लागत अवधारणा - Cost Concepts
लागत अवधारणा - Cost Concepts
प्रबन्धकीय अर्थशास्त्र में लागत अवधारणाओं का विशेष स्थान है, क्योंकि प्रत्येक प्रबन्धकीय निर्णय लागत के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा ही लिया जाता है। लागत अवधारणा द्वारा प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री उत्पाद का लाभप्रद मूल्य निर्धारित कर सकता है तथा लाभ की सही मात्रा ज्ञात कर सकता है। फर्म द्वारा लागत विश्लेषण के अभाव में आन्तरिक नियन्त्रण व्यवस्था लागू नहीं की जा सकती है तथा सरकारी आदेशों के पालन में भी त्रुटि हो सकती है। अतः प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री प्रत्येक निर्णय में लागत तथा आय की तुलना करते हैं तथा यदि लागत की तुलना में आय होती है तो वह व्यव विवेकपूर्ण माना जाता है। आजकल व्यवसायी न केवल अपनी लागत की आय से तुलना करता है, बल्कि भूतकालीन लागत से प्रतिद्वन्द्वी की लागत से उद्योग की लागत से तथा भावी सम्भावित लागत से तुलना करके ही सही निर्णय ले पाता है। आजकल एक ही फर्म द्वारा संयुक्त रूप से अनेक वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है, अतः प्रत्येक वस्तु का पृथक से मूल्य निर्धारित करने के लिए उन वस्तुओं की पृथक-पृथक लागत ज्ञात करना आवश्यक होता है।
सामान्यतः व्यावसायिक निर्णय उत्पादों तथा साधनों के मौद्रिक मूल्यों के आधार पर लिये जाते हैं। मौद्रिक रूप में व्यक्त उत्पादन लागत ही एक महत्वपूर्ण कारक है जिसके आधार पर अधिकांश व्यावसायिक निर्णय लिये जाते हैं। ऐसा निम्न कारणों से होता है
(1) उत्पादन प्रबन्धन के दुर्बल बिन्दुओं का पता लगाना,
(2) लागत को न्यूनतम करना,
(3) उत्पादन के अनुकूलतम स्तर का पता लगाना ।
( 4 ) व्यावसायिक संचालन की लागत का अनुमान लगाना ।
एक आधुनिक उद्योग के संचालन में इतने विभिन्न प्रकार के निर्णय लेने होते हैं कि विभिन्न व्यवसायकि योजनाओं की तुलना के लिए लागत सम्बन्धी विभिन्न अवधारणाओं के ज्ञान की आवश्यकता होती है। सर्वाधिक सार्थक लागत का चुनाव करने के लिए लागत अवधारणाओं को स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है।
(1) वास्तविक लागत ( Real Cost)- वास्तविक लागत का अध्ययन प्रतिष्टित अर्थशास्त्रियों ने किसी वस्तु के उत्पादन में श्रमिकों और पूँजी पतियों द्वारा किये गये त्याग अथवा कष्ट के रूप में किया है।
इनका मत है। कि किसी भी उत्पादन में पूँजी पतियों को अपने वर्तमान उपभोग का त्याग करके ही संचय करना पड़ता है तथा श्रमिकों को वस्तु के उत्पादन के लिए कष्टउठाना पड़ता है। इस त्याग अथवा कष्ट की कुल मात्रा ही सम्बन्धित वस्तु के उत्पादन की वास्तविक लागत है।
उपर्युक्त वास्तविक लागत अवधारणा को आधुनिक अर्थशास्त्री नहीं मानते हैं। इस विचार को अवास्तविक एवं संदेहात्मक विचार माना जाता है क्योंकि कष्टएव त्याग व्यक्तिनिष्ठ एवं मनोवैज्ञानिक स्थितियाँ हैं और इनकी माप नहीं की जा सकती है।
(2) अवसर लागत (Opportunity Cost) एवं मौद्रिक या व्यय लागत मौद्रिक अथवा व्यव लागत एवं अवसर लागत में त्याग के स्वभाव के आधार पर हम लागत में अन्तर कर सकते हैं। मौद्रिक लागते वे हैं जो उत्पादन कार्य पर व्यय की जाती हैं। इसमें सभी प्रकार के व्यय सम्मिलित होते हैं। यह सुनिश्चित या व्यक्त लागत (Explicit Cost ) हो सकती है एवं निहित ( Implicit) लागत हो सकती है। व्यक्त लागतों में श्रम, माल, ईंधन, परिवहन, शक्ति, पूँजी आदि का प्रयोग करने के लिए बाहरी तत्वों पर किये गये खर्चों को शामिल किया जाता है। अतः ऐसी लागतें जिनका भुगतान उत्पादन कर्ता वास्तव में दूसरे व्यक्तियों को करता है, व्यक्त लागतें कही जाती हैं।
लेखापालों की दृष्टि से व्यक्त लागतों के योग को ही उत्पादन लागत की संज्ञा दी जाती है। परन्तु किसी वस्तु के उत्पादन में बाह्म तत्वों से प्राप्त साधनों पर खर्च करने के साथ कुछ ऐसे साधनों का भी प्रयोग करना होता है जिन पर स्वयं उत्पादन कर्ता का स्वामित्व होता है। उत्पादनकर्ता की स्वयं की पूँजी का ब्याज, स्वयं के श्रम या प्रबन्ध का पुरस्कार, स्वयं के भवन या साज-सामान का किराया आदि इसी प्रकार के खर्च है। प्रबन्धकीय अर्थशास्त्र में व्यक्त एवं अव्यक्त दोनों ही प्रकार की लागतों का निर्णय की दृष्टि से समान महत्व है।
अवसर लागत वैकल्पिक उद्यम-जन्य लाभ का रूप ग्रहण करती है। अवसर लागत का लेखा पुस्तकों में उल्लेख नहीं किया जाता है। एक साधन कई उत्पादन क्रियाओं में से जब किसी एक विशेष उत्पादन क्रिया में प्रयोग किया जाता है तो वह दूसरी उत्पादन किया में प्रयुक्त होने का अवसर खो देता है। इस विकल्प की लागत को ही अवसर लागत कहते हैं। अवसर लागत को वैकल्पिक लागत, हस्तान्तरण आय या त्याग किया गया विकल्प आदि नामों से भी जाना जाता है। अवसर लागत को हस्तान्तरण आय अथवा मूल्य के अर्थ में उस साधन को वर्तमान प्रयोग में बनाये रखने के लिए दिया जाने वाला वह न्यूनतम भुगतान है जो यदि उसे नहीं दिया जाय तो वह अन्य श्रेष्ठ विकल्प चुन लेगा और वहाँ चला जायेगा।
अवसर लागत की गणना अल्पकालीन निर्णयों की स्थिति में सरल हो सकती है क्योंकि विकल्प स्पष्ट होते हैं। परन्तु अवसर लागत का विस्तृत प्रयोग एवं अर्थ होता हैं यह धारणा दीर्घकालीन निर्णयों में भी सहायक होती हैं। उदाहरणार्थ एक विद्यार्थी की उच्च शिक्षा की लागत उसकी फीस और पुस्तकों के खर्च तक ही सीमित नहीं होती बल्कि उसकी वह आय भी लागत में सम्मिलित है। जो वह उस अवधि में कार्य करके प्राप्त कर सकता था। अवसर लागत विक्रय व्यूह रचता में भी प्रमुख भूमिका निभाती है। इसी प्रकार पूँजी व्यय बजटिंग में भी अवसर लागत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पूँजी लागत अनुमान की धारणा वैकल्पिक विनियोग अवसर की धारणा का आवश्यक रूप से निर्भर करती है।
अवसर लागत वह लागत धारणा है जिसका प्रयोग उस समय किया जाना चाहिए जब की पूर्ति पूर्णतः सीमित हैं। पूर्ति की पूर्ण सीमितता तकनीकी कारणों से हो सकती है जैसे एक क्षेत्र में दूरदर्शन चैनेल की सीमित मात्रा सामाजिक कारणों से हो सकती है, जैसे युद्ध के समय राशनिंग व्यक्तिगत कारणों से हो सकती है जैसे नकद की कमी वास्तव में अवसर लागत की धारणा का व्यवसायी वर्ग एवं प्रबन्धको को यह संदेश महत्वपूर्ण है
कि लागत ज्ञान को अपनी उत्पादक इकाई की क्रियाओं तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए जो क्रियायें नहीं की जा रही हैं परन्तु जो भविष्य में की जा सकती हैं उनकी लागतों का विचार करना बहुत महत्वपूर्ण है। उनका विचार नहीं करना घातक हो सकता है।
(3) विगत एवं भावी लागतें (Past and Future Costs) - अधिकांश महत्त्वपूर्ण प्रबन्धकीय प्रयोगों में भूतकाल में खर्च की गई वास्तविक लागतों से अधिक आवश्यक लागतों का भावी स्वरूप ही होता है। लागतों के पूर्वानुमान पर ही प्रबन्धकीय निर्णय निर्भर करते हैं क्योंकि ये निर्णय भविष्य की ओर देखते हैं तथा भावी परिस्थितियों से सम्बन्धित अनुमानों की तुलना से प्रभावित होते हैं।
भुतकालीन लागते, वे लागतें हैं जो विगत समय में खर्च की गई हो और जिनका सामान्यतया लेखा पुस्तकों में उल्लेख होता है। विगत लागतों की माप करना एक प्रकार से विगत गतिविधियों का रिकार्ड रखना कहा जा सकता है और जहाँ तक प्रबन्धकीय निर्णयों का प्रश्न है, इस प्रकार की लागत की कोई सक्रिय भूमिका नहीं होती । इन लागतों पर दृष्टि डालकर विगत सदर्भ में इसका मूल्यांकन किया जा सकता है और यदि लागतें अधिक प्रतीत होती हैं तो उनके कारणों की छानबीन की जा सकती है परन्तु उन्हें कम नहीं किया जा सकता क्योंकि वे तो पहले ही खर्च की जा चुकी है ।
भावी लागतें वे लागतें होती हैं जो भविष्य की अवधि में खर्च के रूप में अनुमानित होती हैं। ये लागते वास्तव में खर्च की हुई नहीं रहती और न ही इनका लेखा पुस्तकों में कोई उल्लेख होता है। इनके खर्च होने की एक प्रकार की भविश्यवाणी होती हैं । पूर्वानुमानित लगातें ही वास्तव में प्रबन्धकीय निर्णयों के लिए आधार होती है क्योंकि ये ही वे लागते हैं जिनको प्रबन्धकीय निर्णयों द्वारा निर्णयों द्वारा नियन्त्रित किया जा सकता है। भावी लागतो की योजना बनाई जा सकती है तथा उनसे बचने की भी योजना बनाई जा सकती है। यदि भावी लागते अधिक प्रतीत होती है तो प्रबन्धकर्ता उन्हें कम करने की योजना बना सकता है अथवा उनका सामना करने की योजना बना सकता है। लागत नियन्त्रण, भावी आय के अनुमान, नये उत्पादों से सम्बन्धित निर्णय, विस्तार करने की योजना और कीमत निर्धारण कुछ ऐसे महत्वपूर्ण प्रबन्धकीय निर्णय, के मुद्दे हैं जहाँ अनुमानित अथवा भावी लागतों का प्रयोग करना आवश्यक होता है। अतः स्पष्टहै कि प्रबन्धकीय निर्णय मे भावी लागतों की महत्ता अवधारणा सार्वभौम है। यदि भूतकालीन लागतों को प्रबन्धकीय निर्णय का आधार बनाया जाय तो इसका अर्थ यह होगा कि भविष्य की परिस्थितियाँ ठीक भूतकाल की परिस्थितियों जैसे होंगी। परन्तु यह मान्यता सर्वथा अवास्तविक है। भविष्य अनिश्चित तो होता ही है परन्तु भूतकाल से भिन्न भी होता है। भविष्य अनिश्चित का अर्थ यह नहीं है कि भविष्य के बारे में पूर्वानुमान ही नहीं किया जाय ।
(4) अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन लागते ( Short - Run and Long - Run Costs ) किसी भी फर्म की उत्पादन लागत इस लागत इस बात पर निर्भर करती है
कि समय अवधि अल्पकाल है या दीर्घकाल लागतों का व्यवहार अल्पकाल एवं दीर्घकाल में भिन्न होता है। अर्थशास्त्र में अल्पकाल उस अवधि की ओर संकेत करता है जिसमें फर्म की प्लाण्ट क्षमता स्थिर रहती है लेकिन उत्पादन में परिवर्तनशील साधनों के समायोजन में कुछ सीमा तक परिवर्तन करके परिवर्तन किया जाता है। अतः अल्पकाल लागत वें लागतें हैं जो स्थिर प्लॉण्ट क्षमता के परिवर्तनीय प्रयोग से सम्बधित होती हैं। अल्पकाल लागते परिवर्तशील साधनों उस समय महत्वपूर्ण होती है, जब यह निर्णय करना हो कि निकट भविष्य में, जब नया प्लाट स्थापित करना सम्भव नहीं हो अथवा वर्तमान प्लाण्ट की क्षमता बढ़ाना सम्भव नहीं हो, उत्पादन की मात्रा पढ़ाई जाय अथवा नहीं।
दीर्घकालीन लागतें वे लागतें हैं जो उस समय उत्पादन के साथ परिवर्तित होती हैं जब उत्पादन के सभी साधन परिवर्तनशील होते हैं। उत्पादन के प्लाण्ट की क्षमता को बढ़ाया भी जा सकता है अथवा नया प्लाण्ट लगाया जा सकता है क्योंकि दीर्घकाल में सभी साधनों में सभी प्रकार का वांछित समायोजन किया जा सकता है। दीर्घकाल में चूँकि सभी साधन परिवर्तनशील होते हैं, इसलिए अल्पकाल की तरह लागतों को स्थिर लागत और परिवर्तनशीन लागत में वर्गीकृत करने की आवश्यकता नहीं होती है। दीर्घकालीन लागतों का महत्व प्रबन्धको के लिए उस समय होता है जब उसे यह निण्रय करना पड़ता है कि फर्म की उत्पादन क्षमता को बदला जाय अथवा नहीं, नयी फर्म स्थापित की जाय अथवा नहीं।
दीर्घकालीन लागतें वे लागतें हैं जो उस समय उत्पादन के साथ परिवर्तित होती हैं जब उत्पादन के सभी साधन परिवर्तनशील होते हैं। उत्पादन के प्लाण्ट की क्षमता को बढ़ाया भी जा सकता है अथवा नया प्लाण्ट लगाया जा सकता है क्योंकि दीर्घकाल में सभी साधनों में सभी प्रकार का वाछित समायोजन किया जा सकता है। दीर्घकाल में चूँकि सभी साधन परिवर्तनशील होते हैं, इसलिए अल्पकाल की तरह लागतों को स्थिर लागत और परिवर्तनशील लागत में वर्गीकृत करने की आवश्यकता की तरह लागतों को स्थिर लागत और परिवर्तनशील लागत में वर्गीकृत करने की आवश्यकता नहीं होती है। दीर्घकालीन लागतों का महत्व प्रबन्धकों के लिए उस समय होता है जब उसे यह निर्णय करना पड़ता है कि फर्म की उत्पादन क्षमता को बदला जाय अथवा नहीं नयी फर्म स्थापित की जाय अथवा नहीं।
(5) स्थिर एवं परिवर्तनशील लागतें (Fixed and Vafiable Costs ) - एक निश्चित उत्पाद स्तर तक जो लागतें उत्पादन मात्रा से प्रभावित हुए बिना अपरिवर्तित रहती हैं, उन्हें स्थिर लागते कहा जाता है। कुल स्थिर लागतें उत्पादन मात्रा के साथ परिवर्तित नहीं होती हैं, परन्तु प्रति इकाई स्थिर लागतें उत्पादन मात्रा की विपरीत दिशा में परिवर्तित होती हैं। इन लागतों का सम्बन्ध फर्म के जीवित रहने से है, इसलिए ये लागते तो उठानी ही पड़ती हैं चाहे फर्म का उत्पादन शून्य ही क्यों न हो, फर्म की बिल्डिंग का किराया, न्यूनतम ऑफिस कर्मचारियों का वेतन, बीमा का प्रीमियम आदि स्थिर लागतों के उदाहरण हैं, स्थिर लागत को ऊपरी लागत (Overhead Cost ) अथवा सहायक लागत (Supplementry Cost) भी कहते हैं।
फर्म की परिवर्तनशील साधनों से सम्बद्ध लागतों को परिवर्तनशील लागत कहा जाता है। ये लगाते फर्म की उत्पादन मात्रा के साथ परिवर्तित होती हैं। यदि उत्पादन बढ़ता है तो ये लगाते बढ़ती हैं। पूर्णरूपेण परिवर्तनशील लागतें उसी अनुपात में परिवर्तित होती हैं जिस अनुपात में उत्पादन मात्रा परिवर्तित होती है। चूँकि उत्पादन मात्रा के अनुपात में ही कुल परिवर्तनशील लागतें बदलती हैं इसलिये प्रति इकाई परिवर्तनशील लागतें स्थिर रहती हैं। कुछ परिवर्तनशील लागतें ऐसी भी होती हैं जो उत्पादन मात्रा के अनुपात में परिवर्तित नहीं होती हैं। इन्हें अर्द्ध-परिवर्तनशील लागते कहा जाता है। परिवर्तनशील लागतें में कच्चे माल की कीमत, श्रम, परिवहन आदि सम्बन्धी व्यय शामिल किये जाते है।
(6) प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष लागतें (Direct and indirect Costs) - प्रत्यक्ष लागतें वे हैं जो निर्विवाद रूप से किसी एक उत्पादन अथवा एक विभाग अथवा एक प्रक्रिया से सम्बद्ध होती हैं ऐसी लागते को सरलतापूर्वक पहचाना चा सकता है और विभिन्न विभागों अथवा प्रक्रियाओं तथा उत्पादनों से जोड़ा जा सकता है। यदि क्षेत्र के आधार पर लागतों की गणना होती हो तो एक क्षेत्रीय मैनेजर का वेतन प्रत्यक्ष लागत कहा जायेगा।
अप्रत्यक्ष लागतें वे लागतें हैं जो आमतौर पर किसी एक प्रक्रिया अथवा एक विभाग अथवा एक उत्पाद से नहीं जोड़ी जा सकती हैं। ये लागतें सभी विभागों या प्रक्रियाओं या उत्पादों से सम्बधित होती हैं। इनके उचित बॅटवारे की समस्या सामने आती है जबकि प्रत्यक्ष लागतों के बँटवारे का प्रश्न ही नहीं उठता। अर्थशास्त्र में अप्रत्यक्ष लागतों को - (1) संयुक्तउत्पदन लागत तथा ( 2 ) वैकल्पिक उत्पाद लागत, इन दो वर्गों में विभक्त किया जाता है। दो वस्तुओं को संयुक्त उत्पाद की संज्ञा उस समय दी जाती है जब एक ही उत्पादन मात्रा में परिवर्तन करने पर दूसरे की उत्पादन मात्रा भी आवश्यक रूप से उसी दिशा में परिवर्तित होती है। यदि एक वस्तु की उत्पादन मात्रा में परिवर्तन करने पर दूसरी वस्तू की उत्पादन मात्रा में विपरीत दिशा में परिवर्तन होता है तो उन्हें वैकल्पिक उत्पाद कहा जायेगा ।
प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष लागतों में अन्तर करना इसीलिए उपयोगी है क्योंकि अनेक बार महत्वपूर्ण लगातें प्रत्यक्ष न होते हुए भी उत्पादन के साथ परिवर्तित होती है और उत्पादन सम्बन्धी निर्णयों से जटिल रूप से प्रभावित होती है। मशीनों को बनाने के लिए विद्युत शक्ति एक अप्रत्यक्ष लागत होते हुए भी एक परिवर्तनशील लागत है। इसी प्रकार प्रत्यक्ष लगातें कई बार स्थिर और अप्रत्यक्ष लागतों का रूप ग्रहण कर लेती हैं। इसी प्रकार प्रत्यक्ष लागतें कई बार स्थिर और अप्रत्यक्ष लगातों का रूप ग्रहण कर लेती हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि लागतों की प्रत्यक्षता का अंश लागतों के साथ बदलता रहता है। कुछ लागतों की प्रत्यक्षता की पहचान क्षेत्रीय स्तर कर हो सकती है,
कुछ की विभागीय स्तर कर पहचान हो सकती है और कुछ की ठीक वस्तु के स्तर तक पहचान हो सकती है। लागत की प्रत्यक्षता की पहचान क्षेत्रीय स्तर तक हो सकती है, कुछ विभागीय स्तर कर पहचान हो सकती है और कुछ की ठीक वस्तु के स्तर तक पहचान हो सकती है। लागत की प्रत्यक्षता प्रबन्ध में उस अवस्था में अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है जब अप्रत्यक्ष से सम्बन्धित बहुउत्पादों में पर्याप्त अन्तर हो अथवा उनके विक्रय प्रक्रिया में स्पष्टअन्तर हो और जब बहुउत्पादों में से एक कम करने या कुछ और वस्तुएँ जोड़ने के सम्बन्ध में निर्णय लेने के लिए लागतों का महत्व हो ।
(7) रोकड़ी एवं पुस्तकीय लागतें (Out of Pocket and book Costs) - रोकड़ी लागतें वे लागतें हैं जिनका फर्म बाहरी लोगों को नकद भुगतान करती है। कच्चे माल का भुगतान, चौकीदार का वेतन, श्रमिकों का वेतन, किराया आदि रोकड़ी लागतों के उदाहरण हैं। पुस्तकीय लागतें वे हैं जिनका फर्म को वर्तमान में नकद भुगतान नहीं करना पड़ता। मशीनों का हास इसी प्रकार की लागत है। इसे केवल पुस्तकों में दिखाया जाता है। रोकड़ी एवं पुस्तकीय लागतों का अन्तर फर्म की नकद स्थिति जानने के लिए तथा अन्य कई प्रकार के निर्णयों के लिए महत्वपूर्ण है। पुस्तकीय लागतों को रोकड़ी लागत में बदला जा सकता है। यदि सम्पत्ति को बेचकर उसे पुनः लीज पर प्राप्त किया जाय तो लीज का किराया ह्रास का स्थान ग्रहण कर लेगा और पुस्तकीय लागत रोकड़ी लागत बन जायेगी।
(8) वृद्धिमान एवं डूबी हुई लागतें (Increment & Sink Costs )- किसी क्रिया के स्वरूप अथवा स्तर में परिवर्तन करने पर लागतों में जो वृद्धि हो जाती है उसे वृद्धिमान लागत कहा जाता है। ये लागतें किसी भी परिवर्तन के सन्दर्भ में होती हैं-नया उत्पादन जोड़ा जाय, वितरण व्यवस्था में परिवर्तन किया जाय या नयी मशीन पढ़ाई जाय इस प्रकार वृद्धिमान लागत का एक प्रश्न एक मौजूदा फर्म के सन्दर्भ में ही पैदा होता है। नये सिरे से स्थापित की जाने वाली फर्म के सम्बन्ध में इस प्रकार की लागत का प्रश्न पैदा नहीं होता है। डुबी हुई लागत वह है जो व्यावसायिक किया के स्वरूप अथवा स्तर के परिवर्तित होने से परिवर्तित या प्रभावित नहीं होती है। क्रिया का स्तर कुछ भी हो ये लागतें ज्यों-की-त्यों रहती है। प्रबन्धकीय निर्णयों के लिए वृद्धिमान लागतों का ही महत्व है। डूबी हुई लागत और वृद्धिमान लागत का अन्तर परिस्थिति एवं तथ्य के आधार पर किया जाता है। एक परिस्थिति में एक लागत मद डुबी हुई लागत कहीं जा सकती है, परन्तु वही लागत मद दूसरी परिस्थिति में वृद्धिमान लागत कही जा सकती है।
(9) बचने योग्य एवं न बचने योग्य लागते ( Escapable and Unavoidable Costs )- बचने योग्य लागत वे लागते हैं जो व्यावसायिक इकाईयों की गतिविधियों में कमी लाकर कम की जा सकती है। मूलतः बचने योग्य एव न बचने योग्य लागतो का अन्तर वृद्धिमान एवं डूबी हुई लागतों के अन्तर के समान है। वृद्धिमान लागत जहाँ व्यावसायिक क्रिया में वृद्धि करने पर खर्च करनी पड़ती है वहाँ बचने योग्य लागत क्रिया को कम करके, कम की जाती है। स्मरण रहे कि बचने योग्य लागत का सम्बन्ध लागत पर पड़ने वाले शुद्ध प्रभाव से हैं
केवल सीधे रूप में कार्य संकुचन से जो लागत कम होती है उसी से नहीं। इसलिए प्रमुख समस्या यह है कि अप्रत्यक्ष रूप से लागत पर पड़ने वाले प्रभावों का सही अनुमान कैसे लगाया जाय। जैसे यदि एक लाभ न देने वाली गोदाम - शाखा को बन्द करने से जितनी लागत की बचत हुई वह लागत पर पड़ने वाला शुद्ध प्रभाव नहीं है। शुद्ध प्रभाव जानने के लिए अन्य शाखाओं पर अधिक भार पड़ने की लागत का अनुमान आवश्यक है, तभी उचित निर्णय लिया जा सकता है वे लागतें जिनसे बचना सम्भव नहीं हैं, उन्हें न बचने योग्य लागतें कहा जाता है।
( 10 ) नियन्त्रणीय एवं अनियन्त्रणीय लागतें (Controllable and Uncontrollable Costs) शब्दों से ही इन लागतों का अन्तर स्पष्ट है परन्तु एक लागत की नियन्त्रणता प्रबन्ध के स्तर पर निर्भर करती है। कुछ लागतों पर नीचे के स्तर पर नियन्त्रण नहीं किया जा सकता क्योंकि उनसे सम्बन्धित निर्णय उच्च स्तर के प्रबन्धकों के हाथ में होते हैं। इस दृष्टि से सभी लागतें नियन्त्रणीय हैं क्योंकि प्रत्येक खर्च किसी न किसी स्तर में प्रबन्धक की जिम्मेदारी होती हैं। परन्तु सभी लागतें समान रूप से कम नहीं की जा सकती नियन्त्रणीय एवं अनियन्त्रणीय लागतों का अन्तर खर्च एवं कार्यकुशलता की दृष्टि से उपयोगी है। प्रत्यक्ष माल एवं श्रम लागतें सामान्यतया नियन्त्रणीय होती है। ऊपरी लागत (Overheads) में से कुछ नियन्त्रणीय हैं कुछ नहीं ।
( 11 ) अत्यावश्यक एवं स्थगन योग्य लागतें (Uregent and Postponable Costs) -वे लागते जिनको स्थगित नहीं किया जा सके और जो उत्पादन क्रिया को चालू रखने के लिए अति आवश्यक होती हैं उन्हें अत्यावश्यक लागतें कहा जाता है। श्रम कच्चा माल, ईंधन आदि इसी प्रकार की लागते हैं। वे लागतें जिन्हें कुछ समय के लिए स्थगित किया जा सके उन्हें स्थगत योग्य लागते कहा जाता है। भवन की सफाई एवं मरम्मत मशीन की सफाई आदि इसी प्रकार की लागते हैं। इस प्रकार के अन्तर का प्रयोग रेल विभाग द्वारा किया जाता है।
( 12 ) प्रतिस्थापन एवं ऐतिहासिक लागतें (Replacement and Historial Costs ) - ऐतिहासिक लागत का अर्थ है वह कीमत जो किसी सम्पत्ति या प्लान्ट को खरीदते समय दी गई थी। प्रतिस्थापन लागत वह कीमत है जिसका भुगतान वर्तमान में उसी सम्पत्ति या प्लाण्ट को खरीदने के लिए करना पड़ेगा। परस्परागत वित्तीय लेखा विधियों में ऐतिहासिक लागतों का प्रयोग किया जाता है परन्तु कीमत स्तरों में पर्याप्त परिवर्तन होने वाले समय में ऐतिहासिक लागतों के आधार पर भावी लागत अनुमान एवं निर्णय लेना उपयुक्त नहीं है। प्रतिस्थापन लागतों का प्रयोग करते समय उन्हें वर्तमान एवं भावी कीमत स्तरों के अनुसार समायोजित किया जाना आवश्यक होता है।
(13) कुल लगात, औसत लागत एवं सीमान्त (Total Cost, Average Costs ) - कुल लागत स्वतः स्पष्ट है। किसी वस्तु के उत्पादन में फर्म की कुल स्थिर लागत और कुल परिवर्तनशील लागतों का योग ही कुल लागत कही जाती है। उत्पादन जब शून्य होता है तो कुल लागत और कुल स्थिर लागत बराबर होती है। उसके बाद कुल लागत उसी अनुपात में बढ़ती है जिसमें परिवर्तनशील लागत बढ़ती है। कुल लागत फलन को निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है।
C = A+F (Q)
इस सूत्र में C= कुल लागत, A= स्थिर लागत, F(Q) = परिवर्तनशील लागत का प्रतीक है। उत्पादक कुल लागत के साथ-साथ औसत लागतों में भी रूचि रखते हैं। औसत लागतें इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे उत्पाद कीमतों से तुलना करने में अधिक उपयुक्त होती हैं। उत्पाद कीमतें प्रति इकाइ व्यक्त की जाती हैं इसलिए कुल लागत से तुलना नहीं की जा सकती है। औसत लागतें तीन वर्गों में विभक्त की जाती है ( 1 ) औसत स्थिर लगात ( 2 ) औसत परिवर्तनशील लागत और ( 3 ) औसत कुल लागत ।
औसत कुल लागत मालूम करने के लिए कुल लागत में कुल उत्पादित इकाइयों का भाग देना पड़ता है। यदि प्रत्येक उत्पादन स्तर पर सम्बन्धित औसत स्थिर लागत एवं औसत परिवर्तनशील लागत को जोड़ दिया जाय तो भी औसत कुल लागत ज्ञात हो जाती है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी उत्पादन बिन्दु पर औसत कुल लागत और औसत परिवर्तनशील लागत का अन्तर ही उस बिन्दु की औसत स्थिर लागत है औसत परिवर्तनशील लागत की तरह औसत कुल लागत वक्र का आकार भी अंग्रेजी अक्षर U के आकार जैसा ही होता है।
सीमान्त लागत की धारणा का अर्थशास्त्र में बहुत महत्व है। उत्पादन की एक इकाई अधिक उत्पादन करने पर जो अतिरिक्त लागत होती है उसे सीमान्त लागत कहते हैं। सीमान्त लागत मालूम करने की विधि भी सरल है। किसी वस्तु की एक इकाई अधिक उत्पादन करने पर कुल लागत में जितनी वृद्धि होती है वही सीमान्त लागत होती है। मान लीजिए किसी वस्तु की 1 इकाई उत्पादन करने पर कुल लागत 100 रू. है, यदि वस्तु की 2 इकाइयाँ उत्पादित की जायें और कुल लागत 180 रू. हो जाये तो सीमान्त लागत 80 रू होती। सूत्र रूप में सीमान्त लागत इस प्रकार व्यक्त की जाती है:
लागत एवं उत्पादन हैं।
सीमान्त लागत की धारणा का कारण यह है कि यह उन लागतों की और संकेत करती हैं जिन पर फर्म का अत्यधिक नियन्त्रण होता है। सीमान्त लागत दो लागतों की ओर संकेत करती है (1) वह लागत जो एक इकाई उत्पादन बढ़ाने में खर्च करनी होती है तथा ( 2 ) वह लागत जो एक इकाई उत्पादन कम करके बचाई जा सकती है। औसत लागतों से इन लागतों का पता नहीं चलता हैं। सीमान्त लागत यह व्यक्त करती है कि एक इकाई उत्पादन बढ़ाकर अथवा एक इकाई उत्पादन कम करके कुल लागत में क्या परिवर्तन होता है। इस प्रकार उत्पादन मात्रा सम्बन्धी निर्णय एक सीमान्त निर्णय होता है। सीमान्त लागत की जब सीमान्त आय से तुलना की जाती है तब यह निर्णय किया जा सकता है कि फर्म को उत्पादन स्तर बढ़ाना लाभप्रद है। सीमान्त लागत की प्रवृत्ति पहले तेजी से कम होती है, फिर वह न्यूनतम बिन्दु पर पहुँचती है और फिर बढ़ती है। इससे यह प्रकट होता है कि परिवर्तनशील लागत और कुल लागत पहले घटती दर पर बढ़ती है और फिर बढ़ती हुई दर पर बढ़ती हैं। सीमान्त लागत वक्र का आकार उत्पत्ति के नियम का परिणाम है। जब सीमान्त लागत रेखा प्रारम्भ में गिरती हुई होती है तो वह उत्पत्ति वृद्धि नियम की स्थिति को व्यक्त करती है और जब बाद में ऊपर उठती है तो वह उत्पत्ति ह्रास नियम की स्थिति को व्यक्त करती है।
( 14 ) लेखा लागतें एवं आर्थिक लागतें (Accounting and Economies Costs ) - संस्था के लाभ-हानि खाते से जिन लागतों का पता चलता है उसे लेखा लागत कहते हैं। लेखा लागतें लेखाशास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार होती हैं तथा इनका सम्बन्ध भूतकाल से होता है। आर्थिक लागते वे होती हैं
जो अर्थशास्त्री के लिए उपयोगी होती है चाहे वे वास्तव में हुई हो या नहीं। जैसे स्वयं की पूँजी पर ब्याज आर्थिक लागत है लेकिन लेखा लागत नहीं है, इसी तरह से स्वामी का वेतन आर्थिक लागत है लेकिन लेखा लागत नहीं है। संक्षेप में निर्णय में प्रयोग सम्भव नहीं है।
(15) सामूहिक उत्पादन लागतें (Common Production Costs ) - कई निर्माणी संस्थाओं में एक ही कच्चे माल तथा एक ही उत्पादन प्रक्रिया से दो या दो से अधिक वस्तुओं का उत्पादन होता है। इन उत्पादनों को सामूहिक प्रक्रिया की समाप्ति के पश्चात् ही पहचाना जा सकता है। इस सामूहिक प्रक्रिया की समाप्ति तक जो उत्पादन लागत आती है उसे ही सामूहिक उत्पादन लागत कहते हैं । इन लागतों को किसी तर्कसंगत विधि द्वारा अलग-अलग वस्तुओं पर विभाजित किया जाता है।
(16) तालाबन्दी लागतें तथा परित्याग लागतें (Shutdown Costs and Abandonment Costs) - ऐसी लागते जो अस्थायी तौर पर उत्पादन बन्द कर देने पर ही होती है और उत्पादन चालू रहने पर नही होती है तालाबन्दी लागते कहलाती है ऐसी लागते जो किसी स्थायी सम्पत्ति को पूरी तौर पर हटाने पर व्यय की जाती हैं, परित्याग लागतें कहलाती है।
(17) रोकड़ी लागत एवं पुस्तकीय लागत (Out of Pocket Cost and Book Costs )- ऐसी लागतें जिनका वर्तमान में नकद भुगतान करना पड़ता है, रोकड़ी लागत कहलाती हैं। पुस्तकीय लागत वे होती है जिनका केवल लेखों में ही दिखाया जाना पर्याप्त हैं, वास्तव में नकद भुगतान की आवश्यकता नहीं होती जैसे हास।
(18) सामाजिक लागत ( Social Costs ) - सामाजिक लागत का अभिप्राय उन सब कश्टों प्रयासों व त्याग की मात्रा से है जो समाज को किसी वस्तु विशेष के उत्पादन के फलस्वरूप उठाने पड़ते हैं।
ऐसी लागतों के उदाहरण है धुआँ फैलने से जनस्वास्थ्य पर पड़ने वाला बुरा प्रभाव, गन्दगी फैलने से स्वास्थ्य पर पड़ने वाला
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