक्तियों का समभाव एक जैसा या समान हो उन्हीं से मिलकर एक वर्ण बनता है।
वर्ण के अर्थ के संदर्भ में माना जाता है कि जिन व्यक्तियों के गुण व कर्म समान हैं
वह सभी एक वर्ण के हैं। भगवत गीता में श्री कृष्ण जी ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि पातुवर्ण मया सृष्ट गुण कर्म विभागशः" अर्थात मैंने ही गुण व कर्म के आधार पर चारों विभाग की रचना की है। उपयुक्त कथन से स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था सामाजिक स्तरीकरण की ऐसी व्यवस्था है जो व्यक्ति में गुण तथा कर्म पर आधारित है तथा जिसके अंतर्गत समाज का चारों वर्णों के रूप में कार्यात्मक विभाजन हुआ है। यहां गुण तथा कर्म का तात्पर्य व्यक्ति के स्वभाव एवं सामाजिक दायित्व से है। समाज में विभिन्न कार्यों को ठीक प्रकार से चलाने के उद्देश्य से व्यक्ति की स्वभाविक प्रवृतियों या उनके स्वभाव को ध्यान में रखते हुए उन्हें विभिन्न समूहों अर्थात चार वर्गों में बांटा गया था। प्रत्येक वर्ण के सदस्य अपने वर्ण धर्म का पालन करती है अर्थात अपने दायित्वों को निभाते हुए सामाजिक उन्नति में योग देते थे करते हुए अर्थात अपने दायित्वों को निभाते हुए सामाजिक उन्नति में योग देते थे।
वर्ण की परिभाषा
विभिन्न विद्वानों द्वारा वर्णन की दी हुई परिभाषा इस प्रकार है सेनार्ट:- वर्ण शब्द का उपयोग आर्यों ने ऋग्वेद में आर्य तथा दांसों में भेद करने के लिए किया था।
(सेनार्ट, क्राफ्ट इन इंडिया, पेज 153)
हट्टन:- चार वर्णों के साथ चार रंग संबंधित है ब्राह्मणों के साथ श्वेत, क्षत्रियों के साथ रक्त वैश्यों के साथ पति तथा शूद्रों के साथ कृष्ण
(हट्टन, कास्ट इन इंडिया, पेज 64 )
सत्यमित दुबे :- वर्ण का अर्थ है जो तृप्त हो जिसका वर्णन किया जाए अर्थात जो स्वभाव के अनुसार नकल वृत्ति के द्वारा व्यवस्थित हो। वर्ण का यह पक्ष अपनी रूचि और इच्छा के अनुकूल पेशों के चुनाव के पर बल देता है। इसका अर्थ वर्ण के सामाजिक नियंत्रण के पक्ष से है जो दूसरों को धर्म से परित या नियंत्रित करें, जो स्वकर्तव्य के लिए वर्णित प्रेरित अथवा प्राप्त पुरुषों द्वारा निर्देशित हो। तीसरे अर्थ के अनुसार इसके द्वारा लक्षण, अधिकार, कर्तव्य और वृद्धि का वर्णन किया जाए और अंतिम अर्थ रंग से संबंधित होता है।
(सत्यमित दुबे, मनु की सामाजिक व्यवस्था, 1964 पेज 44)
डॉ. घूरिए :- वर्ण का अर्थ रंग है और इस भाव में ऐसा प्रतीत होता है कि यह शब्द आर्यों का दासों के क्रमशः गोरे और काले रंगों में भेद करने के लिए प्रयोग किया गया था। वर्ण शब्द में रंग की भावना इतनी दृढ़ थी कि कालांतर में चार वर्ण व्यवस्थित रूप में बने तो चारों वर्णों के लिए पृथक पृथक चार रंग निर्धारित कर दिए गए थे।
(जी. एस. घूरिए. कास्ट एंड क्लास इन इंडिया, पेज 46)
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